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आज के परिपेक्ष्य में गोवर्धन पर्वत प्रसंग..

    आज श्रीमदभागवत कथा सुन रहे थे, तो उसमें एक प्रसंग था जब कृष्णजी इन्द्र के प्रकोप की बारिश से बचाने के लिये गोकुलवासियों के लिये गोवर्धन पर्वत को अपनी चींटी ऊँगली याने कि सबसे छोटी ऊँगली से तीन दिनों तक उठा लेते हैं, तो गोकुलवासी भी पर्वत को उठाने में अपने सामर्थ्य अनुसार योगदान करते हैं, कोई अपने हाथों से पर्वत को थामता है तो कोई अपनी लाठी पर्वत के नीचे टिका देता है। इस तरह से तीन दिन बीत जाते हैं, तो गोकुल वासी कृष्णजी से पूछते हैं “लल्ला तुमने तीन दिन तक कैसे गोवर्धन पर्वत को उठा लिया ?” अब कृष्णजी कहते कि मैं भगवान हूँ कुछ भी कर सकता हूँ तो गोकुलवासी मानते नहीं, इसलिये उन्होंने कहा कि “आप सब जब पर्वत के नीचे खड़े थे और सब मेरी तरफ़ देख रहे थे, तो मेरे शरीर को शक्ति मिल रही थी और उस शक्ति को मैंने अपनी चीटी यानी कि छोटी ऊँगली को देकर इस पर्वत को उठा रखा था” तो भोले भाले गोकुल वासी बोले “अरे ! लल्ला तबही हम सोच रहे हैं कि हम सभी को कमजोरी क्यों लग रही है ।”

    अब यह तो हुआ कृष्णजी के जमाने का प्रसंग अब अगर यही आज के जमाने में हुआ होता तो सबसे पहले तो उनको अस्पताल ले जाया जाता और पता लगाया जाता कि “लल्ला” में इतनी ताकत कैसे आई और इतना बड़ा पर्वत उठाने पर भी एक फ़्रेक्चर भी नहीं आया। फ़िर विरोधी पक्ष सदन में हल्ला मचाता कि इतनी मुश्किल से इंद्र देवता ने बारिश की थी और ई लल्ला ने ऊ सब पानी बहा दिया फ़िर सबही चिल्लाते हैं कि पानी की प्रचंड कमी है।

    और जो जबाब कृष्ण जी ने गोकुलवासियों को दिया था वही जबाब आज देते तो सब उनके पीछे पड़ जाते कि ई लल्ला ने किया ही क्या है, हमारी सबकी थोड़ी थोड़ी ताकत का उपयोग करके ई छॊटा सा पराक्रम कर दिया अब इस ताकत के बदले में हम सबको अनुदान दिया जाये और इस लल्ला के विरुद्ध एक जाँच कमेटी बनायी जाये कि इस लल्ला ने कौन कौन से पराक्रम किस किस की ताकत का उपयोग करके किये हैं।

वाकई भगवान श्रीकृष्ण अपना माथा ठोक लेते ….. ।

नींद के आलस में “ऐ लेडी, हैप्पी वूमन्स डे”…

    नींद से उठने के बाद, आँख मूँदे बिस्तर पर ही पड़ा हुआ था, बाहर कमरे से जोर जोर से आवाजें आ रही थीं, कुछ अंग्रेजी की स्पेलिंग याद करवाती हुई मम्मी बेटे को। सुनाई तो स्पष्ट दे सकता था, परंतु सुनने की वाकई इच्छा नहीं थी, इसलिये बिना रूई की फ़ाह डाले भी काम हो रहा था। बात कितनी सही है कि अगर किसी काम को करने की इच्छा नहीं हो तो उसके लिये कुछ करना नहीं पड़ता कितना आलस्य छिपा है इन बातों में.. यहीं सोच रहा था कि तकिये के पास रखे मोबाईल से गाना बजने लगा.. जो कि दरअसल मोबाईल की ट्यून है.. स्लमडॉग मिलिनियर की “जय हो”, और देखा तो अपने लंगोटिया यार का दोस्त था, सोचा था कि किसी का भी फ़ोन होगा उठाऊँगा नहीं, भरपूर आलसभाव में था, परंतु सामने स्क्रीन पर विनोद का नाम देखकर बात करने से रोक न सका।

    फ़ोन उठाते ही उधर से आवाज आई “अच्छा तू है क्या ?, अरे तेरा ये नया नंबर है क्या, नंबर बदल लिया ?” इधर से मैंने कहा “अबे ! जब नया नंबर लिया था तब सबको एस.एम.एस. किया तो था” उधर से वह बोला “आया भी होगा तो पता नहीं, मैंने ही ध्यान नहीं दिया होगा, चल और बता क्या चल रहा है, सो रहा था क्या ?” इधर से मैंने कहा “हाँ यार, सो रहा था, बस अब उठने की तैयारी है और अब ऑफ़िस जाना है ?” उधर से उसने कहा “क्यों ? क्या आजकल रात्रि पाली में है क्या ?” इधर से मैंने कहा “हाँ यार” और भी बहुत सारी बातें हुईं, आलस तो अब भी आवाज में था, परंतु अपना पुराना दोस्त था फ़ोन पर तो सब आलस फ़ुर कर दिया।

    बात करते करते बालकनी में घूम रहा था, तो बेटेजी जोर जोर से स्पेलिंग याद कर रहे थे, और हम उनको उनकी भावी सफ़लताओं के लिये देख रहे थे। कि इतने में हमें कमरे में आते देख बेटे जी पलट पड़े अब मेरा मन पढ़ाई में नहीं लग रहा है, मैं पता नहीं किन ख्यालों में ऐसे ही मुस्करा पड़ा। तो वैसे ही एक आवाज कान में आई “मैं तुम दोनों को बेबकूफ़ नजर आती हूँ, क्या ?”, यह थी बेटे की मम्मी जी की आवाज।

    “पढ़ लो बेटा नहीं तो तुम ही नुक्सान में रहोगे हमारा कोई नुक्सान नहीं होने वाला”, अब जरा सी औलाद को कहाँ फ़ायदे और नुक्सान का गणित समझ में आने वाला था, मैंने पूछा बेटे से कि क्या हुआ तो बोला “आई डोन्न नो !”

    अभी यही सोच रहा हूँ कि पढ़ाई न करने से क्या क्या नुक्सान होते हैं ? क्या पढ़ाई करने से ही जिंदगी अच्छे से कटती है? पैसे कमाये जा सकते हैं ? क्या जिंदगी का ध्येय केवल पैसे कमाना और फ़ायदे, नुक्सान का गणित है ? क्या हमारा मकसद आज के नौजवानों को पढ़ा लिखा कर नौकर बनाने का है? मेरा तो नहीं है, मैं चाहता हूँ कि उसे कम इतना पता होना चाहिये कि पैसे कैसे कमाये जाते हैं, क्योंकि दुनिया में यही एक ऐसा काम है जो कि सबसे सरल भी है और सबसे कठिन भी है।

इतने में बेटे जी मम्मी के पास गये  और बोले “ऐ लेडी, हैप्पी वूमन्स डे” ।

ओह मुंबई, मेरे अधूरे प्यार … मेरी कविता …. विवेक रस्तोगी

ओह मुंबई, मेरे अधूरे प्यार

ऐसी प्रेमिका जिसे प्यार किया

पर मजबूरी में वह साथ न रही

दरिया के लहरों में उमड़ती

तुम्हारी चंचल अंगड़ाइयाँ

बलखाती,

इठलाती अदाएँ

वो मरीन ड्राईव

जहाँ सड़क इठलाती है

कितने ही रंग के चेहरे रहते हैं

घूमते हैं,

चूमते हुए रंग बदलते हैं

मुंबई रात में अपनी जवानी में खोई रहती है

दरिया अपनी गहराई में सब राज रखता है

जूहु में रेत की गहराईयों को देखते ही बनता है

दीवारों के किनारे,

कहीं पेड़ और झुरमुट के पीछे

प्यार के दीवाने अपनी दीवानगियों में खोये हुए

रेत को अपना पनाहगार बनाकर

जालिम हसरतें पूरी करते हुए,

शैया बनाकर

कहीं भेलपुरी,

कहीं बड़ापाव का शोर

कहीं टैक्सी, ऑटो और बसों का शोर

सभी में जवानी अंगड़ाईयाँ लेती हैं

पर फ़िर भी मैं तुमसे दूर हूँ

मजबूरी में,

मेरी प्रेमिका

जिंदगी की रेलमपेल है,

भागादौड़ी है

वो भीड़ भरी चीखती हुई लोकल

एकाएक मुझे अच्छी लगने लगी है

वे टकराते,

भागते लोग मुझे अपने से लगने लगे हैं

फ़ुटपाथों पर चिल्लाते हुए वो भाजीवाले

वो फ़ुटपाथ जो मैंने मुंबई की हर सड़क

हर गली में देखे हैं

वो चीखती हुई आवाजें,

जो हर आँखों के पीछे से आती हैं

वो हाइवे के बाजू में टहलना,

आते जाते वाहनों के शोर से मिलने वाली अज्ञात शांति

महालक्ष्मी के पास वो रुकती हुई लहरें

वो सिद्धी विनायक के दर्शन

हाजी अली तक जाती वो सड़क

जहाँ लहरें टकराकर लौट जाती हैं अपने में

वो क्वीन नेकलेस मालाबार हिल्स तक

वो गिरगाँव चौपाटी का छोटा सा किनारा

एलीफ़ेन्टा गुफ़ाओं का गहन सौंदर्य

मोटरबोट में ठंडी हवा का आनंद

गेटवे ऑफ़ इंडिया पर फ़ोटो खिंचाना

सामने गर्व से खड़े ताज को देखना

और भी बहुत कुछ

बस तुम्हें बहुत बहुत याद करता हूँ

मेरी मुंबई … मेरी मुंबई

शंकर शर्मा की बजट चर्चा और बाजार पर रुख… (Shankar Sharma on Budget and Market)

    ऐसे ही समाचारों के चैनल बदल कर देख रहे थे कि किसी एक चैनल पर शंकर शर्मा दिखे जो कि न्यूज ऐंकर बात कर रहे थे बस अपना रिमोट वहीं रुक गया । यह बजट के पहले का विशेष साक्षात्कार था। शंकर शर्मा जो कि फ़र्स्ट ग्लोबल के प्रमुख हैं और हम वर्षों से उनके बहुत बड़े पंखे हैं। बाजार के गुरु हैं, जो कहते हैं हमने हमेशा होते हुए देखा है। और भारत सरकार के खराब अनुभव और सेबी के भी उन्हें हैं, उनके अनुभव पढ़ने के लिये तहलका.कॉम पर जायें। जब बंगारु लक्ष्मण वाला मुद्दा तहलका कांड के रुप में उछला था, तब तहलका.कॉम में थोड़ी सी हिस्सेदारी शंकर शर्मा की भी थी, और उन्हें जो परिणाम इसके लिये भुगतना पड़े थे, वह सरकार की कार्यनीति पर सवाल हैं। पर हाँ एक बात तो है कि सरकार चाहे तो कुछ भी कर सकती है फ़िर भले ही तरीका संवैधानिक हो या असंवैधानिक ।

    शंकर शर्मा ने बाजार की नब्ज पकड़ते हुए कहा कि बाजार निफ़्टी ४५०० का स्तर छू सकता है और आज के स्तर से १५% तक का करेक्शन अभी भी वे बाजार में देखते हैं।

शंकर शर्मा ने कहा कि आज के स्तर पर सोने को बेचना चाहिये, और प्राफ़िट बुक करना चाहिये।

    एग्री कमोडिटिज पर भी शंकर शर्मा बुलिश हैं और खासकर शक्कर पर, जिसमें उन्होंने श्री रेनुका शुगर का नाम दिया है।

    घोटालों पर शंकर शर्मा ने मीडिया को आड़े हाथों लिया कि हम खुद ही अपने राष्ट्र की छबि धूमिल कर रहे हैं, ठीक है कि मीडिया स्टिंग ऑपरेशन करे और फ़िर जाँच एजेंसियों को काम करने दें परंतु मीडिया जाँच एजेंसीयों का काम न करें। उन्होंने इसके लिये अमेरिका का उदाहरण दिया कि कैसे घोटालों से वहाँ निपटा जाता है।

    २ जी घोटाले पर भी उन्होंने सभी सरकारों को आड़े हाथों लिया, केवल तत्कालीन केन्द्र सरकार ही नहीं उसके पहले वाली केन्द्र सरकार के मंत्री (प्रमोद महाजन) भी उतने ही जिम्मेदार हैं। और २ जी घोटाले पर साफ़ साफ़ कहा कि यह तो व्यापार है, और मेरी नजर में तो यह घोटाला नहीं है, और अगर है तो जाँच एजेंसियाँ काम कर ही रही हैं।

    पर ऐसे घोटालों से विदेशी निवेशकों का विश्वास देश में निवेश करने से डगमगाने लगता है, तो घोटालों पर होने वाली कार्यप्रणाली पर ही प्रश्नचिह्न है। सरकार को अपनी कार्यप्रणाली पर भी ध्यान देना चाहिये।

    टेलीकॉम सेक्टर पर शंकर शर्मा बेरिश हैं और दूर रहने की सलाह है। वैसे वे हमेशा ही टेलीकॉम और इन्फ़्रास्ट्रक्चर और कमोडिटिज वाले शेयरों से दूर रहने की सलाह देते हैं। इस बार जब एग्रो कमोडिटिज पर वे बुलिश दिखाई दिये तो बहुत आश्चर्य हुआ।

    जब शंकर शर्मा से पूछा गया कि बाजार की आज की परिस्थितियों को देखते हुए कहाँ निवेश करना चाहिये, जबकि आज अंतर्राष्ट्रीय जगत में राजनीति में तेज हलचल हो रही है। शंकर शर्मा ने कहा कि आज बैंकों के सावधि जमा के जो ब्याज दर हैं वे बहुत ही अच्छे हैं और जितना बैंक ब्याज दर (१०.५०%) आज दे रहे हैं, निश्चित तौर पर इतना रिटर्न बाजार तो नहीं दे सकते हैं।

बाजार में निवेशकों को रुकना चाहिये, अभी बाजार में जाने का सहीं समय नहीं है।

बेचारे बैंगलोर के मच्छर भी ना अपना मच्छरपना नहीं कर पा रहे हैं… और मुंबई के मच्छर उस्ताद हैं (Bangalor & Mumbai Mosquitoes)

    जब से बैंगलोर आये हैं, पता नहीं क्यों मुंबई से तुलना की आदत लग गई है, हरेक चीज में। खैर यह तो मानवीय स्वभाव है, हमें जहाँ रहने की आदत हो जाती है और जब नई जगह जाना पड़ता है तो उस माहौल में ढ़लने वाला जो समय है वह तुलना में ही निकलता है। यह चीज वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने पर भी होती है 🙂 यकीन नहीं होता तो किसी नये नवेले युगल दंपत्ति से पूछ कर देखें। और यह वस्तुस्थिती शादी के ४-५ वर्ष के बाद भी उत्पन्न होती है फ़िर तो दंपत्ति को आदत पड़ जाती है।

    जी तो आज तुलना है मच्छरों की, जी हाँ बैंगलोर के मच्छरों की। मुंबई के मच्छर इतने चालाक हैं, जैसे उनमें भी मुंबई की भाईगिरी के गुण आ गये हों।

    मच्छरों को मारने के उपाय भी बहुत सारे हैं, और हमने सभी अपनाये भी हैं पर साथ ही मुंबई के मच्छरों की चालाकी और धूर्तता भी देखियेगा और बेचारे बैंगलोर के मच्छरों का सीधापन..

१. अब हम तो मच्छर मारने के लिये इलेक्ट्रानिक रेकेट का उपयोग करते हैं।

मुंबई में जब सोने से पहले रेकेट लेकर निकलते थे, (अरे घर में, पूरी सोसायटी में नहीं) तो मच्छरों को या तो गंध लग जाती थी या उन्होंने अपनी आँखों में बढ़िया से लैंस लगवा लिये थे, जैसे ही रेकेट लेकर जाते मच्छर अपनी मच्छरी दिखा जाते और फ़टाक से उडकर छत पर बैठ जाते या फ़िर बिल्कुल छ्त और दीवार के कोने में बैठ जाते और हमें ऐसा लगता कि चिढ़ाते हुए कहते कि आ बेटा अब कैसे भुनेगा हमें, हम भी कभी बिस्तर पर खड़े होकर तो कभी स्टूल पर खड़े होकर तो कभी खिड़की पर खड़े होकर मारने की कोशिश करते पर ये मच्छर उसके पहले ही उड़ी मार जाते। हम मन मसोस कर रह जाते और फ़िर खिड़की खोलकर मारने की कोशिश करते तो बाहर उड़ी मार जाते और खिड़की के बाहर आँखों के सामने स्थिर उडकर हमें हमारे मुँह पर चिढ़ाते। और अगर किसी उड़ते हुए मच्छर को रेकेट से मारने की कोशिश करो तो वह क्या गजब की पलटी मारकर भाग लेता है।

बैंगलोर में बेचारे मच्छर बहुत आलसी हैं, जहाँ बैठे हैं वहीं बैठे रहेंगे, चालाकी और मच्छरी भाव यहाँ के मच्छरों में है ही नहीं। हम रेकेट लेकर घर में निकलते हैं तो बेचारे चुपचाप रेकेट में भुन जाते हैं, अगर कोई उड़ भी रहा है तो सीधा रेकेट में ही घुस लेता है। दीवार पर बैठा है तो यूँ नहीं कि थोड़ा ऊपर बैठे या छत पर बैठे, सीधा सादा सामने ही दीवार पर बैठ जायेगा और अपन भी बहुत ही इत्मिनान से रेकेट से निपटा देते हैं।

रेकेट उपयोग करने का फ़ायदा – सबसे बड़ा फ़ायदा कि हर दीवार या अलमारी पर खून के दाग या मच्छरों के दाग नहीं पड़े होते हैं, आप बैठे हुए आलस करते हुए, कविता करते हुए मच्छरों को और उड़ते हुए कानों में गुन गुन करते हुए मच्छरों को बहुत ही अच्छे तरीके से रेकेट से निपटा सकते हैं, पहले थोड़ी सी प्रेक्टिस की जरुरत होती है, पर जल्दी ही मच्छर अच्छे से प्रेक्टिस करवा देते हैं।

२. ऑल आऊट, गुडनाईट और भी पता नहीं कितने लिक्विड आते हैं, मच्छरों को मारने के लिये पर मुंबई में मच्छरों का जैसे इन सभी कंपनियों के साथ समझौता था और जो भी ये कंपनियों वाले इन लिक्विड में डालते थे तो मच्छरों को उसकी रेसेपी साझा कर देते होंगे जिससे मच्छर पहले ही इनके खिलाफ़ तैयार हो जाये। वैसे बैंगलोर के मच्छर भी कुछ ही ऐसे हैं, वरना तो अधिकतर तो इन लिक्विड के सामने टिक ही नहीं पाते, मच्छरों को सेटिंग करना अपने मुख्यमंत्री से सीख लेना चाहिये। यही हालात वो क्वाईल के साथ भी है।

३. हाथ से ताली बजाकर या मुठ्ठी बंद्कर कर मच्छर मारना – मुंबई में तो  ताली बजाकर मच्छर मारना लगभग नामुमकिन ही था और अगर कोई कोशिश भी करेगा तो ये मच्छर उस बेचारे को ताली पीटने वाला बनाकर छोड़ते हैं, और फ़िर भी मरते नहीं हैं, मुठ्ठी की तो बात ही छोड़ दीजिये, और साथ ही “साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है” इस गाने का टेप लेकर चलते हैं।  जो मच्छर अपनी मच्छरी से ताली से नहीं मरता वो मुठ्ठी बंद करने से क्या मरेगा। और इधर बैंगलोर में एक मच्छर एक ताली या एक मुठ्ठी, बस मच्छर खत्म। क्या आलसी मच्छर हैं यहाँ के उड़ते भी ऐसे हैं जैसे अपने पर एहसान कर रहे हों, इतनी आसानी से मार सकते हैं कि देखने की बात है।

तो कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि मुंबई के मच्छरों को बैंगलोर में ट्रैंनिग देने की जरुरत है और अच्छे रोजगार की संभावना भी है, साथ ही अच्छा खून भी उपलब्ध है, चूँकि बैंगलोर के मच्छर अपने मच्छरपना कर पाने में अभ्यस्त नहीं हैं तो उनके लिये हर तरह की वैरायटी का स्वच्छ खून उपलब्ध है। आईये मुंबई के मच्छरों आपका स्वागत करने के लिये बैंगलोर के मच्छर राह तक रहे हैं ।

मेरी ९ वीं वैवाहिक वर्षगांठ

कल हमारे विवाह को ९ वर्ष पूर्ण हो गये, अब तो ९ वर्ष मतलब बहुत बड़ा अंक लगने लगा है, ऐसा लगता है कि बुढ़ाने की ओर तेजी से अग्रसर हैं।

कैसे ये ९ वर्ष बीत गये, पता ही नहीं चला। ऐसा लगता है कि जिंदगी का बीता हर पल बस अभी तो बीता है, और अगर संख्या देखी जाये तो ९ हो गई ।

हालांकि वैवाहिक वर्षगांठ हमने शायद चौथी बार साथ में मनाई है, बाकी पाँच बार अकेले अकेले 🙁

कल छत पर चाँद देख रहा था, चाँद पूरा था क्योंकि कल पूर्णिमा थी और इतना सुंदर चाँद बहुत दिनों बाद देख रहा था, समझ में नहीं आ रहा था कि कौन सा चाँद ज्यादा सुन्दर है, मेरा या सबका 🙂

कटाक्ष तो वैवाहिक जीवन का आम हिस्सा है, जैसे कि अब हम ये संवाद बड़ी ही आसानी से बोल सकते हैं,

“तुम्हें ९ साल से झेल रहा हूँ”

“अब तो आदत हो जानी चाहिये ९ साल से देख रही हो”

वैवाहिक वर्षगांठ पर परिजनों और प्रेमी मित्रों से बात कर दिल गुलजार हो गया।

उम्मीद है कि आगे की वर्षगांठें भी ऐसे ही आनंद से निकलेंगी और प्रेम अमर रहेगा।

आज आप इतने क्यों गोरे लग रहे हो.. फ़ेयर & लवली ? (Colour Complex)

    कल ऐसे ही एक हमारे सहकर्मी ने दोपहर में भोजन के पहले हमसे पूछ डाला कि आज आप कुछ ज्यादा ही गोरे लग रहे हो, आज क्या किया है। हमने मजाक में कहा कि फ़ेयर एन्ड लवली लगाई है। तो वह मुझसे पूछने लगा कि क्या वाकई फ़ेयर एन्ड लवली लगाने से गोरे हो जाते हैं, तो मुझे हँसी छूट गई, अरे भई अगर क्रीम लगाने से ही गोरे हो जाते तो सारी दुनिया गोरी ही होती।

    बेचारे अफ़्रीका वाले कालिये भी कॉम्पलेक्स खाते होंगे वो भी गोरे हो जाते। स्लमडॉग मिलिनियर में दिखाया गया एक सीन अक्सर याद आता है, जब एक काला लड़का फ़ेयर एन्ड लवली क्रीम लगाता है और गोरा नहीं होता तो वह क्रीम उसी पोस्टर पर फ़ेंकता है। जैसे भगवान श्रीकृष्ण कहते थे “राधा क्यों गोरी, मैं क्यूँ काला”।

    मैंने अपने सहकर्मी से कहा कि तुम अगर गोरे हो भी जाओगे तो उतने अच्छे नहीं लगोगे जितने इस साँवले रंग में लगते हो, रंग से कुछ नहीं होता और साँवले रंग और काले रंग वाले गोरे रंग की काया वालों से ज्यादा अच्छे लगते हैं। रंग से कुछ नहीं होता व्यक्तित्व अच्छा लगना चाहिये। व्यक्तित्व अच्छा होता है, गठीले शरीर से, सौम्य छबि से, खुशी से, आचरण से। आकर्षक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का रंग कैसा भी हो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। अधिकतर आकर्षक व्यक्तित्व केवल साँवले रंग वाले लोगों में ही मिलता है, गोरे रंग वालों में नहीं।

    खैर जो दुख उनको होता होगा वह गोरे रंग वाले समझ नहीं सकते क्योंकि वे उस रंग के नहीं हैं। पर मेरा तो मानना यही है कि रंग कैसा भी हो आपको आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी होना चाहिये, कुछ गहरे रंग वाले मेरे मित्र भी हैं, पर वे इतने आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी हैं और मुझे लगता है कि अगर इनका रंग गोरा होता तो शायद इनका व्यक्तित्व इतना आकर्षक नहीं होता।

हिन्दी का दर्द और कवि शमशेर बहादुर सिंह की शती

    आजकल बिगबोस जैसे रियलिटी कार्यक्रमों और घटिया सीरियलों के बीच कहीं भी हिन्दी साहित्य की वार्ताएँ सुनाई ही नहीं देती हैं, निजी चैनल तो बस केवल घटिया मसाला ही बेचने में लगे हैं। कोई भी चैनल हिन्दी साहित्य पर वार्ताएँ नहीं देता।

    हिन्दी साहित्य वार्ता हमें मिली लोकसभा चैनल पर, कार्यक्रम का नाम है “साहित्य संसार”,  कल वार्ता थी, प्रसिद्ध कवि शमशेर बहादुर सिंह की शती पर, वैसे तो २०११ बहुत से कवियों की शती के साथ आया है, जैसे कि एक और नाम मुझे याद है “अज्ञेय”। शमशेर कवि के रुप में प्रसिद्ध हैं, परंतु उन्होंने गद्य भी खूब लिखा था।

     कार्यक्रम में पहले दिल्ली में हुई शमशेर की शती पर हुआ कार्यक्रम की झलकियाँ दिखाईं, जिसमें डाईस पर केवल दो ही माईक लगे दिखे एक दूरदर्शन का और दूसरा लोकसभा टीवी का, और अगर यही कार्यक्रम किसी फ़िल्म स्टार का होता तो निजी चैनलों के माईकों की भीड़ में  बेचारे ये दो माईक कहीं घूम ही जाते।

    सबसे पहले हमने सुना अशोक बाजपेयी को और फ़िर ओर भी साहित्यकार आये कवि शमशेर की चर्चा करने, कवि व्योमेश शुक्ल इत्यादि।

    स्टूडियो में चर्चा के लिये आये थे आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल जो कि यूपीएससी के सदस्य भी हैं, उन्होंने वार्ता में बताया कि बचपन में उन्होंने कवि शमशेर की एलिस इन वन्डरलेंड की अनुवादित कृति पढ़ी थी, और अनुवादित कृति मूल कृति से कहीं ज्यादा मार्मिक थी।

    कल उनकी चर्चा में बहुत से साहित्यकारों के नाम बहुत दिनों बाद सुने और दिनभर की थकान क्षण भर में चली गई। पर हिन्दी का दर्द अब भी दिल में है।

प्रेम दिवस पर दो कविताएँ अपनी प्रेमिका के लिये… मेरी कविता… विवेक रस्तोगी

प्रेम दिवस याने कि प्रेम को दिखाने का दिन, प्रेम के अहसास करने का दिन, और मैं अपनी प्रेमिका के लिये याने के अपनी पत्नी को दो कविताएँ समर्पित कर रहा हूँ, सच्चे दिल से लिखी है, अपनी पीड़ा लिखी है… कृप्या और यह न कहे कि यही तो हम भी कहना चाह रहे थे क्योंकि ये मेरी सिर्फ़ मेरी भावनाएँ हैं… वैसे मुझे लगता है कि यह कविता हर पति अपनी पत्नी को समर्पित करेगा ।
ख्वाईशें प्रेम दिवस की

ओह ख्वाईशें प्रेम दिवस की

तुम्हें कोई यादगार तोहफ़ा दूँ

पहले तोहफ़ा देने के लिये बैचेन रहता था

पर जेब खाली होती थी

अब जेब भरी होती है

तो तोहफ़ा समझ में नहीं आता

इसलिये मैंने खुद को ही

तुम्हें तोहफ़े में अपने आप को सौंप दिया है

उम्मीद है कि अब तो..

तुम्हें तोहफ़े की कोई उम्मीद मुझसे न..

रहती होगी…

और अगर हो तो…

दफ़न कर लो उसे क्योंकि अब मैं तुम्हारा हूँ

तोहफ़े तो गैर दिया करते हैं

जिन्हें अपना बनाने की ख्वाईश होती है

अब तो मैं तुम्हारा अपना हूँ

ये सब बहाने और बातें

केवल इसलिये हैं

क्योंकि इस प्रेमदिवस पर

फ़िर मुझे कोई तोहफ़ा नहीं मिला

मुझे यकीन है कि अब तक तो

तुम मुझे समझ गयी होगी

आखिर हमारा प्रेम अब जवान होने लगा है

शिकायत हो तो कह देना

मैं कॉलेज की नई किताब की तरह तुमसे

चिपक जाऊँगा।

हमें भी चाहिये ऑफ़

एक दिन घरवाली बोली

तुम करते हो ऐसा क्या काम

सात में दो दिन तुमको

मिलता है आराम,

यहाँ हम ३६५ दिन

लगे पड़े रहते हैं

अब हम भी दो दिन का

लेंगे ऑफ़,

हमने कहा दो दिन का ऑफ़

मतलब हमारा मंथली बजट साफ़,

मान जाओ

तुम्हें हमारे प्रेम की कसम,

रोज ऐसे ही ब्लैकमेल करके

खाना खा रहे हैं

जीना मुश्किल फ़िर भी

जिये जा रहे हैं।

कुछ पल मूँगफ़ली के दाने, भेलपुरी और बस का सफ़र, मुंबई और बैंगलोर

    ऑफ़िस से पैदल ही बाहर निकल पड़ा था, आज अकेला ही था, कोई साथ न था, या तो पहले निकल गये थे या फ़िर रुके हुए थे, मैं ही थोड़ा समय के बीच से निकल गया था। पता नहीं इन कांक्रीट के जंगलों में सोचता हुआ चला जा रहा था। आज तो वो मूँगफ़ली वाला ठेला भी नहीं था, जिससे अक्सर मैं पाँच रुपये के मूँगफ़ली के दाने बोले तो टाईमपास लेता था, पाँच रुपये में ४-५ कुप्पी, उसका भी अपना नापने का अलग ही पैमाना है, बिल्कुल फ़ुल बोतल के ढ्क्कन के साईज की कुप्पी है उसकी। अपनी पुरानी आदत जो पिछले ५-६ साल से मुंबई में लग गयी है, चलते हुए ही खा लेना।

    यहाँ तो सब ऐसे घूर घूर कर देखते हैं, कि जैसे चलते चलते खाकर गुनाह कर रहे हों, या फ़िर जैसे मैं उनका अनुशासन तोड़ रहा हूँ। पर अपन भी बिना किसी की परवाह किये अपने नमकीन वाले मूँगफ़ली के दाने टूँगते हुए अपने बस स्टॉप की ओर बड़ते जाते हैं।

     अब मूँगफ़ली वाला नहीं था और भूख भी लग रही थी थोड़ी कुनमुनी सी, जिसमें केवल टूँगने के लिये कुछ चाहिये होता है, वहीं बस स्टॉप के पास के भेलपुरी वाले को देखा था, देखा था क्या रोज ही देखते हैं, सोचा कि चलो आज इसको भी निपटा लिया जाये।

    १५-२० मिनिट चलने के बाद पहुँच लिये उसके पास, टमाटर काट रहा था, वो भी धीरे धीरे, उसको देखकर ही लगगया कि ये व्यक्ति यहीं का है, अगर मुंबई का भेलपुरी वाला होता तो पूछिये ही मत उनकी प्याज, आलू और टमाटर काटने की रफ़्तार देखते ही बनती है, वह भी चाकू से नहीं, एक पत्ती जैसी चीज होती है जिस पर उनका हाथ बैठ चुका होता है।

    सोचा कि चलो काटने दो, अब इसको क्या बोलें। सब समान भेलपुरी का एक स्टील के भगौने में चमचे से मिलाया और कागज की पुंगी बनाकर उसमें दे दिया और साथ ही एक प्लास्टिक का चम्मच, हमने कहा कि भई अपने को तो पपड़ी चाहिये, और पपड़ी लेकर चल पड़े बस स्टॉप की ओर।

    हालांकि भेलपुरी मुंबई की ही फ़ेमस है, परंतु अब तो हर जगह होड़ लगी है, एक दूसरे के पकवान बनाने की, जबकि मुंबई और बैंगलोर में जमीन आसमान का फ़र्क है, यहाँ मिनिटों में लेट होने पर कुछ नहीं होता, पर वहाँ मुंबई मिनिट मिनिट का हिसाब रखती है।

    वहाँ बस स्टॉप पर खड़े होकर बस का इंतजार भी कर रहे थे और साथ में भेलपुरी खाते भी जा रहे थे, तो लोग फ़िर घूर घूर कर देखना शुरु कर दिये जैसे कि मैं कोई एलियन हूँ। बस आई और हम भेलपुरी खाते हुए बस में चढ़ लिये, कंडक्टर टिकट देने आया तो उसके मनोभावों से लग रहा था कि अभी बोलेगा कि बस में भेलपुरी खाना मना है, परंतु वह चुपचाप टिकट देकर और अनखने से निकल लिया, अब बारी आई आसपास वालों की, तो शाम का समय रहता है, सबको हल्की भूख तो लगती ही है, मुंह में पानी भी आ रहा होगा पर करें क्या मांग तो सकते नहीं ना…! 😉  हम चटकार लेकर भेलपुरी खतम किये और वो कागज की पुंगी बेग के साईड जेब में डाली और बोतल निकाल कर पानी पीकर एक अच्छी सी डकार ली।

हालांकि सबके चेहरे अतृप्त लग रहे थे, पर मैं पूर्ण तृप्त था।