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रोज महाकाल की संध्या आरती में जाना

हम जब उज्जैन रहने पहुँचे तो दोस्त लोग शाम को घूमने जाते थे, पर हम कुछ दोस्तों ने थोड़े दिनों बाद इधर उधर जाने की जगह रोज शाम को 7 बजे महाकाल मंदिर में आरती में जाने का निर्णय लिया और नंदी जी के पीछे उस समय तीन बड़ी घंटियाँ हुआ करती थीं, तो वहाँ एक बड़ा लंबे से पटरे पर खड़े होकर हम तीन दोस्त कई बार पूरी आरती में घंटियाँ बजाते थे। अगर कोई और भक्त आकर निवेदन करता था, तो उनको भी मौका मिलता था। पर लगातार हाथ ऊपर करके घंटियाँ बजाना भी आसान काम नहीं, हाथ दुख जाते थे, पर धीरे धीरे आदत पड़ गई, उस समय डमरू और झांझ मंजीरे भी हाथ से ही बजाये जाते थे, फिर डमरू और झांझ मजीरे की मशीन आ गई।

महाकाल की संध्या आरती के बाद हम महाकाल परिसर में स्थित बाल विजयमस्त हनुमान जी की आरती में शामिल होते थे, वहाँ एक आरती रोज पढ़ी जाती थी, जो हमें नहीं आती थी, और वह आरती हमने घर पर भी रोज पढ़ना शुरू की तो हमें कंठस्थ हो गई, अब भी कंठस्थ है। वह है श्रीराम स्तुति – सुनने में ही इतनी मोहित करने वाली और और जब आप डूबकर भक्तों के साथ स्तुति करते हैं तो एक अलग ही दुनिया में होते हैं।

श्रीराम स्तुति (Shri Ram Stuti)

श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन

हरण भव भय दारुणम्।

नवकंजलोचन, कंज-मुख

कर-कंज पद-कंजारुणम्।।……

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बाल विजयमस्त हनुमानजी की आरती के बाद महाकाल परिसर में स्थित 84 महादेव व उज्जैन के हर मंदिर की छोटी प्रतिकृति भी वहाँ है, उनके दर्शन के बाद, माँ हरसिद्धि पहुँच जाते थे, कई बार वहाँ आरती मिलती कई बार नहीं।

इस प्रकार अपने जीवन के कुछ 2 वर्ष शाम को यही दिनचर्या रही। बाबा महाकाल मेरे जीवन के अभिन्न अंग हैं। और आज यह बातें अयोध्या में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा पर याद आ गईं।

आचार्यकुलम

बाबा रामदेव के स्कूल में एडमीशन

यह बात है वर्ष 2014 की जब भारतवर्ष में चुनावी बिगुल बजा हुआ था और बाबा रामदेव खुलेआम भाजपा का समर्थन कर रहे थे व वित्त के क्षैत्र में बहुत से ऐसे ऐसे बयान दे रहे थे, कि हमें भी आश्चर्य होता था कि ऐसा हो ही नहीं सकता और ये व्यक्ति जो कि इतने लोगों की सोच प्रभावित करता है कैसे कह सकता है कि अगर पेट्रोल 30-40 रूपये चाहिये तो भाजपा को जिताओ। इतना प्रचार किया था कि बताया नहीं जा सकता था, उस समय कई फ़ोरम में मैंने अपने विचार रखे तो लोगों ने मुझे पसंद नहीं किया। खैर हम तो इतना जानते हैं कि बाबा रामदेव को सरकार बनने के बाद ही संसद के सामने धरने पर बैठकर सरकार से माँग करनी चाहिये थी कि पेट्रोल 30-40 रूपये प्रति लीटर करो।

हुआ उसका बिल्कुल उलट अब हम 30-40 रूपये पेट्रोल के लिये प्रति लीटर ज़्यादा दे रहे हैं, अब जो बाबा रामदेव कह रहे हैं कि सरकार देश कैसे चलायेगी अगर पेट्रोल सस्ता हो जायेगा। यह बात हमने फ़रवरी 2014 में जब बाबा रामदेव के स्कूल में बेटेलाल का एडमीशन करने के दौरान उनके मैनेजमेंट को भी कही थी।

दरअसल हुआ यह था कि बाबा रामदेव ने हरिद्वार में नया स्कूल खोला था, जिसमें कि वेदों के साथ साथ अंग्रेज़ी में भी पढ़ाई होती है, हमने बैंगलोर में एडमीशन टेस्ट दिलवाया था, फिर सिलेक्शन होने पर कहा गया कि हरिद्वार में उनके स्कूल आचार्यकुलम में 7 दिन बच्चे को रहना होगा, और वे देखेंगे कि बच्चा वाक़ई उनके स्कूल के काबिल है या नहीं। तब हम हरिद्वार गये और बेटेलाल को 7 दिन के लिये स्कूल में छोड़ दिया। जब 7 दिन बाद हम वापिस लेने गये तो उनके आचार्य जी ने कहा कि हमने आपके बेटे की सबसे ज़्यादा अनुशंसा की है क्योंकि बालक मेधावी है। फिर पता चला कि अब अभिभावकों का मैनेजमेंट से साक्षात्कार होगा।

उस समय हमारा भारत के बाहर जाने का प्लान भी बन रहा था, हमसे पूछा कि भारत से बाहर क्यों जाना चाहते हैं। हमने कहा कौन बेहतर विकल्प नहीं अपनाना चाहेगा। फिर पूछा कि आप तो वित्त क्षैत्र से जुड़े हैं तो बताइये कि आप बाबा रामदेव के चुनावी मुद्दों में इकॉनोमिक्स के विचारों को कैसे देखते हैं, तो हमने बिना लाग लपेट के कह दिया कि बाबा रामदेव के विचार अपनी जगह और व्यवहारिक दुनिया में यह संभव नहीं। बाबा रामदेव जिन बातों को समझते नहीं क्यों उन पर अपने विचार रखते हैं। फिर हमसे पूछा गया कि अगर किसी कारण से बाबा रामदेव या स्कूल कहता है कि तत्काल ही 50-70 हज़ार रूपये जमा करवाइये बिना सवाल जबाब के, तो आप करवा पायेंगे। हमने कहा अगर यह रूपये हमारे बालक के किसी कार्य के लिये करवाये जायेंगे व हम उस कारण से पूर्ण रूप से संतुष्ट होंगे तो करवा देंगे।

फिर बाद में एडमीशन की लिस्ट जारी हुई तो हमारे बेटेलाल का नाम उसमें नहीं था, आचार्य जी आये और बोले कहीं कुछ गड़बड़ हुई है, मैं पता करके आता हूँ। वे पता करके आये बोले कि आपका बच्चा तो एडमीशन के लिये पास था, पर आप साक्षात्कार में फेल हो गये, आपने अपने विचार उचित दिशा में नहीं रखे। हम मन ही मन हँसे कि हम तो वैसे भी यहाँ एडमीशन करवाने वाले थे नहीं, पर कम से कम बाबा रामदेव के स्कूल और मैनेजमेंट के मन की खो़ट तो हमें पता चल गई।

आज भी यह क़िस्सा इसलिये लिख रहा हूँ कि जब एक पत्रकार ने पूछा था कि बाबाजी आपने कहा था कि पेट्रोल 30-40 रूपये हो जायेगा, तो बाबा रामदेव ने कहा तो क्या पूँछ पाड़ेगा मेरी।

सोशल नेटवर्किंग के युग में टूटती आपसी वर्जनाएँ

आज का युग तकनीक की दृष्टि से बेहद अहम है, हम बहुत सी तरह की सामाजिक तानेबाने वाली वेबसाईट से जुड़े होते हैं और अपने सामाजिक क्षैत्र को, उसके आवरण को मजबूत करने की कोशिश में लगे होते हैं। हम सोशल नेटवर्किंग को बिल्कुल भी निजता से जोड़कर नहीं देखते हैं, अगर हम किसी से केवल एक बार ही मिले होते हैं तो हम देख सकते हैं कि थोड़े ही समय बाद उनकी फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट हमारे पास आयी होती है या फिर हम खुद से ही भेज देते हैं। जबकि हम अपनी निजी जिंदगी में किसी को भी इतनी जल्दी दाखिल नहीं होने देते हैं, किसी का अपनी निजी जिंदगी या विचार में हस्तक्षेप करना हम बहुत बुरा मानते हैं और शायद यही एक कारण है कि जब तक हम किसी को जाँच परख नहीं लेते हैं तब तक हम उससे मित्रता नहीं करते हैं। Continue reading सोशल नेटवर्किंग के युग में टूटती आपसी वर्जनाएँ

दिल्ली घूम लिया जाये तो दिमाग भी शांत हो जायेगा

कहीं घूमे हुए बहुत समय हो गया था, इतना अंतराल भी बोर करने लगता है, कि कब हम रूटीन जीवन से इतर हो कुछ अलग सा करें, तो बस पिछले सप्ताहाँत हमने सोच लिया कि इस सप्ताहाँत पर अच्छे से दिल्ली घूम लिया जाये तो दिमाग भी शांत हो जायेगा और ऊर्जा भी आ जायेगी। बहुत दिनों से लग रहा था कि कार में कुछ समस्या है, तो हमने सुबह सबसे पहले कार के पहिये का एलाईनमेंट और बैलैन्सिंग करवाया और उसके दो दिन पहले ही दुर्घटना बीमा के तहत हमने कार की विंड शील्ड कंपनी के सर्विस सेंटर से बदलवाई थी।

दिल्ली रेल्वे संग्रहालय
दिल्ली रेल्वे संग्रहालय

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डर के आगे जीत है (Rise above Fear !)

     जीवन संघर्ष का एक और नाम है, जिसमें हमें हर चीज सीखनी पड़ती है, फिर भले ही वह चाव से हो या मजबूरी में । हाँ एक बात है कि जब हमें कोई चीज नहीं आती तो हमें ऐसे  लगता है कि यह चीज सीखना कितना दुश्कर कार्य है और हमें उस चीज को सीखने में, जीवन में उतारने में अपने अंदर के डर से सामना करना पड़ता है। जो भी अपने अंदर के डर से जीत गया बस वही अपने जीवन में किसी भी कार्य में सफल हो पाया है। ऐसे ही माऊँटेन ड्यू का डर के आगे जीत है स्लोगन याद आ जाता है।

    हमें बैंगलोर में कभी भी कार की जरूरत महसूस नहीं हुई, वहाँ हम बाईक से ही काम चलाते थे, और बैंगलोर के व्यस्त यातायात में हमें ऐसा लगता था कि जो सफर हम बाईक से ऑफिस का 40 मिनिट में करते थे वही सफर कार से 2 घंटे में होता, तो हमने सोचा कि बाईक से ही काम चलाते हैं, पर हाँ कार को चलाते हुए लोगों देखकर उनकी हिम्मत की मन ही मन दाद देता था। सोचता था कि जब मुझे बाईक चलाने में इतना डर लगता है, तो कार चलाने के लिये इनको कितना डर लगता होगा।
    जब मैं इस वर्ष गुड़गाँव आया तो देखा कि मेरा ऑफिस हाईवे पर पड़ता है और बाईक से आना जाना बिल्कुल सुरक्षित नहीं है, तो कार लेना अब हमारी मजबूरी बन गया था, पर हमें चलानी आती नहीं थी और कार की जरूरत बहुत ज्यादा महसूस होने लगी थी । 
 डर के आगे जीत है का तमिल वीडियो
    हमने ड्राईविंग स्कूल से कार चलानी सीखी, पहले दिन हमारे ट्रेनर ने हमें जैसे ही ड्राईविंग सीट पर बैठने को कहा हमारा डर हम पर हावी होने लगा और हाथ काँपने लगे, तो ट्रेनर ने कहा कि आज और कल दो दिन आप केवल स्टेयरिंग व्हील और एक्सीलेटर पर ही चलाओगे, जब गाड़ी पहली बार शुरू की तो डर हम पर हावी हो रहा था, ऐसा लग रहा था कि जब केवल स्टेयरिंग व्हील और एक्सीलेटर सँभालने में ही इतनी मशक्कत है तो गियर बदलना, क्लच और ब्रेक कैसे करेंगे । साथ ही पीछे और बगल से आने वाले वाहनों का भी ध्यान रखना पड़ता है।
  तीसरे दिन से हमें ब्रेक भी सँभालने को दे दिया तो अब हमें स्टेयरिंग व्हील, एक्सीलेटर और ब्रेक तीनों चीजें सँभालना भारी पड़ने लगा, पर फिर भी हिम्मत को बाँधकर रखा और अपने डर को अपने पर हावी नहीं होने दिया। पाँचवे दिन से हमें गियर और क्लच भी सँभालने को दे दिया गया, अब हमें पूरी गाड़ी को अपने नियंत्रण में रखने की जिम्मेदारी थी, और केवल तीसरे गियर तक चलाने की परमीशन थी, हमने भी अपने डर को काबू में रखा और सोचा कि अगर डर गये तो कार कैसे चलायेंगे, 15 दिन हमने कार सीखी और सोलहवें दिन हमने अपनी कार की डिलीवरी ली और पहले ही दिन 40 किमी चलाई, दूसरे दिन ही कार एक जगह मोड़ते समय ठुक गई, पर हमने सोचा कि अभी डर गये तो कभी कार नहीं चला पायेंगे, हमने कार चलाना जारी रखा और सड़क के ऊपर कार चलाने के डर को मात दे दी अब तक हम कार लगभग 5500 किमी चला चुके हैं, जिसमें यमुना एक्सप्रेस हाईवे पर दो बार सफर के मजे भी ले चुके हैं, अधिकतम रफ्तार हमने 130 को छुआ है।
हम तो यही कह सकते हैं कि हिम्मत बाँधकर रखो तभी डर के आगे जीत है ।

माँ के संस्कार के एक छोटे संवाद का जब मैं साक्षी बना (Sanskar in Child by Mother)

    कल भी बेटेलाल की तबियत में कोई खास फर्कनहीं पड़ा, आज सातवां दिन है जब लगातार 103 बुखार आ रहा था, सारे टेस्ट नेगेटिव थे, पर डॉक्टर ने अपने अनुभव के आधार पर टायफाईड का ईलाज शुरू कर दिया, विडाल और ब्लड कल्चर टेस्ट कल करवाये हैं जिससे क्या बीमारी है इसकी पुष्टि हो जायेगी। हमने भी इस बारे में ज्यादा विरोध नहीं किया, क्योंकि जो जिस बात का विशेषज्ञ होता है, तो उसे उसका काम करने देना चाहिये, ये हमारा दृढ़ विश्वास कहिये या फिर बेबकूफाना हरकत, पर हम अपनी जगह कायम है, ये टेस्ट वगैरह की सुविधा तो अब उपलब्ध है, पहले के जमाने में भी तो टायफाईड से निपटा जाता था, केवल विश्वास के भरोसे ही तो मरीज डॉक्टर के पास जाते थे, और हम भी विश्वास के भरोसे ही जाते हैं, भले ही दुनिया में चीजें बदल गयी हैं पर जरूरी चीज विश्वास है, उस पर आज भी सब यकीन करते हैं, नहीं तो दुनिया में कोई भी कार्य न हों।

     जब डॉक्टर ने कहा कि अभी दो बोतल चढ़ा देते हैं और इंजेक्शन लगा देते हैं, तो हमने कहा जैसा आपको उचित लगे करिये बस हमारे बेटेलाल को ठीक कर दीजिये, हाथ से टेस्ट करने के लिये खून निकाला गया, तो बेटेलाल ने बहुत नाटक किये, कि सुईं लगेगी, दर्द होगा, पर उसे मनाया गया और बताया कि चींटी काटने जितना भी दर्द नहीं होगा, और बेटेलाल ने आराम से खून निकलवा लिया।

     डॉक्टर मैडम ने बहुत ही प्यार से बेटेलाल से बात की, तो हमारे बेटेलाल आ गये बिल्कुल लाड़ में और अच्छे से बात करने लगे, शायद यह भी डॉक्टरी शिक्षा का एक अहम हिस्सा होता होगा, जिसमें मरीज की मनोस्थिती को अपने अनुकूल बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता होगा, जिससे मरीज उनसे खुलकर बतिया सके।
     डॉक्टर अब तक कम से कम 4-5 बार हमारे बेटेलाल से चॉकलेट खाने के बारे में पूछ चुकी थीं, और हमारे बेटेलाल उन्हें बारबार मना कर रहे थे, आखिरकार डॉक्टर ने चॉकलेट बेटेलाल को दे दी तो बेटेलाल ने चॉकलेट लौटाते हुए कहा कि मुझे नहीं चाहिये, पर डॉक्टर ने कहा कि कोई बात नहीं चॉकलेट अपने पास रख लो और बाद में खा लेना, पर फिर भी बेटेलाल ने कहा कि नहीं चाहिये, शायद इस बात का डॉक्टर को बुरा जरूर लगा होगा, मैं अपने ऊपर लेकर यह बात सोचता हूँ तो शायद मुझे भी लगता या फिर अगर इस मनोस्थिती से प्रशिक्षण मिलता या अनुभव के आधार पर बुरा भी नहीं लगता।
 
जब उस प्रोसीजर रूम से डॉक्टर बाहर चली गईं तो माँ बेटे के संवाद शुरू हुआ –
 
 माँ – बेटा ऐसे डॉक्टर को चॉकलेट के लिये मना क्यों किया ?
 बेटेलाल – मुझे नहीं खानी थी, इसलिये मैंने मना कर दिया !!
 माँ – पर, सोचो कि उन्हें कितना बुरा लगा होगा ?
 बेटेलाल – (कुछ सोचते हुए) नहीं लगा होगा
माँ – नहीं बेटे, ऐसे किसी को भी सीधे मना करोगे, तो उसे बुरा नहीं लगेगा ??
 बेटेलाल – पर मुझे अभी चॉकलेट नहीं खानी, तो मैं क्यों जबरदस्ती ले लूँ
 माँ – आप डॉक्टर से चॉकलेट ले लेते, उनको थैंक्स फॉर चॉकलेट कहते, और चॉकलेट अपने पास रख लेते तो उनको कितना अच्छा लगता, आपने सीधे मना किया तो उन्हें कितना बुरा लगा होगा, कोई भी आपको ऐसे सीधे मना करता है तो आपको भी तो बुरा लगता है, तो अब आगे से हमेशा ध्यान रखना |
 बेटेलाल – ठीक है मम्मी अब मैं ध्यान रखूँगा |
    मैं पीछे खड़े होकर माँ बेटे का संवाद सुन रहा था, सोच रहा था कि यही छोटे छोटे पाठ कहीं न कहीं जीवन में अहम भूमिका निभाते हैं, जिन्हें हम संस्कार कहते हैं, आज मैं भी सुईं के साथ जाते हुए संस्कार को देख रहा था।

मैं उन सभी शरीफ़ लोगों को सैल्यूट करता हूँ ।

जब मैं पहली बार घर से बाहर याने कि किसी दूसरे शहर वो भी इतनी दूर कि जाने में ही कम से कम १८ घंटे लगते थे, जिसमें बीच में अलीगढ़ से बस बदलनी पड़ती थी, चूँकि हमारे अभिभावक उधर की ही तरफ़ के हैं, तो उन्होंने बहुत सारी हिदायतों से हमारा थैला भर दिया । जैसे कि –

– किसी दूसरे पर ऐसे ही विश्वास मत कर लेना ।

– अपना और अपने समान का ध्यान रखना ।

– किसी भी अनजान से खाने को मत लेना ।

– बस स्टैंड पर भी अपने सूटकेस का ध्यान रखना, कहीं ऐसा ना हो कि सूटकेस का हैंडल तुम्हारे हाथ में हो और सूटकेस गायब हो जाये ।

– चलते रिक्शे से लोग गायब कर दिये जाते हैं।

– यहाँ तक कि चलते रिक्शे गायब हो जाते हैं और जो गायब होते हैं उनका कभी पता भी नहीं चलता ।

और भी ऐसी बहुत सारी बातें हमें बतलाई गईं, हमने भी पूर्ण सतर्कता से अपनी यात्रा शुरू की और अलीगढ़ पहुँचे और ये सारी बातें हमें याद आने लगीं, और पूरे साहस के साथ बस स्टैंड पर बस के इंतजार में ऐसे खड़े थे जैसे लुटेरों की बस्ती में एक शरीफ़ आदमी बेबस खड़ा है अगर लुटेरे आ भी गये तो ये शरीफ़ आदमी इस सतर्कता का क्या अचार डालेगा ।

खैर लगभग इस डर और सतर्कता के वातावरण में वो सुबह का एक घंटा अलीगढ़ के बस स्टैंड पर बस का इंतजार करते हुए निकला और फ़िर बस समय से आ गई तब जाकर जान में जान आई। और ये जानकर तसल्ली हुई कि न अपन ने किसी पर विश्वास किया, अपने समान का ध्यान रखा, न ही किसी अनजान से खाने को लिया और समान का ध्यान रखा और सबसे बड़ी बात ना ही चलते रिक्शे से अपन गायब हुए।

खैर आज भी ऐसे कई इलाके हैं जहाँ ये बातें सच हैं, और ऐसी खौफ़नाक जगहों पर लोग रहते ही हैं, और ऐसे लुटेरों में हिम्मत इसलिये है क्योंकि वहाँ ज्यादा ही शरीफ़ लोग रहते हैं, मैं उन सभी शरीफ़ लोगों को सैल्यूट करता हूँ ।

बिस्तर पर कैसे और किसके साथ नींद में होते हैं, नींद को कभी जाना है ?

बिस्तर पर लगभग गिरा ही था और नींद के आगोश में पूरी तरह से खो चुका था, चादर की वह सल वैसी ही रही, जैसी पहले थी, और बस वह सल के साथ बिस्तर पर ढ़ह चुका था। जब नींद आती है तो वह सोने की जगह नहीं देखती। एक समय था जब बिस्तर पर एक भी सल हो मजाल है, परंतु आज इतने वर्षों में जिंदगी के इतने सारे रंग और रास्ते देखने के बाद थकान इतनी बड़ चली है कि उसे उस सल का भी ध्यान नही रहा जिससे उसे हमेशा से चिढ़ रही है।
बचपन में उसने पढ़ा था कि भगवान राम या भरत अब याद नहीं, इतने नाजुक थे कि एक बार बिस्तर पर लंबा सा बाल पड़ा रह गया था तो उनके शरीर पर लाल रंग की रेखा उभर आई थी, खैर उभर तो इसलिये ही आई होगी कि वे भी भरपूर नींद के आगोश में थे। अगर तकलीफ़ होती तो उठकर बाल नहीं हटा देते।
इसलिये मानना है कि नींद जिंदगी का सबसे बड़ा नशा है, किसी के पास कितनी भी दौलत आ जाये परंतु वह बिना नींद के रह नहीं सकता, उसे नींद लेना बहुत जरूरी है।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बिस्तर पर तभी जाते हैं जब नींद आ रही होती है और बिस्तर पर लेटते ही नींद के आगोश में खो जाते हैं, हमारे हिसाब से तो वे बहुत ही खुशकिस्मत लोग होते हैं, क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि ऐसे लोग अपना पूरा काम निपटाने के बाद इतमिनान से चिंतन करके पूरी तरह सोने की मानसिक चेतना के साथ जाते हैं।
कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो कि बिस्तर पर तो चले जाते हैं क्योंकि सोने का समय हो गया है, परंतु नींद उनकी आँखों से कोसों दूर होती है, तरह तरह के नायाब नुस्खे अपनाते हैं नींद बुलाने के लिये परंतु नींद है कि आने का नाम ही नहीं लेती, हमें ऐसा लगता है कि ऐसे लोग दो प्रकार के हो सकते हैं एक वे जिनके पास कोई काम नहीं होता और थकान नहीं होती और दूसरे वे जिनको आज और कल दोनों की बहुत ज्यादा चिंता रहती है और उसी चिंता में घुले जाते हैं।
कुछ लोग उसके जैसे होते हैं, जो कि काम के बोझ के मारे होते हैं जो मजदूरों की तरह काम करते हैं और घर के लिये निकलने पर पूरी नींद में होते हैं, ये काम को बेहतरीन तरीके से करते हैं, परंतु इनके पास काम इतना होता है कि खुद के लिये सोचने का समय ही नहीं होता बस ये सोचते हैं कि नींद लेकर शरीर को रिचार्ज कर लिया जाये और अगले दिन के लिये ऊर्जा इकठ्ठी कर ली जाये।
अब वह बोल रहा था कि कम से कम बिस्तर की सल तो निकाल कर सोयेगा, नहीं तो उसे रात में २ बजे उठकर वह सल हटाना पड़ती है, मैं सोच रहा था क्या नींद में भी इतना अनुशासन जरूरी है ?

क्या ब्लॉग / नेट से पैसे कमाना वाकई आसान है ? (Earning money by Blog / Net is really Simple ?)

    क्या वाकई घर से काम (Work from home) करने के पैसे मिल सकते हैं, कुछ डाटा एन्ट्री (Data Entry) जॉब्स या फ़िर कोई ऐड क्लिक या फ़िर कोई सर्वे। सब माया का मकड़जाल लगता है, और जितना विज्ञापन में सरल दिखाया जाता है उतना सरल होता भी नहीं है।
      अभी कुछ दिन से एक हमारे नॉन-टेकी मित्र पीछे पड़े हैं कि यार इंटरनेट पर तो खजाना है, लोग कितना कमा रहे हैं और तुम हो कि ना तुम कमा रहे हो और ना ही हमें कमाने के गुर सिखा रहे हैं। हमने तो मजाक में कह भी दिया “भई अगर तुमको खजाना नजर आता है तो तुम लूट लो, देखो हमें तो यह पता है कि हाँ कमा सकते हैं, परंतु कैसे ? यह नहीं पता” । और जो कोई कमा भी रहा है तो वो कैसे और कितना कमा रहा है नहीं बताता । अपने यहाँ भारतियों में एक पेटदर्द की बीमारी है कि अगर उसकी कमाई पर कोई अंतर ना भी पड़ रहा हो तो भी वह बतायेगा नहीं कि कैसे कमाई की जा रही है, बिल्कुल वैसे ही ये नेट की कमाई का चक्कर है। वैसे यह सेवा बहुत से लोग मोटी सी फ़ीस लेकर भी करते हैं, परंतु उनके साथ भी यही है कि फ़ीस तो ले ही लेते हैं और काम भी अच्छा नहीं करते हैं, अरे भई अगर उन्हें भी पैसा कमाना आता नेट से तो वे ये काम ही क्यूँ करते, अपनी साईट बनाकर ही नहीं कमाते।
    इतना कहने के बावजूद भी वे हमारे पीछे पड़े हैं, बताओ भई कहाँ से कैसे कमाया जाता है, लोग विज्ञापन लगाकर हजारों डॉलर कमा रहे हैं, हमने भी कहा भई अगर हमें पता होता तो तुमको जरूर बता देते।
    फ़िर कुछ दिनों बाद गूगल पर माथापच्ची करके आये और बोले कि ये देखो भारत के टॉप १० ब्लॉगर जो कि हजारों डॉलर कमा रहे हैं, ये देखिये Top 10 Indian blogger, highest earning bloggers । अब हम क्या बतायें कि भले ही आईटी में हैं परंतु इस तकनीक से अंजान हैं । और उस भले मानस को समझाया कि अपने भारतीय अगर कुछ करते हैं तो किसी से साझा नहीं करते। खुद पानी पीने के लिये खुद ही कुआँ खोदना पड़ता है, अब हम पढ़ते हैं और फ़िर बताते हैं कि कैसे कमाई की जा सकती है।
    मित्रों अगर कोई अपने ब्लॉग से कमा रहे हों और अगर बताना चाहते हों तो बतायें, शायद हम अपने मित्र की मुश्किल दूर कर सकें। उनके लिये समस्या है कि अंग्रेजी में हाथ कमजोर है और इस बाबत हिन्दी में बहुत ही कम लेख (content) हैं, जिससे कि कोई नॉन-टेकी व्यक्ति सीख सके। इंतजार है… किसी के जबाब का, नहीं तो हम तो पढ़ ही रहे हैं, अब मित्र है उसके लिये तो भई सब करना पड़ेगा।

हरी मिर्च वाली धनिये की चटनी का स्वाद (Taste of Green Chilli Chutney)

    हरी मिर्च वाली धनिये की चटनी बचपन से खाते आ रहे हैं, पहले जब मिक्सी घर में नहीं हुआ करती थी तब सिलबट्टे पर मम्मी या पापा चटनी पीसकर बनाते थे, अभी भी अच्छे से याद है कि थोड़ा थोड़ा पानी पीसने के दौरान डालते थे और चटनी बिल्कुल बारीक पिसती थी, अच्छी तरह से याद है कि उस समय धनिया पत्ती की एक एक पत्ती तोड़कर पीसने के लिये रखते थे, एक भी धनिये का डंठल नहीं गलती से भी नहीं छूटता था। मसाला धनिया, मिर्च, ट्माटर को ओखली में डालकर मूसल से कूटते थे और फ़िर सिलबट्टे पर चटनी को पिसा जाता था।

    हरी मिर्च वाली धनिये की चटनी बाद में मिक्सी घर पर आ गई तो उसी में चटनी बनने लगी और धनिया पत्ती पहले की तरह ही तोड़ी जाती, बिना डंठल के, पर एक बार चटनी हम बना रहे थे तो धनिया पत्ती तोड़ने में बहुत आलस आता था, कि एक एक पत्ती तोड़ते रहो और फ़िर चटनी बनाओ, हमने धनिया की गड्डी धोई और चाकू से पीछे की जड़ें काटकर नजर बचाकर धनिये की चटनी बना डाली, घर में बहुत शोर हुआ कि लड़का बहुत आलसी है और आज चटनी में धनिये के डंठल भी डाल दिये, अब हम तो समय बचाने की कोशिश में नया प्रयोग कर दिये थे, पर फ़िर उसी में इतना स्वाद आने लगा कि हमारी विधि से ही चटनी घर में बनाई जाने लगी।

    चटनी भी मौसम के अनुसार स्वाद की बनाई जाती थी, साधारण धनिये की, पुदीना पत्ती के साथ, कैरी के साथ । मसाले में नमक, लाल मिर्च डालते थे फ़िर बाद में हींग और जीरा का प्रयोग भी होने लगा। प्याज और लहसुन के साथ भी चटनी का स्वाद परखा गया।

    हरी मिर्च तीखे के अनुसार कम या ज्यादा डालते हैं, अभी थोड़े दिनों पहले बहुत तीखी चटनी खाने की इच्छा हुई तो खूब सारी मिर्च डाल दी तो उस चटनी में से एक चम्मच चटनी भी नहीं खा पाये। अब सोचा कि कम मिर्च की चटनी बनायें तो पता चला कि मिर्च ही इतनी तीखी है कि ५-६ मिर्च में तो बहुत तीखा हो जाता है। बचपन की याद है ७-८ मिर्च में भी चटनी इतनी तीखी नहीं होती थी तो लाल मिर्च डालते थे।

    सिलबट्टे पर चटनी पीसने से बैठकर मेहनत करनी होती थी, परंतु मिक्सी में वह सब मेहनत खत्म हो गई, आँखों में जो मिर्च की चरपराहट होती होगी उसका अहसास ही आँखों में पानी ला देता है। अब तो चटनी बनाते समय आँखों में चरपराहट का पता नहीं चलता है। मिक्सी में तो चटनी बनाते समय बीच में  दो बार चम्मच घुमाई और चटनी २-३ मिनिट में बन जाती है, हो सकता है कि चटनी उतनी ही बारीक पिसती हो जितनी कि सिलबट्टे पर, अब याद नहीं, और अब सिलबट्टा है नहीं कि पीसकर देख लें। पर हाँ गजब की तरक्की की है, पहले सिलबट्टे पर पीसने में चटनी का बनने वाला समय कम से कम ३० मिनिट का होता था और अब ज्यादा से ज्यादा ५ मिनिट का होता है।

    पर यह तो है कि सिलबट्टे की चटनी का स्वाद अब मिक्सी वाली चटनी में नहीं आता ।