Tag Archives: सत्य वचन
सच्चाई छिपाना क्यों ? हम नहीं तो कोई और बता देगा !!
जीवन के तीन सच
क्राउड मैनेजमेंट
बेटेलाल के मनोरंजन के लिये पास ही गये थे, तो पता चला कि उस जगह वहीं पास के आई.टी. पार्क का सन्डे फ़ेस्ट चल रहा है और प्रवेश भी केवल उन्हीं आई.टी.पार्क वालों के लिये था, पार्किंग फ़ुल होने के कारण, पार्किंग आई.टी.पार्क में करवाई गई, वहाँ पर भी अव्यवस्था का बोलबाला था, साधारणतया: आई.टी. पार्क में क्राऊड मैनेजमेंट अच्छा होना चाहिये, परंतु मैंने आज तक किसी भी आई.टी. पार्क में क्राऊड मैनेजमेंट ठीक नहीं देखा, सब पढ़े लिखे तीसमारखाँ होते हैं, जो अपने से ऊपर किसी को समझते ही नहीं और अपने से ज्यादा हाइजीनिक भी, भले ही घर में कैसे भी रहते हों, परंतु बाहर तो हमेशा दिखावा जरूरी होता है। भले ही समझदारी कम हो, परंतु आई.टी. पार्क के गेट में प्रवेश करते ही समझदारी कुछ ज्यादा ही विकसित हो जाती है। हमसे हमारा वाहन जबरन आई.टी.पार्क में खड़ा करवाया गया और चार गुना शुल्क वसूला गया। खैर हम तो जल्दी ही वहाँ से निकल लिये, बहुत दिनों बाद कार्पोरेट्स इमारतों के बीच में खुद को असहज महसूस कर रहा था ।
इतने सबके बाद सोच रहा था कि उज्जैन में सिंहस्थ के दौरान प्रशासन का क्राउड मैनेजमेंट बहुत अच्छा रहता है, वाकई तारीफ़ के काबिल।
गर्लफ़्रेंड
सुबह कुछ समान लेकर आ रहा था कि बीच में एक जगह रुकना पड़ा, कार खड़ी थी और एक बाईक कुछ ऐसे आकर रुकी कि हमें भी मजबूरन रुकना पड़ा, बंदा जो बाईक चला रहा था, उसने हेलमेट नहीं पहनी थी, और जबरदस्त ब्रेक लगाकर रुकी थी, पीछे सीट पर कन्या थी, कन्या बोली – “क्या हुआ ?” बंदा बोला “हेलमेट के लिये !!” और भी कुछ बोला था जो सुनाई नहीं दिया, शायद “आपसे सुबह के प्रवचन सुनने के बाद सोचा कि अभी मेनरोड आने से पहले ही हेलमेट लगा ली जाये”, कन्या बोली “ओह्ह!! मॉय गॉड, तो आप पर मेरे कटु वचन कब से असर करने लगे”, तो इतना समझ में आया कि बंदा कभी बीबी की बात तो मानता नहीं है, इसलिये वह जरूर उसकी गर्लफ़्रेंड होगी ।
पहचान
एक नौजवान जोड़ा हमारे फ़्लेट के सामने वाले फ़्लेट में रहता था, उनकी छत खुली हुई थी, जिस पर अधिकतर उनकी शाम बीतती थी, बस उनके साथ समस्या यही थी कि वह केवल एक कमरा था, खैर नये शादीशुदा थे तो शादी के बाद भी बैचलरों जैसा मजा लूट रहे थे, पर जैसे ही नई जिम्मेदारी उनके सर पर आई, उन्हें एकदम से मकान बदलना पड़ा।
कोई बातचीत हम लोगों के बीच नहीं थी, केवल एक खामोश पहचान थी, चेहरों की पहचान, यहाँ तक कि मुस्कान भी नहीं अगर कभी हम मुस्करा भी दिये तो वे सपाट चेहरे के रहते थे, तो हमें लगा कि उन्हें पहचान बढ़ाना ठीक नहीं लगता, हमने भी अपनी तरफ़ से पहचान बढ़ाने का उपक्रम बंद कर दिया, इसी बीच उन्होंने कार ली, बिल्कुल नई कार, जिसे रखने के लिये मकान मालिक के घर में जगह ऐसी थी कि अगर मकान मालिक की कार निकालनी हो तो उन्हें अपनी कार निकालनी पड़ेगी याने की रेल के डब्बे की स्टाईल में, तो रोज सुबह ६ बजे उनके रिवर्स मारने की संगीत की आवाज सुनाई देने लगती थी, खुद से ही दोनों पति पत्नि ने कार सीखी और फ़िर रात को उनकी पत्नी थोड़ा बायें थोड़ा दाहिने कहकर कार को मकान में पार्क करवाती थीं। हमें लगा कि उन्होंने कार केवल अंदर और बाहर करने के लिये ही ली है क्योंकि वे लोग कार से कहीं और जाते ही नहीं थे।
खैर उन्होंने मकान बदल लिया, फ़िर काफ़ी दिनों तक दिखे नहीं, हम भी बैंगलोर से बाहर थे अब काफ़ी दिनों बाद बैंगलोर में आना हुआ तो आमना सामना हो गया, वे अपनी जिम्मेदारी को गोद में लेकर आ रहे थे, तो देखकर हम थोड़ी देर तो असमंजस में थे कि ये वही बंदा है पर तुरंत ही उसकी और से एक मुस्कान आई तो हमने भी एक मुस्कान पलट कर फ़ेंक दी और इस तरह से मुस्कान की पहचान तो हो ही गई।
सकारात्मक और नकारात्मक खबरें समाचार चैनलों पर..
थोड़ा समय मिला तो समाचार देखे,
एक पट्टी घूम रही थी.. (निजी समाचार चैनल पर)
————————————————————
मदद करने वाली पंचायतों का उत्तराखंड सरकार सम्मान करेगी ।
अभी तक तबाही से उबरे भी नहीं हैं, बचाव कार्य पूरे भी नहीं हुए हैं और इनके राजनीति चालू हो गई है।
जनता बचाव कार्य से खुश नहीं . (निजी समाचार चैनल पर)
————————————————————–
यहाँ पर दो तीन परिवार को समाचार चैनल लेकर बैठा हुआ था, जिनके खुद के परिजन इस आपदा का शिकार हुए, वे सरकार को बद इंतजामी के लिये कोस रहे थे.. जैसे टीवी चैनल कोपभवन ही बन गया हो। ( यहाँ कोसने की जगह क्या ये लोग वहाँ आपदा प्रबंधन में अपने स्तर पर मदद नहीं कर सकते थे, और किसी और के अपने को बचा नहीं सकते थे).. टीवी एंकर तो अपने चेहरे पर इतना अवसाद लिये बैठा था, जैसे उसे वाकई बहुत दुख हुआ हो ।
बचाव कार्य बहुत अच्छा है (सरकारी दूरदर्शन चैनल पर)
——————————————————————
सरकारी चैनल राज्यसभा और डीडी न्यूज पर दिखाया जा रहा था, किस तरह लोगों को बचाया जा रहा है, और एक ग्रामीण बचाव कार्य से खुश था उसका अनुभव टीवी पर दिखाया गया, जिससे लगा कि शायद निजी चैनल वालों का सरकार से बैर है।
सरकारी चैनल पर बचाव के बारे में सकारात्मक बातें दिखायीं जा रही हैं, जिनसे हर्ष होता है, परंतु वहीं निजी सरकारी चैनल नकारात्मक बातें दिखायीं जा रही हैं, जिनसे मन अवसादित होता है, निजी चैनल तो वही दिखाते हैं जो जनता देखना चाहती है और सरकारी चैनल वह दिखाते हैं जो सरकार जनता को दिखाना चाहती है, या एक पहलू यह भी हो सकता है कि तथ्यों का असली चेहरा शायद सरकारी लोग दिखा पाते हों, क्योंकि नकारात्मक बातें कहने वाले बहुत मिल जायेंगे परंतु सकारात्मक बातें कहने वाले बहुत कम, मतलब कि सरकारी समाचार चैनल वालों को सकारात्मक खबरें बनाने का दबाब तो रहता ही है, और उसके लिये ऐसे लोगों को ढूँढ़ना और भी दुष्कर कार्य होता होगा, यह तो एंकरों का क्षैत्र है इसके बारे में वही लोग अच्छे से बता सकते हैं, अपना डोमैन तो है नहीं, कि अपन अपने अनुभव पर विश्लेषण ठेल दें।
डीडी वन पर जो ऐंकर थे उन्हें पहले कहीं किसी निजी न्यूज चैनल पर समाचार पढ़ते हुए और इस तरह की समीक्षाओं/वार्ताओं में जोर जोर से चिल्लाते हुए देखा है, उनके हाथ चलाने के ढंग से ही समझ में आ रहा था कि वे अपने शो का नियंत्रण किसी ओर को देना ही नहीं चाहते हैं, और ना ही किसी की सुनना चाहते हैं, बस सब वही बोलें जो वे सुनना चाहते हैं या यूँ कहें कि अपने शब्द दूसरे के मुँह में डालने की कोशिश कर रहे हों।
मन ही मन सोचा कि इनको क्या ये भी अपने कैरियर के लिये इधर से उधर स्विच मारते होंगे, जहाँ अच्छा पैसा और पद मिला अच्छा काम मिला उधर ही निकल लिये, फ़िर थोड़े दिनों बाद कहीं और किसी निजी समाचार चैनल पर नजर आ जायेंगे।
पर यह तो समझ में आया सकारात्मक और नकारात्मक खबरों का असर बहुत होता है, तो इस मामले में हमें सरकारी समाचार चैनल बहुत पसंद आया, श्रेय इसलिये देना होगा कि उनको ग्राऊँड लेवल पर जाकर बहुत काम करना पड़ता है और निजी चैनल वालों के लिये यह बहुत आसान है क्योंकि नकारात्मक कहने के लिये एक ढूँढों हजार मिलते हैं।
तश्तरी में खाना ना छोड़ क्या पेट पर अत्याचार कर लें ?
आज सुबह नाश्ता करने गये थे तो ऐसे ही बात चल रही थी, एक मित्र ने कहा कि फ़लाना व्यक्ति नाश्ते में या खाने की तश्तरी में कुछ भी छोड़ना पसंद नहीं करते और यहाँ तक कि अपने टिफ़िन में भी कुछ छोड़ते नहीं हैं। वैसे हमने इस प्रकार के कई लोग देखे हैं जो इन साहब की तरह ही होते हैं जो कि अपने तश्तरी में कुछ छोड़ना पसंद नहीं करते। शायद कुछ लोग अपनी लुगाई के डर से नहीं छोड़ते, नहीं तो घर में महासंग्राम हो जायेगा, “अच्छा तो अब हमारे हाथ का खाना भी ठीक नहीं लगता जो तश्तरी में खाना छोड़ा जा रहा है।”
हमारा मत थोड़ा अलग है, हम सोचते हैं कि तश्तरी में खाना छोड़ना, न छोड़ना अपने अपने व्यक्तिगत विचार हैं, जिस पर किसी और व्यक्ति का अपने विचार थोपना ठीक नहीं है। अब अगर कोई किसी होटल में खा रहा है और खाने का समान ज्यादा है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि खाते नहीं बने फ़िर भी बस भकोस लिया जाये । छोड़ने से होटल वाला किसी गरीब को भी नहीं देने वाला है, क्योंकि वह तो फ़ेंकेगा ही।
जो लोग ऐसे उपदेश देते हैं, वे कहते हैं कि हम अन्न की कीमत जानते हैं, भई अन्न की कीमत तो हम भी जानते हैं, परंतु वे खुद ही सोचें क्या व्यवहारिकता में यह संभव है। हम तो सोचते हैं कि रोजमर्रा के व्यवहार में यह संभव नहीं है। आदमी कितना ही गरीब हो वह इज्जत की रोटी खाना चाहता है, जो आदमी ये खाना खाता भी होगा, क्या कभी उसके मन को पढ़ने की कोशिश की है, कि वो किस दर्द से गुजर रहा होगा। अगर पढ़ने की कोशिश की होती और आपका मन उसकी मदद करने को होगा तो आप कम से कम उसे खाना नहीं देंगे उसे किसी और तरह से मदद कर देंगे, जैसे कि कोई छोटा काम दे दें, मेहनत के पैसे कमाने से उसे भी खुशी होगी।
हाँ कुछ ढीट होते हैं जो कि काम करना ही नहीं चाहते और मुफ़्त में ही माल खाना चाहते हैं, तो मैं कहता हूँ कि अगर हम ऐसे ही उन लोगों के लिये सोचते रहेंगे तो वो लोग भी कभी सुधरने वाले नहीं हैं। बल्कि हम उन लोगों को बढ़ावा ही दे रहे हैं।
हाँ आप अगर बफ़ेट में खा रहे हैं तो आप खाना उतना ले सकते हैं जितना आप खा सकते हैं, परंतु अगर कहीं पूरी प्लेट ही आपको ऑर्डर करनी है तो यह संभव नहीं है कि आप पूरा खा लें और अपने पेट पर अत्याचार करें। मैं तो खाने की तश्तरी में छोड़ना या ना छोड़ने के बारे में ज्यादा सोचता नहीं, क्योंकि यह निजता है और हम अपनी निजता का उल्लंघन नहीं होने देना चाहते, सबके अपने व्यक्तिगत विचार होते हैं, उनका सम्मान करना चाहिये।
पेट पर अत्याचार (हमारे मित्र विनित जी द्वारा बहुतायत में उपयोग किया जाने वाला वाक्य है ।)
बीबी को नई चप्पल
श्रीमतीजी याने की बीबी को नई चप्पल लेनी थी सो बाटा की बड़ी दुकान घर के पास है वहीं जाना हुआ, अब एक बार बड़ी दुकान में घुस जायें तो सारी चीजें न देखें मजा नहीं आता, और खासकर इससे थोड़ी सामान्य ज्ञान में वृद्धि होती है, खरीदें या ना खरीदें वो एक अलग बात है।
चप्पल तो ले ली और हम भी अपने लिये देखने लग गये, वैसे हमेशा यही ऐतराज होता है आते हमारे लिये हैं और खरीददारी खुद के लिये होती है, खैर शिकायतें तो कोई न कोई रहती ही हैं।
जब हम अपने लिये एक सैंडल देख रहे थे तभी एक और व्यक्ति पास में से अपनी पत्नीजी को अंग्रेजी में बोलता हुआ गुजरा “तुम हमेशा मुझे वही चीज खरीदने पर मजबूर करती हो, जो मुझे नहीं खरीदनी है।”, हमारी जबान भी फ़िसल गई “अबे ढ़क्कन खरीदता क्यों है”, अब वो हमारे पीछे ही खड़ा था, और उसे हिन्दी भी समझ आती थी, उसके बाद वो हमें घूरने लगा। अनायास ही अपने एक बुजुर्ग मित्र बात समझ में आने लगी “जो व्यक्ति बीबी से डरता है, वही बाहर शेर बनकर दहाड़ता है, भले ही उसकी दहाड़ में दम हो या ना हो”।
और उधर ही एक विज्ञापन भी याद आ गया पुराना है मगर सबकी जबां पर था – “जो बीबी से करे प्यार वो प्रेस्टीज से कैसे करे इंकार”।
खैर फ़िर हमने उस दुकान में चमड़े के बैग देखे, पॉलिश और बेल्ट देखी, मगर एक निगाह अपने ऊपर घूमती हुई महसूस हुई, जो कुछ बोल नहीं पा रही थी। लगता है कि अपनी टिप्पणी केवल ब्लॉग के लिये है, जीवंत टिप्पणी किसी को अच्छी नहीं लगती है।
आज वैलंटाईन डे है, सबको प्यार भरी शुभकामनाएँ, यह वर्ष प्यार भरा रहे।
गूगल का वैलंटाईन डे पर डूडल देखिये –
न्यू ईयर का हंगामा और फ़लाना ढ़िमकाना ब्रांड व्हिस्की
कितनी अच्छी ठंड होती थी पहले…
पता नहीं दिल कब मानेगा कि हाँ अब शरीर को ठंड लगती है, देखने से पता चलता है हाथ और पैर के बाल ठंड के मारे एक दम सीधे खड़े हैं जैसे किसी जंगल में किसी ने कोई तरकीब से बाँस के पेड़ उगा दिये हों। पहले जब ठंड पड़ती थी तो ऊन की वो ५-६ किलो की रजाई में घुसने का मजा ही कुछ और था परंतु याद आया वो तो बचपन था, जैसे जैसे किशोर हुए वो गोदड़ी गायब हुई और राजस्थानी रजाई आ गई, जब पहली बार राजस्थानी रजाई देखी थी तो ऐसा लगा था कि ये मारवाड़ी मजाक कर रहा है भला कभी इतनी पतली रजाई में ठंड भागती है क्या ? फ़िर भी हम ४ रजाई ले आये सबके लिये एक एक….
राजस्थानी रजाई का ही कसूर है उसने हमें सिखाया कि ठंड खत्म हो रही है, नहीं तो इसके पहले तो कंबल भी ओढ़ लेते थे और उसके रोएँ की चुभन इतनी अच्छी लगती थी क्योंकि अगर वह हटा देते तो ठंड लगती, चुपचाप कभी ट्रेन में कभी रेल्वे स्टेशन पर तो कभी बस स्टैंड में वह कंबल ओढ़े हाथ में चाय की कुल्हड़ से चाय पीते हुए और हाथ जो कंबल के बाहर होते थे वो हिमालय की हवाओं से ठंडे होते थे, उन हाथों को गर्म करने के लिये कभी अलाव के ऊपर रखते तो कभी कंबल के अंदर करके रगड़ से ठंडा करने की कोशिश करते । फ़िर हाथों के लिये कार्तिक मेले से दस्ताने लिये थे, परंतु वे रेग्जीन के दस्ताने हाथ और ठंडे करते थे तो माँ ने ऊन का दस्ताना बुन दिया था, जिसे कभी उतारने की इच्छा ही नहीं होती थी।
किशोरावस्था से जवानी तक आते आते स्वेटर और पुलोवरों का फ़ैशन खत्म हो चला था, अब जर्किनों का फ़ैशन था, स्वेटर में तो छन छान कर ठंडी हवा भी लगती थी परंतु जर्किन में बाहरी ठंडी हवा का कोई नामो निशां नहीं था। कभी भेड़ की फ़र वाली जर्किन कभी दोहरी तरफ़ वाली जर्किन, एक जर्किन खरीदो और दो जर्किनों के मजे लो। कभी पापा की जर्किन पहन लो कभी भाई की, कितनी अच्छी ठंड होती थी पहले पूरे परिवार को एक साथ अपना सामना करना सिखाती थी, और सबका साईज एक हो जाता था। माँ ने इतने सारे हॉफ़ स्वेटर बनाये थे खासकर कुछ स्वेटर तो मेरे मनपसंदीदा थे जिनपर की गई डिजाईन तो माँ ने अपने आप की थी परंतु वे डिजाईन मन को ऐसे भाये कि उन्हें कभी जुदा नहीं कर पाया।
आज न वो स्वेटर पास हैं, न ही वो जर्किन, जर्किन तो हैं परंतु अकेले पहनना पड़ती है, न पापा हैं यहाँ ना भाई है यहाँ कि मेरी जर्किन में गर्मी बड़ जाये और न वो माँ का बुना हुआ हॉफ़ स्वेटर मेरे पास है, परंतु हाँ उन सबकी गर्मी मेरे पास है, तभी तो मैं आज भी कहता हूँ और नहीं मानता हूँ कि मुझे ठंड लग रही है…..
नये प्रकार के वायरस से सावधान (Alert from new type of Virus)
हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है… एक मेमशाब है साथ में शाब भी है..
एक गँवार आदमी को एक देश का सूचना तकनीकी मंत्री बना दिया गया, जिसे संगणक और अंतर्जाल का मतलब ही पता नहीं था। उस गाँव के संविधान में लिखा था कि सभी को अपनी बातें कहने की पूर्ण स्वतंत्रता है, परंतु उस जैसे और भी गँवार जो कि पेड़ के नीचे लगने वाली पंचायत में बैठते थे। उस पंचायत का मुखिया बनाया गया एक ईमानदार और पढ़े लिखे आदमी को, परंतु पंचायत पर राज उनके पीछे बैठी एक भैनजी और उनके बबुआ चलाते थे।
एक बार एक आदमी विदेश से आया और साथ में अखबार लाया और उसमें उसने पंचायत के सामने वह अखबार रखा कि देखो कि फ़ैबुक और विटेर पर लोग क्या क्या अलाय बलाय लिखते हैं और फ़ोटो अपने तरीके से बनाकर छापते हैं। पहले तो जब पंचायत और लोगों को जब वह अखबार दिखाया गया तो सभी लोग अपनी हँसी मुँह दबाकर छिपाते रहे, परंतु तभी उस पंचायत के सूचना तकनीकी मंत्री जो कि उस गाँव के टेलीफ़ोन के खंबे भी ढंग से गिन नहीं पाते थे, कहने लगे अरे ये तो हम भी अपने ही गाँव में कहीं देखे थे, उस दिन बड़ा अच्छा लग रहा था, उस दिन हम केवल फ़ोटू देखे थे कि मुखिया राजदूत चला रहे हैं और भैन जी उनके पीछे बैठकर फ़टफ़टिया के मजे ले रही हैं, उस दिन हमें लगा था कि वाह मुखिया ने भैनजी के संग क्या फ़ोटू हिंचवाया है।
आज पता चला कि ये तो जनता ने खुदही बनाकर डाल दिया है, असल में तो हमारे मुखिया और भैन जी बहुत ही सीधे हैं, मुखिया ने तो कभी फ़टफ़टिया चलाई ही नहीं है और भैन जी भी कभी फ़टफ़टिया पर बैठी नहीं हैं। खैर मंत्री जी ने तुरत आदेश दिया कि सारे टेलीफ़ोन के खंबे तुड़वा दिये जायें जिससे ना ये इंटर-नेट आयेगा और ना ही लोग ऐसी खुराफ़ात कर पायेंगे। अब बताओ मंत्री जी को कि लोग मोबाईल पर भी नेट का उपयोग करते हैं, बेचारे कुत्तों का एक मात्र सहारा खंबा भी छीन लिया।
अब बाकी तो आप समझदार हैं ही… अब ज्यादा बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है।
विटर से कुछ विटर विटर –
जैसे वाहनों का चालान बनाया जाता है वैसे ही ब्लॉगों, फ़ेसबुक मैसेज और ट्विट्स का चालान बनाया जायेगा
I have never commented on them 🙂 hamane to kaha Mummy ji, Yuvraj aur mannu 😉
प्राण साहब का मशहूर गाना फ़िल्म कसौटी से –