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ब्लॉगिंग (Blogging) के 10 वर्ष पूर्ण.. बहुत सी बातें और बहुत सी यादें

    आज से ठीक पाँच वर्ष पूर्व हमने अपने पाँच वर्ष पूर्ण होने पर यह पोस्ट लिखी थी और अब हमें ब्लागिंग (Blogging) में दस वर्ष पूरे हो गये हैं, आज यह  1100 वीं पोस्ट है और हमारे लिये यह जादुई आँकड़ा है, और उससे कहीं ज्यादा प्रतिक्रियाएँ मिली हैं। ब्लॉगिंग जब शुरू की थी तब हिन्दी कंप्यूटर पर लिखना इतना मुश्किल नहीं था पर हाँ सीमित साधनों के चलते वेबसाईट पर लिखना बहुत ही कठिन था । पर आज ये देखकर खुशी होती है कि हिन्दी में लिखने के लिये बहुत सारे साधन उपलब्ध हैं यहाँ तक कि अब तो मोबाईल पर हिन्दी को बोलकर भी टाइप किया जा सकता है, तो जिसको टाइप करना न भी आता हो वह भी अब ब्लॉगिंग कर सकता है।
    समय की कमी बहुत ही तेजी से होती जा रही है, पहले हम कंप्यूटर पर इंटरनेट बंद रखते थे कि ब्लॉग लिखना है नहीं तो अपना दिमाग किसी और तरफ चला जायेगा, पर अब मोबाईल ने तो जीवन का अधिकतम समय ले लिया है, हम अपना अधिकतम समय मोबाईल को देते हैं और कई कार्यों को करने से छोड़ देते हैं, ब्लॉगिंग के लिये लेखन के लिये समर्पित होना पड़ता है और अपने तात्कालिक प्रतिक्रिया वाली मनोदशा से बाहर आना पड़ता है।
कुछ अनुभव जो हमने 2 वर्ष पहले ब्लॉगिंग के लिये लिखे थे, हालांकि ये भी अधूरे ही रहे –

ब्लॉगिंग (Blogging) की शुरूआत के अनुभव (भाग १)

ब्लॉगिंग (Blogging) की शुरूआत के अनुभव (भाग २)

ब्लॉगिंग की शुरूआत के अनुभव (भाग ३)

कुछ और पोस्टें मैंने ब्लॉगिंग पर लिखी हैं तो वे ब्लॉगर या ब्लॉग लेबल पर क्लिक करके पढ़ी जा सकती हैं।
हिन्दी ब्लॉगिंग के क्षैत्र में एक से एक धुरंधर ब्लॉगर थे पर मैंने देखा है कि अधिकतर पुराने ब्लॉगर अपने ब्लॉग से थोड़ी दूरी बना चुके हैं या फिर फेसबुक पर अपने तात्कालिक विचारों को रखकर ही इति कर लेते हैं, जैसे कि पहले ब्लॉग में चिंतन मनन करके लिखा जाता था, कुछ या बहुत कुछ तात्कालिक लेखन भी होता था, आजकल बहुत ही कम दिखता है, ब्लॉग पढ़ने वाले पहले केवल ब्लॉगर थे, और सोचते थे कि बहुत सारे पाठक गूगल या किसी और सर्च इंजिन से हमारे ब्लॉग पर कभी न कभी तो आयेंगे । अब ब्लॉग लिखो तो ब्लॉगरों के पास पढ़ने का समय नहीं है या उनकी रूचि खत्म हो चुकी है या फिर ब्लॉग पर टिप्पणी करना उनको ठीक नहीं लगता है, जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ है और हम प्रगति करते जा रहे हैं वैसे ही यहाँ की भी हालत हो गई होगी, हम यही सोचते हैं।
    हिन्दी ब्लॉगिंग ने दम तो नहीं तोड़ा है, हिन्दी ब्लॉग अच्छी खासी मात्रा में अब उपलब्ध हैं। एक और बात है कि हमारे हिन्दी ब्लॉगिंग में ब्लॉगर ऐसी कोई तकनीक का उपयोग नहीं करते हैं जिससे सर्च इंजिन को ढ़ूँढ़ने में आसानी हो, और ब्लॉग पढ़ने वाले पाठकों की आवृत्ति बढ़े। कुछ ही गिने चुने ब्लॉगर नई तकनीकों का उपयोग कर पा रहे हैं, या तो समय की उपलब्धता न होने के कारण या फिर कम तकनीकी ज्ञान । बहुत सारे ब्लॉगर किसी एस.ई.ओ. टूल का उपयोग नहीं करते हैं, शौक शौक में अपनी वेबसाईट तो हमने भी खरीद ली पर अभी तक अपने इस ब्लॉग को नहीं ले जा पाये हैं, कई बार कोशिश करी, कभी किसी तकनीकी उलझन में उलझ गये या फिर कभी हमारे ब्रॉडबैंड ने धोखा दे दिया। कई नये और पुराने ब्लॉगर अपनी अपनी वेबसाईट पर चले जरूर गये हैं पर बहुत ही कम ब्लॉगरों ने अपनी होस्टिंग अच्छे से की हुई है, जिससे उनका लिखा हुआ सर्च इंजिन में अवतरित हो। अधिकतर ने केवल अपने ब्लॉग रिडाइरेक्ट किये हुए हैं, जिससे केवल उनका पता बदला है पर अंदर से घर वही पुराना है।
हिन्दी में ब्लॉगिंग के बहुत सारे सितारे हैं और कई सितारों से या तो मैं मिल चुका हूँ या फिर फोन पर तो बात हो ही चुकी है। हिन्दी ब्लॉगिंग के कारण संसार के कई लोगों से इस आभासी और अप्रत्यक्ष दुनिया के माध्यम से मिल चुका हूँ, और हिन्दी माध्यम होने के कारण बहुत से ब्लॉगरों से आत्मीय संबंध भी स्थापित हुए और अभी तक हैं। अपने फेसबुक पर या गूगलप्लस पर अधिकतर मित्र ब्लॉगिंग क्षैत्र से ही हैं और शायद वे ही लिखी गई अधिकतर पोस्टों को लाईक करने वाले या फिर टीप देने वाले होते हैं।
    जब मैंने ब्लॉगिंग शुरू की थी तब मैं उज्जैन में था, फिर दिल्ली, मुँबई, बैंगलोर, चैन्नई, हैदराबाद और अब गुड़गाँव में हैं, मैंने इस दौरान लगभग सभी जगह ब्लॉगरों से मुलाकात भी की, कुछ ब्लॉगर बहुत ही मिलनसार होते हैं और कुछ नहीं मिलना चाहते हैं, यह व्यक्तिगत मामला है। खैर मैंने तो बहुत से ब्लॉगरों को अपने विचारों के साथ ही खड़ा पाया और जो नहीं भी थे उनसे भी प्यार और सम्मान पाया। पता नहीं इतना प्यार और सम्मान के लिये मैं कैसे आभार प्रकट करूँ।
    मैंने इस दौरान कई तरह के विषयों पर लेखन किया पर कभी अपने ब्लॉग को एक ही विषय का नहीं बना पाया, बस एक ही बात उल्लेखनीय है कि किसी भी विषय पर लिखा हिन्दी भाषा में लिखा। यह पोस्ट लिखते हुए भी बहुत सारे खलल हैं पर लिखना ही है तो भी जीवन के अशांतिपूर्ण वातावरण से थोड़ा सा समय शांतिपूर्वक ब्लॉग पोस्ट लिखने के लिये निकाल ही लिया। मैं जानता हूँ कि बहुत सी बातें यहाँ मैं करने से चूक रहा हूँ पर मैं वे सब बातें भी लिखना चाहता हूँ, अगर अगले कुछ दिनों में समय मिला तो जरूर इस पर बहुत कुछ लिखने की इच्छा रखता हूँ।

सच्चाई छिपाना क्यों ? हम नहीं तो कोई और बता देगा !!

    जवानी अल्हड़ होती है, अल्हदा होती है, सुना तो बहुत था पर जिया अपने ही में । जवानी में वो हर काम करने की इच्छा होती है जो सामाजिक रूप से बुरे माने जाते हैं, और उस समय वाकई वे सब काम कर भी लिये जाते हैं, अपने किये पर छोभ, पछतावा कुछ नहीं होता है, बस अपनी मनमर्जी का किये जाओ । कोई टोके तो बहुत ही बुरा लगता है, जल्दी ही बुरा मान जाते हैं, काम सारे गलत करेंगे पर रोकना टोकना किसी का मंजूर नहीं है, जैसे अपनी ही सरकार हो और खुद ही उस सरकार के पैरोकार हैं।
  
    पिता जी का ट्रांसफर अभी नये शहर में हुआ ही था और हमने उस नये शहर में अपना पहला कदम कॉलेज की और बढ़ाया। अब नया शहर था तो न कोई दोस्त था और न ही कोई हमदम, तो कॉलोनी में ही कुछ आस पड़ोस के लड़कों  से दोस्ती हो गई, पिताजी को ऑफिस में उनके सहकर्मियों ने चेताया भी कि आपका लड़का गलत लड़कों के साथ रहता है, और यह खबर हमारे पास भी आ गई थी, हमारे ही मन मस्तिष्क के द्वारा, हमें उनके साथ रहते ही समझ आ गया था कि ये जो हरकतें करते हैं, वह सब हम नहीं कर पायेंगे और हमारा रास्ता जुदा होगा। पर गर्मियों की छुट्टियों में तो हमें कोई नया दोस्त नहीं मिलता, पर हमने उनके साथ रहना कम कर दिया।
    कॉलेज शुरू हो चुका था, जवानी का खून उबाल मार रहा था, नये दोस्त मिले। सबके अपने अपने शौक होते हैं, वैसे ही साधारणतया कॉलेज में दोस्ती होती है, ऐसे ही हमारी भी कई दोस्तियाँ शौक के मुताबिक हो गईं, और कुछ मनचले दोस्त भी थे जो हर समय केवल हँसाते और गुदगुदाते थे। अब तक हम कॉलेज में अच्छे खासे रम चुके थे, हमने कॉलोनी के दोस्तों के साथ लगभग अपना नाता तोड़ ही लिया था, क्योंकि हमें अब अपने कॉलेज के दोस्त मिल गये थे। पर यह उन कॉलोनी के दोस्तों को रास नहीं आया।
 
    एक दिन हर शाम के समय सूरज जैसे रोज ढलता है, वैसे ही ढलने की कगार पर था, लालिमा चारों और फैली हुई थी, कॉलोनी के दोस्त लोग बाहर सड़क पर क्रिकेट खेल रहे थे, पर उनके मनोमस्तिष्क में क्या चल रहा है, हम उससे अनजान थे, हमें हमारी साईकिल के हैंडल पर हाथ रखकर रोक लिया गया, और किसी भी बात को लेकर झगड़ा करना था, सो बात करना शुरू कर झगड़ा शुरू कर दिया गया, बात अब हाथापाई तक आ चुकी थी, जितने पड़े उससे ज्यादा हमने भी दिये, बस अंतर यह था कि उनके लिये जबाबी हमला अप्रत्याशित था, क्योंकि कोई भी उनके खिलाफ कभी भी कुछ बोला नहीं था, और विरोध नहीं किया था। हम अकेले थे और वे पूरी क्रिकेट टीम थी, देखा कि अब अकेले ऐसे लड़ना मुश्किल होगा, तो सामने के घर में पेलवान के घर में दो हाकियाँ टंगी रहती थीं, दौड़कर उन्हें उतारा और उससे अकेले ही पूरी क्रिकेट टीम से भिड़ लिये, पर थोड़ी ही देर में कॉलोनी में आग की भाँति खबर फैल गई और लोग इकट्ठे होने लगे तो पूरी क्रिकेट टीम मौके से भाग ली।
    अब घर तो जाना ही था, शाम की सच्चाई हम नहीं बताते तो कोई और जाकर हमारे घर पर बताता तो और बात बिगड़ जाती, घर में इस झगड़े को लेकर पता नहीं क्या रूख अपनाया जाता। सो हमने सोचा कि बेहतर है कि सच्चाई घर पर बता दी जाये और हमने घर पर जाकर सच्चाई अपने पापा मम्मी को बता दी, मन से बहुत बड़ा बोझ उतर चुका था, क्योंकि सारी दुनिया भले गलत समझे पर अगर पालक हमारी भावनाओं को समझ जायें तो हमें दुनिया में और कुछ नहीं चाहिये। केवल इसके लिये ही किनले का यह विज्ञापन अच्छा लगता है, जहाँ पिता अपनी बेटी की गलती को माफ कर, उसे खुश कर देता है और बेटी को धर्मसंकट से निकाल लेता है और पिता के आँख के आँसू सारी कहानी बयां कर ही रहे हैं।

जीवन के तीन सच

क्राउड मैनेजमेंट

    बेटेलाल के मनोरंजन के लिये पास ही गये थे, तो पता चला कि उस जगह वहीं पास के आई.टी. पार्क का सन्डे फ़ेस्ट चल रहा है और प्रवेश भी केवल उन्हीं आई.टी.पार्क वालों के लिये था, पार्किंग फ़ुल होने के कारण, पार्किंग आई.टी.पार्क में करवाई गई, वहाँ पर भी अव्यवस्था का बोलबाला था, साधारणतया: आई.टी. पार्क में क्राऊड मैनेजमेंट अच्छा होना चाहिये, परंतु मैंने आज तक किसी भी आई.टी. पार्क में क्राऊड मैनेजमेंट ठीक नहीं देखा, सब पढ़े लिखे तीसमारखाँ होते हैं, जो अपने से ऊपर किसी को समझते ही नहीं और अपने से ज्यादा हाइजीनिक भी, भले ही घर में कैसे भी रहते हों, परंतु बाहर तो हमेशा दिखावा जरूरी होता है। भले ही समझदारी कम हो, परंतु आई.टी. पार्क के गेट में प्रवेश करते ही समझदारी कुछ ज्यादा ही विकसित हो जाती है। हमसे हमारा वाहन जबरन आई.टी.पार्क में खड़ा करवाया गया और चार गुना शुल्क वसूला गया। खैर हम तो जल्दी ही वहाँ से निकल लिये, बहुत दिनों बाद कार्पोरेट्स इमारतों के बीच में खुद को असहज महसूस कर रहा था ।

    इतने सबके बाद सोच रहा था कि उज्जैन में सिंहस्थ के दौरान प्रशासन का क्राउड मैनेजमेंट बहुत अच्छा रहता है, वाकई तारीफ़ के काबिल।

गर्लफ़्रेंड

    सुबह कुछ समान लेकर आ रहा था कि बीच में एक जगह रुकना पड़ा, कार खड़ी थी और एक बाईक कुछ ऐसे आकर रुकी कि हमें भी मजबूरन रुकना पड़ा, बंदा जो बाईक चला रहा था, उसने हेलमेट नहीं पहनी थी, और जबरदस्त ब्रेक लगाकर रुकी थी, पीछे सीट पर कन्या थी, कन्या बोली – “क्या हुआ ?” बंदा बोला “हेलमेट के लिये !!” और भी कुछ बोला था जो सुनाई नहीं दिया, शायद “आपसे सुबह के प्रवचन सुनने के बाद सोचा कि अभी मेनरोड आने से पहले ही हेलमेट लगा ली जाये”, कन्या बोली “ओह्ह!! मॉय गॉड, तो आप पर मेरे कटु वचन कब से असर करने लगे”, तो इतना समझ में आया कि बंदा कभी बीबी की बात तो मानता नहीं है, इसलिये वह जरूर उसकी गर्लफ़्रेंड होगी ।

पहचान

    एक नौजवान जोड़ा हमारे फ़्लेट के सामने वाले फ़्लेट में रहता था, उनकी छत खुली हुई थी, जिस पर अधिकतर उनकी शाम बीतती थी, बस उनके साथ समस्या यही थी कि वह केवल एक कमरा था, खैर नये शादीशुदा थे तो शादी के बाद भी बैचलरों जैसा मजा लूट रहे थे, पर जैसे ही नई जिम्मेदारी उनके सर पर आई, उन्हें एकदम से मकान बदलना पड़ा।

    कोई  बातचीत हम लोगों के बीच नहीं थी, केवल एक खामोश पहचान थी, चेहरों की पहचान, यहाँ तक कि मुस्कान भी नहीं अगर कभी हम मुस्करा भी दिये तो वे सपाट चेहरे के रहते थे, तो हमें लगा कि उन्हें पहचान बढ़ाना ठीक नहीं लगता, हमने भी अपनी तरफ़ से पहचान बढ़ाने का उपक्रम बंद कर दिया, इसी बीच उन्होंने कार ली, बिल्कुल नई कार, जिसे रखने के लिये मकान मालिक के घर में जगह ऐसी थी कि अगर मकान मालिक की कार निकालनी हो तो उन्हें अपनी कार निकालनी पड़ेगी याने की रेल के डब्बे की स्टाईल में, तो रोज सुबह ६ बजे उनके रिवर्स मारने की संगीत की आवाज सुनाई देने लगती थी, खुद से ही दोनों पति पत्नि ने कार सीखी और फ़िर रात को उनकी पत्नी थोड़ा बायें थोड़ा दाहिने कहकर कार को मकान में पार्क करवाती थीं। हमें लगा कि उन्होंने कार केवल अंदर और बाहर करने के लिये ही ली है क्योंकि वे लोग कार से कहीं और जाते ही नहीं थे।

    खैर उन्होंने मकान बदल लिया, फ़िर काफ़ी दिनों तक दिखे नहीं, हम भी बैंगलोर से बाहर थे अब काफ़ी दिनों बाद बैंगलोर में आना हुआ तो आमना सामना हो गया, वे अपनी जिम्मेदारी को गोद में लेकर आ रहे थे, तो देखकर हम थोड़ी देर तो असमंजस में थे कि ये वही बंदा है पर तुरंत ही उसकी और से एक मुस्कान आई तो हमने भी एक मुस्कान पलट कर फ़ेंक दी और इस तरह से मुस्कान की पहचान तो हो ही गई।

सकारात्मक और नकारात्मक खबरें समाचार चैनलों पर..

थोड़ा समय मिला तो समाचार देखे,

एक पट्टी घूम रही थी.. (निजी समाचार चैनल पर)
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मदद करने वाली पंचायतों का उत्तराखंड सरकार सम्मान करेगी ।
अभी तक तबाही से उबरे भी नहीं हैं, बचाव कार्य पूरे भी नहीं हुए हैं और इनके राजनीति चालू हो गई है।

जनता बचाव कार्य से खुश नहीं . (निजी समाचार चैनल पर)
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यहाँ पर दो तीन परिवार को समाचार चैनल लेकर बैठा हुआ था, जिनके खुद के परिजन इस आपदा का शिकार हुए, वे सरकार को बद इंतजामी के लिये कोस रहे थे.. जैसे टीवी चैनल कोपभवन ही बन गया हो। ( यहाँ कोसने की जगह क्या ये लोग वहाँ आपदा प्रबंधन में अपने स्तर पर मदद नहीं कर सकते थे, और किसी और के अपने को बचा नहीं सकते थे).. टीवी एंकर तो अपने चेहरे पर इतना अवसाद लिये बैठा था, जैसे उसे वाकई बहुत दुख हुआ हो ।

बचाव कार्य बहुत अच्छा है (सरकारी दूरदर्शन चैनल पर)
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सरकारी चैनल राज्यसभा और डीडी न्यूज पर दिखाया जा रहा था, किस तरह लोगों को बचाया जा रहा है, और एक ग्रामीण बचाव कार्य से खुश था उसका अनुभव टीवी पर दिखाया गया, जिससे लगा कि शायद निजी चैनल वालों का सरकार से बैर है।

सरकारी चैनल पर बचाव के बारे में सकारात्मक बातें दिखायीं जा रही हैं, जिनसे हर्ष होता है, परंतु वहीं निजी सरकारी चैनल नकारात्मक बातें दिखायीं जा रही हैं, जिनसे मन अवसादित होता है, निजी चैनल तो वही दिखाते हैं जो जनता देखना चाहती है और सरकारी चैनल वह दिखाते हैं जो सरकार जनता को दिखाना चाहती है, या एक पहलू यह भी हो सकता है कि तथ्यों का असली चेहरा शायद सरकारी लोग दिखा पाते हों, क्योंकि नकारात्मक बातें कहने वाले बहुत मिल जायेंगे परंतु सकारात्मक बातें कहने वाले बहुत कम, मतलब कि सरकारी समाचार चैनल वालों को सकारात्मक खबरें बनाने का दबाब तो रहता ही है, और उसके लिये ऐसे लोगों को ढूँढ़ना और भी दुष्कर कार्य होता होगा, यह तो एंकरों का क्षैत्र है इसके बारे में वही लोग अच्छे से बता सकते हैं, अपना डोमैन तो है नहीं, कि अपन अपने अनुभव पर विश्लेषण ठेल दें।

डीडी वन पर जो ऐंकर थे उन्हें पहले कहीं किसी निजी न्यूज चैनल पर समाचार पढ़ते हुए और इस तरह की समीक्षाओं/वार्ताओं में जोर जोर से चिल्लाते हुए देखा है, उनके हाथ चलाने के ढंग से ही समझ में आ रहा था कि वे अपने शो का नियंत्रण किसी ओर को देना ही नहीं चाहते हैं, और ना ही किसी की सुनना चाहते हैं, बस सब वही बोलें जो वे सुनना चाहते हैं या यूँ कहें कि अपने शब्द दूसरे के मुँह में डालने की कोशिश कर रहे हों।

मन ही मन सोचा कि इनको क्या ये भी अपने कैरियर के लिये इधर से उधर स्विच मारते होंगे, जहाँ अच्छा पैसा और पद मिला अच्छा काम मिला उधर ही निकल लिये, फ़िर थोड़े दिनों बाद कहीं और किसी निजी समाचार चैनल पर नजर आ जायेंगे।

पर यह तो समझ में आया सकारात्मक और नकारात्मक खबरों का असर बहुत होता है, तो इस मामले में हमें सरकारी समाचार चैनल बहुत पसंद आया, श्रेय इसलिये देना होगा कि उनको ग्राऊँड लेवल पर जाकर बहुत काम करना पड़ता है और निजी चैनल वालों के लिये यह बहुत आसान है क्योंकि नकारात्मक कहने के लिये एक ढूँढों हजार मिलते हैं।

तश्तरी में खाना ना छोड़ क्या पेट पर अत्याचार कर लें ?

    आज सुबह नाश्ता करने गये थे तो ऐसे ही बात चल रही थी, एक मित्र ने कहा कि फ़लाना व्यक्ति नाश्ते में या खाने की तश्तरी में कुछ भी छोड़ना पसंद नहीं करते और यहाँ तक कि अपने टिफ़िन में भी कुछ छोड़ते नहीं हैं। वैसे हमने इस प्रकार के कई लोग देखे हैं जो इन साहब की तरह ही होते हैं जो कि अपने तश्तरी में कुछ छोड़ना पसंद नहीं करते। शायद कुछ लोग अपनी लुगाई के डर से नहीं छोड़ते, नहीं तो घर में महासंग्राम हो जायेगा, “अच्छा तो अब हमारे हाथ का खाना भी ठीक नहीं लगता जो तश्तरी में खाना छोड़ा जा रहा है।”

    हमारा मत थोड़ा अलग है, हम सोचते हैं कि तश्तरी में खाना छोड़ना, न छोड़ना अपने अपने व्यक्तिगत विचार हैं, जिस पर किसी और व्यक्ति का अपने विचार थोपना ठीक नहीं है। अब अगर कोई किसी होटल में खा रहा है और खाने का समान ज्यादा है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि खाते नहीं बने फ़िर भी बस भकोस लिया जाये । छोड़ने से होटल वाला किसी गरीब को भी नहीं देने वाला है, क्योंकि वह तो फ़ेंकेगा ही।

    जो लोग ऐसे उपदेश देते हैं, वे कहते हैं कि हम अन्न की कीमत जानते हैं, भई अन्न की कीमत तो हम भी जानते हैं, परंतु वे खुद ही सोचें क्या व्यवहारिकता में यह संभव है। हम तो सोचते हैं कि रोजमर्रा के व्यवहार में यह संभव नहीं है। आदमी कितना ही गरीब हो वह इज्जत की रोटी खाना चाहता है, जो आदमी ये खाना खाता भी होगा, क्या कभी उसके मन को पढ़ने की कोशिश की है, कि वो किस दर्द से गुजर रहा होगा। अगर पढ़ने की कोशिश की होती और आपका मन उसकी मदद करने को होगा तो आप कम से कम उसे खाना नहीं देंगे उसे किसी और तरह से मदद कर देंगे, जैसे कि कोई छोटा काम दे दें, मेहनत के पैसे कमाने से उसे भी खुशी होगी।

    हाँ कुछ ढीट होते हैं जो कि काम करना ही नहीं चाहते और मुफ़्त में ही माल खाना चाहते हैं, तो मैं कहता हूँ कि अगर हम ऐसे ही उन लोगों के लिये सोचते रहेंगे तो वो लोग भी कभी सुधरने वाले नहीं हैं। बल्कि हम उन लोगों को बढ़ावा ही दे रहे हैं।

    हाँ आप अगर बफ़ेट में खा रहे हैं तो आप खाना उतना ले सकते हैं जितना आप खा सकते हैं, परंतु अगर कहीं पूरी प्लेट ही आपको ऑर्डर करनी है तो यह संभव नहीं है कि आप पूरा खा लें और अपने पेट पर अत्याचार करें। मैं तो खाने की तश्तरी में छोड़ना या ना छोड़ने के बारे में ज्यादा सोचता नहीं, क्योंकि यह निजता है और हम अपनी निजता का उल्लंघन नहीं होने देना चाहते, सबके अपने व्यक्तिगत विचार होते हैं, उनका सम्मान करना चाहिये।

    पेट पर अत्याचार (हमारे मित्र विनित जी द्वारा बहुतायत में उपयोग किया जाने वाला वाक्य है ।)

बीबी को नई चप्पल

श्रीमतीजी याने की बीबी को नई चप्पल लेनी थी सो बाटा की बड़ी दुकान घर के पास है वहीं जाना हुआ, अब एक बार बड़ी दुकान में घुस जायें तो सारी चीजें न देखें मजा नहीं आता, और खासकर इससे थोड़ी सामान्य ज्ञान में वृद्धि होती है, खरीदें या ना खरीदें वो एक अलग बात है।

चप्पल तो ले ली और हम भी अपने लिये देखने लग गये, वैसे हमेशा यही ऐतराज होता है आते हमारे लिये हैं और खरीददारी खुद के लिये होती है, खैर शिकायतें तो कोई न कोई रहती ही हैं।

जब हम अपने लिये एक सैंडल देख  रहे थे तभी एक और व्यक्ति पास में से अपनी पत्नीजी को अंग्रेजी में बोलता हुआ गुजरा “तुम हमेशा मुझे वही चीज खरीदने पर मजबूर करती हो, जो मुझे नहीं खरीदनी है।”, हमारी जबान भी फ़िसल गई “अबे ढ़क्कन खरीदता क्यों है”, अब वो हमारे पीछे ही खड़ा था, और उसे हिन्दी भी समझ आती थी, उसके बाद वो हमें घूरने लगा। अनायास ही अपने एक बुजुर्ग मित्र बात समझ में आने लगी “जो व्यक्ति बीबी से डरता है, वही बाहर शेर बनकर दहाड़ता है, भले ही उसकी दहाड़ में दम हो या ना हो”।

और उधर ही एक विज्ञापन भी याद आ गया पुराना है मगर सबकी जबां पर था – “जो बीबी से करे प्यार वो प्रेस्टीज से कैसे करे इंकार”।

खैर फ़िर हमने उस दुकान में चमड़े के बैग देखे, पॉलिश और बेल्ट देखी, मगर एक निगाह अपने ऊपर घूमती हुई महसूस हुई, जो कुछ बोल नहीं पा रही थी। लगता है कि अपनी टिप्पणी केवल ब्लॉग के लिये है, जीवंत टिप्पणी किसी को अच्छी नहीं लगती है।

आज वैलंटाईन डे है, सबको प्यार भरी शुभकामनाएँ, यह वर्ष प्यार भरा रहे।

गूगल का वैलंटाईन डे पर डूडल देखिये –

न्यू ईयर का हंगामा और फ़लाना ढ़िमकाना ब्रांड व्हिस्की

न्य़ू ईयर का हंगामा बरप रहा था, वह कोई बहुत बड़ी सिटी तो नहीं परंतु हाँ उसके लिये तो शायद बहुत बड़ी थी क्योंकि शायद उसके सपने भी उतने बड़े ही थे या यों कह लो कि उसके सपने बहुत छोटे थे। रात घिर रही थी, हर जगह न्यू ईयर का शोर मच रहा था। वह भी अपने एक दोस्त के साथ पौवा लगाकर घर लौट रहा था, सोचा कि अब और कोई दोस्त तो है नहीं इस शहर में, घर पर जाकर सोकर ही न्यू ईयर मना लिया  जाये ।
फ़िर भी आस में एक चौराहे पर खड़े होकर गुमटी दिखते ही कश लगाने की एक गहरी इच्छा मन में आ गई, कि शायद कोई होस्टल में रहने वाला कोई उसका दोस्त नयू ईयर की पार्टी में ले चले, परंतु किस्मत इतनी जोरदार नहीं थी, तभी उसके साथ पढ़ने वाला जो कि अब आजकल इसी शहर में था मिल गया, और वह किराये के मकान में रहता था। न्यू ईयर की पार्टी के लिये समान खरीदने जा रहा था जैसे कि व्हिस्की, रम जौर मुर्गा।
बस उसके लिये क्या था बोला कि चलो आज न्यू ईयर पर व्हिस्की मारेंगे और मुर्गा सूतेंगे। ठेके पर व्हिस्की लेने पहुँचे तो पता चला कि फ़लाना ब्रांड नहीं है और केवल एक ढ़िमकाना ब्रांड है जो कि उसके गले से उतरता नहीं था, पर दोस्त बोला कि चल आज ये ही सही। पूरा खंबा और पीने वाले दो लोग, धीरे धीरे गटकाते हुए न्यू ईयर की चीयर्स होती रही।
पीने के बाद उसे थोड़ा तबियत नासाज लग रही थी और सोचा कि इधर ही कै कर ली जाये परंतु फ़िर सोचा कि ये साले क्या सोचेंगे कि पीने के बाद हजम भी नहीं हुई और मुँह से निकाल कर चल दिया। छोड़ो  जैसे तैसे सारा इल्जाम उस ढ़िमकाने ब्रांड पर लगाया, कितना गन्दा ब्रांड है और आज के बाद कभी इस ब्रांड की व्हिस्की नहीं पीने का और इसीलिये इस ब्रांड को पीता नहीं था। कितनी भी कम पियो चढ़ती तो जरूर है, जब सरूर सिर पर होता है तो सब कुछ नाचने लगता है। सोच समझकर बोलना और सोच समझकर सुनना, कहीं गलत बोल न दिया जाये और कहीं गलत सुन ना लिया जाये
खैर उसको क्या उसका तो न्यू ईयर हो गया था, एक नई सीख के साथ कि ढ़िमकाने ब्रांड की व्हिस्की नहीं पीनी चाहिये।
नव वर्ष की शुभकामनाएँ ।

कितनी अच्छी ठंड होती थी पहले…

    पता नहीं दिल कब मानेगा कि हाँ अब शरीर को ठंड लगती है, देखने से पता चलता है हाथ और पैर के बाल ठंड के मारे एक दम सीधे खड़े हैं जैसे किसी जंगल में किसी ने कोई तरकीब से बाँस के पेड़ उगा दिये हों। पहले जब ठंड पड़ती थी तो ऊन की वो ५-६ किलो की रजाई में घुसने का मजा ही कुछ और था परंतु याद आया वो तो बचपन था, जैसे जैसे किशोर हुए वो गोदड़ी गायब हुई और राजस्थानी रजाई आ गई, जब पहली बार राजस्थानी रजाई देखी थी तो ऐसा लगा था कि ये मारवाड़ी मजाक कर रहा है भला कभी इतनी पतली रजाई में ठंड भागती है क्या ? फ़िर भी हम ४ रजाई ले आये सबके लिये एक एक….

    राजस्थानी रजाई का ही कसूर है उसने हमें सिखाया कि ठंड खत्म हो रही है, नहीं तो इसके पहले तो कंबल भी ओढ़ लेते थे और उसके रोएँ की चुभन इतनी अच्छी लगती थी क्योंकि अगर वह हटा देते तो ठंड लगती, चुपचाप कभी ट्रेन में कभी रेल्वे स्टेशन पर तो कभी बस स्टैंड में वह कंबल ओढ़े हाथ में चाय की कुल्हड़ से चाय पीते हुए और हाथ जो कंबल के बाहर होते थे वो हिमालय की हवाओं से ठंडे होते थे, उन हाथों को गर्म करने के लिये कभी अलाव के ऊपर रखते तो कभी कंबल के अंदर करके रगड़ से ठंडा करने की कोशिश करते । फ़िर हाथों के लिये कार्तिक मेले से दस्ताने लिये थे, परंतु वे रेग्जीन के दस्ताने हाथ और ठंडे करते थे तो माँ ने ऊन का दस्ताना बुन दिया था, जिसे कभी उतारने की इच्छा ही नहीं होती थी।

    किशोरावस्था से जवानी तक आते आते स्वेटर और पुलोवरों का फ़ैशन खत्म हो चला था, अब जर्किनों का फ़ैशन था, स्वेटर में तो छन छान कर ठंडी हवा भी लगती थी परंतु जर्किन में बाहरी ठंडी हवा का कोई नामो निशां नहीं था। कभी भेड़ की फ़र वाली जर्किन कभी दोहरी तरफ़ वाली जर्किन, एक जर्किन खरीदो और दो जर्किनों के मजे लो। कभी पापा की जर्किन पहन लो कभी भाई की, कितनी अच्छी ठंड होती थी पहले पूरे परिवार को एक साथ अपना सामना करना सिखाती थी, और सबका साईज एक हो जाता था।  माँ ने इतने सारे हॉफ़ स्वेटर बनाये थे खासकर कुछ स्वेटर तो मेरे मनपसंदीदा थे जिनपर की गई डिजाईन तो माँ ने अपने आप की थी परंतु वे डिजाईन मन को ऐसे भाये कि उन्हें कभी जुदा नहीं कर पाया।

    आज न वो स्वेटर पास हैं, न ही वो जर्किन, जर्किन तो हैं परंतु अकेले पहनना पड़ती है, न पापा हैं यहाँ ना भाई है यहाँ कि मेरी जर्किन में गर्मी बड़ जाये और न वो माँ का बुना हुआ हॉफ़ स्वेटर मेरे पास है, परंतु हाँ उन सबकी गर्मी मेरे पास है, तभी तो मैं आज भी कहता हूँ और नहीं मानता हूँ कि मुझे ठंड लग रही है…..

नये प्रकार के वायरस से सावधान (Alert from new type of Virus)

अभी पिछले ५-६ दिनों से बहुत परेशान था, कोई वायरस नेटवर्क से हमारे ऑफ़िशियल लेपटॉप में घुस गया था और यह वायरस तनिक आधुनिक किस्म का था, हमने सीमेन्टिक एन्टीवायरस को अपडेट किया और फ़िर निकालने की कोशिश की। बड़ी देर लगभग सारी फ़ाईल ढूँढ़ने के बाद केवल दो फ़ाईलें इन्फ़ेक्टेड बतायीं वे हमने हटा दीं।
पर थोड़ी देर बाद ही हमारी आई.टी. टीम से फ़ोन आया कि हमारे लेपटॉप में वाईरस निवास कर रहा है तो उसे हटाना होगा, हमने बताया कि हमने यह प्रक्रिया अपनाई है, तो उन्हें उसके स्क्रीनशॉट्स भी दे दिये परंतु पता चला कि वाईरस महाशय अभी भी लेपटॉप में निवास कर रहे थे। फ़िर उन्होंने कुछ टूल्स हमारे लेपटॉप पर संस्थापित किये और उन्होंने भरपूर कोशिश की, सारी कूकीस, कैच फ़ाईल्स, टेम्परेरी इंटरनेट फ़ाईल्स भी हटा दी। परंतु कुछ भी नहीं हुआ, इसमें शक यह था कि यह वाईरस या तो स्क्रीनशॉट्स लेकर कहीं भेज रहा है या फ़िर लेपटॉप से डाटा को किसी गुप्त एफ़टीपी के जरिये कहीं भेज रहा है।
अंतत: निर्णय लिया गया कि लेपटॉप को रिईमेज किया जाये और हमें कहा गया कि अपना सारा डाटा सुरक्षित कर लीजिये, हमने फ़टाफ़ट कर लिया और अंतत: रिईमेज ही करना पड़ा। अब इस वायरस से मुक्ति पा चुके हैं, परंतु हमें यह पता चला है कि यह वाईरस तेजी से कंप्यूटरों को निशाना बना रहा है और यह वायरस नेटवर्क के जरिये फ़ैलता है।
जीटॉक ऑन था तो यह वाईरस अपने आप जितने भी संपर्क सामने स्क्रीन पर होते हैं उन्हें मैसेज अपने आप भेज देता है और मैसेज विन्डो को अपने आप बंद भी कर देता है। कहीं ना कहीं मैमोरी भी खाता ही होगा, क्योंकि हमें इसके बाद से अपना लेपटॉप धीमा होने का अहसास हुआ था।
अगर आपको भी इस प्रकार के मैसेज जीटॉक पर या कहीं और से आयें तो सावधान उस पर गलती से भी क्लिक ना करें, नहीं तो अपना सिस्टम फ़ोर्मेट करने को तैयार रहें। क्योंकि अभी तक इसका कोई एन्टी डोज नहीं आया है।
कुछ इस तरह के मैसेज यह भेजता है –

हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है… एक मेमशाब है साथ में शाब भी है..

एक गँवार आदमी को एक देश का सूचना तकनीकी मंत्री बना दिया गया, जिसे संगणक और अंतर्जाल का मतलब ही पता नहीं था। उस गाँव के संविधान में लिखा था कि सभी को अपनी बातें कहने की पूर्ण स्वतंत्रता है, परंतु उस जैसे और भी गँवार जो कि पेड़ के नीचे लगने वाली पंचायत में बैठते थे। उस पंचायत का मुखिया बनाया गया एक ईमानदार और पढ़े लिखे आदमी को, परंतु पंचायत पर राज उनके पीछे बैठी एक भैनजी और उनके बबुआ चलाते थे।

एक बार एक आदमी विदेश से आया और साथ में अखबार लाया और उसमें उसने पंचायत के सामने वह अखबार रखा कि देखो कि फ़ैबुक और विटेर पर लोग क्या क्या अलाय बलाय लिखते हैं और फ़ोटो अपने तरीके से बनाकर छापते हैं। पहले तो जब पंचायत और लोगों को जब वह अखबार दिखाया गया तो सभी लोग अपनी हँसी मुँह दबाकर छिपाते रहे, परंतु तभी उस पंचायत के सूचना तकनीकी मंत्री जो कि उस गाँव के टेलीफ़ोन के खंबे भी ढंग से गिन नहीं पाते थे, कहने लगे अरे ये तो हम भी अपने ही गाँव में कहीं देखे थे, उस दिन बड़ा अच्छा लग रहा था, उस दिन हम केवल फ़ोटू देखे थे कि मुखिया राजदूत चला रहे हैं और भैन जी उनके पीछे बैठकर फ़टफ़टिया के मजे ले रही हैं, उस दिन हमें लगा था कि वाह मुखिया ने भैनजी के संग क्या फ़ोटू हिंचवाया है।

आज पता चला कि ये तो जनता ने खुदही बनाकर डाल दिया है, असल में तो हमारे मुखिया और भैन जी बहुत ही सीधे हैं, मुखिया ने तो कभी फ़टफ़टिया चलाई ही नहीं है और भैन जी भी कभी फ़टफ़टिया पर बैठी नहीं हैं। खैर मंत्री जी ने तुरत आदेश दिया कि सारे टेलीफ़ोन के खंबे तुड़वा दिये जायें जिससे ना ये इंटर-नेट आयेगा और ना ही लोग ऐसी खुराफ़ात कर पायेंगे। अब बताओ मंत्री जी को कि लोग मोबाईल पर भी नेट का उपयोग करते हैं, बेचारे कुत्तों का एक मात्र सहारा खंबा भी छीन लिया।

अब बाकी तो आप समझदार हैं ही… अब ज्यादा बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है।

विटर से कुछ विटर विटर –

जैसे वाहनों का चालान बनाया जाता है वैसे ही ब्लॉगों, फ़ेसबुक मैसेज और ट्विट्स का चालान बनाया जायेगा

I have never commented on them 🙂 hamane to kaha Mummy ji, Yuvraj aur mannu 😉

प्राण साहब का मशहूर गाना फ़िल्म कसौटी से –