मंदिर क्यों जायें..

यदि आपमें आध्यात्म जीवित है, या आध्यात्मिक हो रहे हैं? तो आप इसे पसंद करेंगे!

यदि आपमें आध्यात्म मर गया हैं, तो आप इसे नहीं पढ़ना चाहेंगे।
यदि आप आध्यात्म में उत्सुक हैं तो वहाँ अभी भी आशा है!
कि मंदिर क्यों जायें? ?

एक ‘भक्त’ गोर ने  एक ? अखबार के संपादक को शिकायती पत्र लिखा कि मंदिर जाने का कोई मतलब नहीं।

‘मैं 30 साल से जा रहा हूँ  और आगे लिखा कि इतने समय में मैं कुछ 3000 मंत्र सुन चुका हूँ।

लेकिन अपने जीवन के लिए, मैं उनमें से एक भी याद नहीं कर  सकता हूँ।

इसलिये,  मुझे लगता है ये सब सेवाएँ देकर गुरु अपना समय बर्बाद कर रहे हैं और मैंने अपना समय बर्बाद किया?

इस पत्र को  “संपादक के नाम पत्र”  स्तम्भ में छापा गया और इससे असली विवाद शुरु हुआ, जिससे संपादक बहुत आनंदित हुआ।

ये सब ह्फ़्तों तक चलता रहा जब तक कि यह पक्की दलील नहीं दी गई –

मैं लगभग 30 साल से शादीशुदा हूँ और इस समय में मेरी पत्नी ने लगभग 32.000  बार भोजन पकाकर खिलाया होगा!

लेकिन जीवनभर खाना खाने के बाद भी मैं पूरी सूचि तो क्या ? मैं उनमें से कुछ एक भी याद नहीं कर सकता।

लेकिन मैं यह जानता हूँ … उस खाने से मुझे बल मिला और मुझे मेरा काम करने की जरूरत के लिये ताकत दी।

अगर मेरी पत्नी ने मुझे भोजन नहीं दिया होता, तो शायद आज मैं शारीरिक रूप से मर चुका होता ?

इसी तरह, अगर मैं मंदिर में पोषण के लिए नहीं गया होता तो मैं आज आध्यात्मिक रुप से मृत हो गया होता।

जब आपको कुछ भी समझ नहीं आता है …. तो भगवान ही कुछ करते हैं ! विश्वास दिखता है? अदृश्य, अविश्वसनीय को मानना ही पड़ता है और असंभव सी चीज भी प्राप्त हो जाती है!

भगवान का शुक्र है हमारे भौतिक और हमारे आध्यात्मिक पोषण के लिये!

अनुवादित – सोर्स

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9 thoughts on “मंदिर क्यों जायें..

  1. यदि मैं सही समझा हूँ तो आप यह कहना चाहते हैं कि जो व्यक्ति मंदिर नहीं जाता वह आध्यात्मिक नहीं होता,

    कह लीजिये !

  2. आध्यात्म बाहर से ज्यादा अन्दर की बात है और मंत्र भी यही करता है . इसका सही निर्देश इन पंक्तियों में है " जिन खोजा तिन पाईयां गहरे पानी पैठ "

  3. मंदिर जाना, नही जाना-इसका ईश्वर में विश्वास और आस्था से क्या लेना देना है. हम यहाँ मंदिर रोज जाने लगे, तो दो सौ किलोमीटर तो उसी में निपटा दें नित या हफ्ते में भी.

    हमारी भी आस्था है, पूरा विश्वास है कि ईश्वर साथ है किन्तु मंदिर जाना तो कम ही होता है तीज त्यौहार पर ही.

  4. आस्‍था और विश्‍वास अंदर का और मंदिर जाना बाहर का मामला है .. मंदिर जाना और तीर्थाटन करना उस जमाने के लिए महत्‍वपूर्ण माना जा सकता है .. जिस जमाने में लोगों के पास समय अधिक हुआ करता था .. और घर से बाहर निकलने के लिए एक बहाने की जरूरत होती थी .. आज लोग व्‍यस्‍त होते हैं .. फिर भी समय निकालकर खुद सैर सपाटे के लिए घर से निकलते हैं .. इसलिए मंदिर जाना अब तीज त्‍यौहारों या खास मौको के लिए ही आवश्‍यक बन गया है .. और इसका आध्‍यात्मिक पोषण में कोई महत्‍व नहीं .. मुंह में राम बगल में छुरी भी तो हो सकती है।

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