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वो काँच का दरवाजा

    दोपहर का समय था, घर से ५०% डिस्काऊँट और एक खरीदो एक मुफ़्त  का लाभ लेने के लिये निकले, बैंगलोर सेंट्रल मॉल में ३ घंटे में एथिनिक और वेस्टर्न की बहुत सी खरीदारी कर घर की और लौट रहे थे, कि बीच में ही एक दुकान पड़ी जहाँ पर ना चाहते हुए भी गाड़ी रोकना पड़ी, वो दुकान थी लगेज कंपनी का शोरूम, क्योंकि मुझे दो लगेज और लेना थे, तो सोचा कि अभी मॉडल देख लें और कुछ उपहार के वाऊचर भी रखे हैं, उसके लिये भी पूछ लेंगे कि अगर वे इस शोरूम पर ले लेंगे।
    बात की गई, लगेज फ़ाईनल किये गये, उपहार वाऊचर भी चलने के लिये हाँ हो गई, परंतु खरीदारी में और समय लगता, और ठीक ५ मिनिट घर पहुँचने में लगते और १० मिनिट बाद बेटेलाल की स्कूल बस आने को थी, अगर बीच में यातायात मिला तो ५ मिनिट की जगह १० मिनिट भी लग सकते हैं।
    शोरूम से निकलते हुए जल्दी में काँच के दरवाजे का अहसास ही नहीं हुआ, और तेजी से निकलते हुए गये थे, रफ़्तार तीव्र थी, वो काँच का दरवाजा खुलता भी केवल अंदर की तरफ़ था और बाहर काँच के दरवाजे के ऊपर एक छोटा सा स्टॉपर लगा हुआ था कि बाहर ना खुले, हम उससे धम्म से भिड़ गये, दिन में तारे नजर आने लगे, ऐसा लगा मानो माथे पर किसी ने बहुत जोर से हथौड़ा मार दिया हो, परंतु कुछ कर नहीं सकते थे, आँख के ऊपर बहुत जोर की लगी थी, केवल अच्छा यह रहा कि खून नहीं निकला या चमड़ी नहीं हटी और ना ही कटी।
    वो काँच का दरवाजा बहुत मोटा था, इसलिये काँच के दरवाजे को तो कुछ नहीं हुआ, फ़िर हमने गाड़ी के मिरर में जाकर अपने माथे का जायजा लिया और हाथ से दबाकर बैठ गये, करीब २ मिनिट दबाने के बाद लगा कि यह दर्द ऐसे नहीं जाने वाला क्योंकि सीधे हड्डी में लगा है तो बेहतर है कि घर पहुँचा जाये और आयोडेक्स लगा लिया जाये। घर पहुँचे आयोडेक्स लगा लिया, परंतु दर्द कम होने का नामोनिशान नहीं था, खैर यह भी एक अच्छा अनुभव रहा।

अब हालत यह है कि उसके बाद से किसी भी दरवाजे से निकलना होता है तो पहले अच्छे से पड़ताल कर लेते हैं, संतुष्ट हो लेते हैं फ़िर ही निकलते हैं, दर्द तो अब भी बहुत है, सूजन कम है। समय के साथ साथ सब ठीक हो जाता है, गहरे जख्म भी भर जाते हैं।

विचारों पर विचार

    सुबह उठते समय बहुत सारे विचार अपनी पूर्ण ऊर्जा में रहते हैं, और शनै: शनै: उन विचारों के अपने प्रारूप बनने लगते हैं, उन विचारों में कई प्रकट हो जाते हैं, मतलब कि किसी ना किसी से वे विचार वाद-विवाद या किसी अन्य रूप में कह दिये जाते हैं। कुछ विचार जो प्रवाहमान रहते हैं, वे अपने संपूर्ण वेग से हर समय अपनी पूर्ण ऊर्जा से रक्त वाहिनियों में रक्त के कणों में बहते रहते हैं, उनकी रफ़्तार इतनी तेज होती है जो शायद ही नापी जा सकती होगी।
    विचारों की गति के समान शायद ही कोई गति वाला यंत्र विज्ञान बना पाया होगा, जो एक ही पल में कई वर्ष पहले और दूसरे ही पल में कहीं और किसी ओर समयकाल में ले जाता है। विचारों की इस तीव्र गति के कारण ही हम हमेशा विचलित रहते हैं, कुछ विचारों को हम व्यवहारिकता के धरातल पर ले आते हैं, और कुछ विचार शायद ही कभी दुनिया में प्रकट होते हैं, यह शायद हरेक व्यक्ति का अपना एक बहुत ही निजी घेरा होता है, जिसको वह किसी भी अपने, बेहद अपने से भी प्रकट  नहीं करता।
    विचारों की ऊर्जा से मन प्रसन्न भी हो जाता है और इस कारण से जो ऊर्जा शरीर को मिलती है, उसे कई बार अनुभव भी किया जा सकता है, कई बार ऐसे ही बैठे ठाले ही कोई विचार अचानक ही मन में आता है और अचानक ही रक्त संचार धमनियों मॆं रफ़्तार से होने लगता है, जिससे लगता है कि अचानक ही कोई नई ताकत हमारे अंदर आ गई है, शायद इस प्रक्रिया से कुछ हार्मोन्स का अवतरण होता होगा, जिससे मन का अवसाद, मन का फ़ीकापन दूर हो जाता है।
    नकारात्मक ऊर्जा वाले विचार शरीर के अंदर अत्यंत शिथिलता भर देते हैं, जो  भीरूपन जैसा होता है, जिससे हमें छोटी से छोटी बातों से डर लगने लगता है और हरेक घटना के पीछे वही ऊर्जा कार्य करती दिखती है, सही कार्य  भी करने वाले होंगे तो भी उस नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव से हमारा मानस कहीं ना कहीं बिगड़ने लगता है और गलतियाँ करने लगते हैं।
    वहीं सकारात्मक ऊर्जा वाले विचार शरीर के अंदर बेहद उत्साह का संचार करते हैं, अत्यंत शक्तिशाली महसूस करने लगते हैं, कोई बड़ा कार्य भी बौना लगने लगता है। असहजता का अवसान हो जाता है, अगर तबियत खराब होती है तब भी उसका अनुमान नहीं हो पाता है, सकारात्मक ऊर्जा के दौरान अधिकतर हम दुश्कर कार्य अच्छे से कर पाते हैं।
    ऊर्जा कैसी भी हो, अपना मानस पटल हमें बहुत ही पारदर्शी रखना होगा, ध्यान रखना होगा कि नकारात्मक ऊर्जा का जब भी दौर हो, उस समय कैसे सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर सकते हैं, सकारात्मक ऊर्जा लाने के लिये जो अच्छा लगता हो, वह करें, मुझे लगता है सफ़लता जरूर मिलेगी।
    ऐसे ही कुछ विचार प्रस्फ़ुटित होने के लिये इंतजार करते रहते हैं जिन्हें हम मन ही मन परिपक्व बनाते हैं, जिससे जब भी वह विचार हमारे मन की परिधि से निकल कर बाहर आये तो उस विचार से मान सम्मान और ऐश्वर्य की प्राप्ति हो।

अभी तक विचारों को सुबह लिखने की आदत नहीं पड़ी है, क्योंकि अगर सुबह ही विचार लिखने बैठ गये तो फ़िर प्रात: भ्रमण मुश्किल हो जाता है पर सुबह के विचारों को कहीं ना कहीं इतिहास बना लेना चाहिये, मानव मन है जो विचारों को जितना लंबा याद रख सकता है और उतनी ही जल्दी याने कि अगले ही क्षण भूल भी सकता है। ऐसे पता नहीं कितने विचारों की हानि हो चुकी है। जो शायद कहीं ना कहीं जीवन का मार्ग और दशा बदलने का कार्य करते हैं।

“शाहिद” शहादत और सुसाईड (“Shahid” Martyrdom or Suicide)

    आज फ़िल्म “शाहिद” देख रहा था, फ़िल्म बहुत ही अलग विषय पर बनी है, जिसे हम अनछुआ पहलू कह सकते हैं, इन अनछुए पहलुओं में केवल आतंकवाद से ग्रस्त लोग ही नहीं है, और भी बहुत सारे सामाजिक पहलू हैं जो अनछुए हैं, जिनके बारे में हमें आपको और बाहरी विश्व को कुछ पता नहीं है। क्योंकि इन पहलुओं को इतना लुका छिपाकर रखा जाता है कि हम तक कभी कोई खबर इस बारे में पहुँच ही नहीं पाती है।
    “शाहिद” में साफ़ साफ़ बताया गया है जो लोग आपका उपयोग करना चाहते हैं, उनसे दूर रहें, वे लोग केवल और केवल अपने स्वार्थ के लिये आपकी जिंदगी में आते हैं, बेहतर है कि उनसे बहुत दूरी बना ली जाये और मजबूरी हो तो कभी कभार मिलना जुलना रखना चाहिये। जो इंसान दुसरे के अनुभव से सीख लेता है वह शायद बहुत कुछ खोने से बच जाता है।
    फ़िल्म की कहानी बहुत ही सीधी सादी है, जिसमें केवल एक व्यक्ति के इर्दगिर्द यह फ़िल्म घूमती है और उसके परिवार को भी बताया गया है, फ़िल्म की कहानी में किसी भी तरह का कोई ड्रामा नहीं रखा गया है जो कि इसका बहुत ही अच्छा पक्ष है, जैसे कि अपने क्लाईंट से ही प्यार होने पर सीधे उसे शादी के लिये बात कह देना, अपने घर पर कुछ भी ना बताना और जब पता भी चले तो साफ़ साफ़ कह देना, यह साफ़गोई बहुत ही पसंद आई। जिसमें हीरोईन याने कि शाहिद की बीबी का यह संवाद कि “मुझे मेरी लाईफ़ कॉम्लीकेटेड नहीं चाहिये, कोई हर्डल कोई घुमाव फ़िराव नहीं चाहिये, बस स्टेट फ़ार्वर्ड लाईफ़ चलनी चाहिये” जमा।
    बहुत सारे संवाद दिल को छूने वाले हैं और प्रेरक हैं, जैसे शाहिद को उसकी बीबी ने कहा “लोग तो तुमको अतीत में धकेलकर तुम्हें अपने रास्ते से हटाने की कोशिश करेंगे, तुम केवल आगे की और देखो, नई किरण, नई रोशनी तुम्हारा इंतजार कर रही है”।
    जब शाहिद जेल में था तो उनका एक कैदी मित्र उनको पढ़ने में सहायता करता है और कहता है “लहरों के विरूद्ध चलना बहुत आसान नहीं होता परंतु अगर जो लहरों के विरूद्ध चलकर आगे बड़ता है, वह अपनी बुलंदियों को छूता है”, और उसने कहा कि जितना चाहो उतना पढ़ो तुम्हें अपनी मंजिल जरूर मिलेगी।
    किस प्रकार से झूठे केसों में लोगों को फ़ँसाया जाता है, और इतने कमजोर सबूत होने पर भी न्यायपालिका मूक दर्शक बनी देखती रहती है, हमारी न्यायपालिका पर भी बहुत बड़ा प्रहार है। किस प्रकार से धर्म के नाम पर नौजवानों को बरगलाया जाता है उसके लिये फ़िल्म खत्म होने के बाद फ़िल्म को एक्स्टेंडेड पार्ट में दिखाया गया है, वहाँ हमें शहादत और सुसाईड का अंतर पता चलता है।
    फ़िल्म बहुत ही शानदार है, अभिनय दिल छूने वाला है, शायद बहुत दिनों बाद ऐसी कोई फ़िल्म देखी कि लगा इसके लिये वाकई कुछ लिखना चाहिये। फ़िल्म की पूरी टीम को बधाई।

RBI का खुदरा मुद्रास्फ़ीति से जुड़ा बांड (RBI retail inflation-linked bonds December 2013)

    23 दिसंबर 2013 से भारतीय रिजर्व बैंक खुदरा मुद्रास्फ़ीति से जुड़ा बांड बाजार में उतार रही है और 31 दिसंबर 2013 यह बांड लेने की अंतिम तिथि है हालांकि केन्द्रीय बैंक बिना किसी सूचना के इस बांड को अंतिम तिथि के पहले भी बंद कर सकती है।
    प्रति व्यक्ति कम से कम ५,००० रूपये और अधिकतम वार्षिक ५ लाख रूपयों तक का निवेश इन बांडों में कर सकते हैं। इस बांडों पर अर्जित ब्याज करयोग्य होगा। मतलब कि ब्याज पर आयकर देना होगा।
    इन प्रतिभूतियों पर दी जाने वाली ब्याज दर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index CPI) से सीधी जुड़ी होगी। ब्याज दर दो भागों में विभक्त होगा –
1) निर्धारित दर (1.5% प्रति वर्ष)
2) मुद्रास्फ़ीति की दर जो कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से ली जायेगी
    छ:माही आधार पर ब्याज की गणना मूलधन पर की जायेगी और जिसका भुगतान बांड की परिपक्वता के समय ही किया जायेगा।
    अंतिम संयुक्त उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का तीन महीने के अंतराल में उपयोग किया जायेगा। जैसे कि दिसंबर 2013 के सभी दिनों के लिये  ब्याज की गणना सितंबर 2013 के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर की जायेगी।
    परिपक्वता के पहले बांड से पैसा केवल दो ही परिस्थितियों में निकाला जा सकता है –
1) वरिष्ठ नागरिक (६५ वर्ष से अधिक) बांड जारी होने के एक वर्ष के पश्चात बांड से पैसे निकाल सकते हैं।
2) और बाकी अन्य नागरिक तीन वर्ष के पश्चात बांड से पैसे निकाल सकते हैं।
    अगर पैसे परिपक्वता के पहले निकाले जाते हैं तो आखिरी कूपन याने कि आखिरी छ:माही ब्याज का 50% दंड शुल्क के रूप में भारतीय रिजर्व बैंक वसूल करेगी। हालांकि परिपक्वता के पहले केवल कूपन दिनांकों पर ही पैसा निकाला जा सकेगा।
    हालांकि ये बांड बाजार में ट्रेडिंग के लिये उपलब्ध नहीं होंगे, ये शुद्ध रूप से बचत के लिये हैं जिनको लंबे समय तक की बचत करनी है उनके लिये बांड बहुत अच्छा है। जैसे कि सावधि जमा खातों (Fixed Deposits) पर सामान्यत: लंबे समय की अवधि के लिये 9% ब्याज मिलता है और अभी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक लगभग 8.5% है तो इस बांड पर 10% ब्याज मिलेगा, लेकिन अगर भविष्य में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक 4 % हो जाता है तो ब्याज 5.5 % मिलेगा, जबकि सावधि जमा खाते पर वही 9% ब्जाज मिलेगा। इन बांडों पर ब्याज दर कम ज्यादा होती रहेगी क्योंकि यह बांड उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से सीधा जुड़ा है। लेकिन इस बांड से यह जरूर सुनिश्चित किया जा सकता है कि आपको मुद्रास्फ़ीति से ज्यादा ब्याज मिलेगा। जो कि निवेशक के लिये राहत की बात है।
    बांड लेने वालों के लिये नामांकन सुविधा भी उपलब्ध है, जिसे जरूर उपयोग करना चाहिये।
 
    इन बांडों को बैंकों में ऋण लेने के लिये जमानत के तौर पर भी रखा जा सकता है।

भारतीय स्टेट बैंक और उसकी सहयोगी बैंकें, राष्ट्रीयकृत बैंकें एवं तीन निजी बैंक एचडीएफ़सी बैंक, आईसीआईसीआई बैंक और एक्सिस बैंक और स्टॉक होल्डिंग कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया इन बांडों को बाजार में बेचेंगी।

भाग–९ अपनी पहचान के लिये वेदाध्ययन (Study Veda for your own identity)

    भारतीय परम्परा में ज्ञान का मुख्यत: अभिप्राय है स्वयं को ही जानना-पहचानना और आत्मज्ञान ही है सर्वोच्च ज्ञान। ऋषि याज्ञवल्क्य अपने उपदेश पर आत्मज्ञान पर बल देते हैं।
आत्मा वा अरे द्रष्टव्य:
    अपनी आत्मा ही देखने योग्य है जो परमात्मा से भिन्न नहीं है और इस एक तत्व को जान लेने से सब कुछ स्वत: जाना गया हो जाता है।
तस्मिन विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति
    (तस्मिन) उस एक परमतत्व के (विज्ञाते) जान लेने पर (सर्वं) सब कुछ (विज्ञातं) जाना गया (भवति) हो जाता है। कुछ भी जानने के लिये शेष नहीं रह जाता । इस तरह वेद अमरत्व का बोध कराते हैं। यही एकत्व का ज्ञान सभी को विद्वेषभावरहित बना कर स्नेहसूत्र में जोड़ने वाला है। सभी में सम्प्रीति सहयोग का भाव होगा और अपने-अपने कार्यों को करते हुए सभी सुखी रहेंगे।
    वैदिक ऋषियों का यह अध्यात्म-ज्ञान विश्व मानवता के कल्याण हेतु अनुपम महनीय योगदान है। इसीलिए समष्टिगत कल्याण हेतु सम्पूर्ण मानव समाज की रक्षा हेतु सभी के लिए वेदों का अध्ययन परमावश्यक है। इस दृष्टि से वेद आज और भी अधिक उपयोगी एवं प्रासंगिक हैं।

भाग-८ वेदाध्ययन में सभी का अधिकार (Learning Veda right for all)

    ऋषियों द्वारा साक्षात्कृत अनुपम ज्ञानराशि वेदों की उपयोगिता सार्वकालिक सार्वदेशिक सार्वजनीन है। ऋषियों ने बिना किसी भेद-भाव के समान रूप से वेदों का उपदेश सभी के लिए किया है। मानव मात्र का कल्याण करना समाष्टिहित ही उनका प्रयोजन था। एक ही परमात्मा की सन्तानें होने के कारण सभी मनुष्य मूलत: समान हैं। ऋषि का सुस्पष्ट कथन है –
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय
    (यथा) जिस प्रकार (मैं) (इमां कल्याणीं) इस कल्याण करने वाली (वाचं) वाणी को (जनेभ्य: ) मनुष्यों के लिये (आवदानि) बोलता हूँ उस वाणी को उसी प्रकार मैं (ब्रह्मराजन्याभ्यां) ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिये (च शूद्राय) और शुद्र के लिये ( च अर्याय) और श्रेष्ठ स्वामी वैश्य के लिये (च स्वाय) अपने स्थान पर रहने वाले गृहस्थ के लिये (च अरणाय) और भ्रमण करने वाले परिव्राजक संन्यासी के लिये भी कहता हूँ।

यहाँ पर ऋषि ने कल्याणकारी उपदेश समान रूप से सभी के लिये दिया है। मनुष्यों में जो वर्णभेद है वह कर्मों के कारण है। सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से है। इसलिए वेदों के अध्ययन में जाति-वर्णगत, लिंगगत कोई भेद नहीं है। इसका तो प्रत्यक्ष प्रमाण वागाम्भृणी, काक्षीवती घोषा, अपाला, गार्गी इत्यादि ऋषिकाएँ एवं ब्रहमवादिनियाँ हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के ऋषि रूप में इतरा दासी के पुत्र महिदास ऐतरेय प्रसिद्ध हैं। वेदों की यहा समन्वयात्मक दृष्टि सर्वथा अनुकरणीय एवं प्रेरणास्पद है।

भाग–७ वेदों में पर्यावरण चेतना (Environmental consciousness in Vedas)

    हमारे वैदिक ऋषि मनीषी पर्यावरण रक्षण के प्रति बहुत ही जागरूक सावधान रहे हैं। पर्यावरण रक्षण का अभिप्राय ही है स्वयं की रक्षा। अत: स्वकीय रक्षाहेतु यह पर्यावरण रक्षणीय है, इसी दृष्टि से उन्होंने प्रकृति की दैवतभाव से उपासना की। सहज रूप से कल्याणकारिणी वरदायिनी यह प्रकृति पूजा के योग्य है, इसको नियन्त्रित, वश में नहीं करना है, इसके सन्तुलन को बाधित नहीं करना है। उपासना से यह इच्छित फ़ल प्रदान करने वाली है।
 
एक ही परम तत्व सर्वत्र ओतप्रोत है – सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुष्श्च
    (जगत: ) जंगम-गमनशिल चेतन (च) और (तस्थुष: ) स्थावर अचेतन की (आत्मा सूर्य: ) आत्मा सूर्य है अर्थात सूर्यरूपी परमात्मा सभी चेतन और अचेतन पदार्थों में परिव्याप्त है, उससे बाहर कुछ भी नहीं है। सब कुछ परमात्मस्वरूप होने से केवल मनुष्यों की नहीं, अपितु पशु-पक्षियों, लता-वनस्पतियों सभी की रक्षा हो जाती है और एक सुखमय आह्लादमय रहने योग्य संसार बन जात्ता है। ऋषियों ने इसी दृष्टि से नदी, अश्मा, वनस्पतियों की भी दैवतभाव से प्रार्थना की है।
    भौतिक प्राकृतिक पर्यावरण रक्षण के साथ ही ऋषियों ने आन्तरिक पर्यावरण स्वच्छता पर, उदात्त जीवन मूल्यों के रक्षण पर बल दिया है और इस तरह वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण की विश्व व्यापी गम्भीर विषम समस्या का समाधान वेदों से प्राप्त हो जाता है –
‘अग्निमीळे पुरोहितम’
    (पुरोहितम अग्निम) पुरोहित अग्नि की (ईळे) में प्रार्थना करता हूँ।

वैदिक ऋषिक में यह अग्नि केवल पाचक दाहक प्रकाशक ही नहीं, अपितु यह सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी अग्रगामी नेतृत्व करने वाला सर्वाधिक रमणीय धनों को देने वाला है। अत:  जातवेदस वैश्वानर पुरोहित देव इत्यादि रूप में यह अग्नि प्रार्थनीय है।

भाग–६ वेदों में देश-प्रेम राष्ट्रीय चेतना (Patriotism and Cosmopolitanism in Vedas)

    देशप्रेम राष्ट्रीयता की उदात्त शिक्षा वेद प्रदान करते हैं। मनुष्यों में राष्ट्रीय चेतना जागरित करने वाले अनेक मन्त्र हैं –
माता भूमि: पुत्रोsहं पृथिव्या: । अथर्ववेद १२.१.१२
    (भूमि: ) भुमि हमारी माता है। (अहं ) मैं (पृथिव्या: ) पृथिवी का पुत्र हूँ।
नमो मात्रे पृथिव्यै । यजुर्वेद ९.२२
    (मात्रे पृथिव्यै) माता पृथिवी को (नम: ) नमस्कार है। वेदों के इन वचनों से मातृभूमि के प्रति आत्मीय भावना होती है और इस पर रहने वाले हम सभी बहन-भाई हैं। अत: हम सभी को परस्पर मेल-मिलाप से रहना चाहिये। परस्पर एक दूसरे के हित का ध्यान रखना चाहिये।

विश्वबन्धुत्व की भावना –

विश्वमानुष, बन्धुत्व, भाईचारा का उदात्त पाठ हमें वेद पढ़ाता है।
यत्र विश्वं भवत्येकनीडम
(यत्र) जहाँ पर (विश्वं) सम्पूर्ण संसार (एकनीडम) एक घोसला (भवति) हो जाता है।
    ईशावास्यमिदं सर्वम (इदं सर्वम) यह सबकुछ (ईशावास्यम) ईश्वर परमात्मा से परिव्याप्त है। पुरुष एवेदं सर्वम (इदं सर्वम) यह सब कुछ (पुरुष:एव) परमपुरुष परमात्मा ही है।
    सर्वं खल्विदं ब्रह्मा (इदं सर्वम) यह सम्पूर्ण जगत (खलु) निश्चित रूप से ब्रह्मा ही है इत्यादि रूप से सम्पूर्ण विश्व एक परिवार है।
    वसुधैव कुटुम्बकम जैसी उदात्त भावना जागरित करने में वेदों का ही योगदान है और इसी का फ़ल है सर्वकल्याण समष्टि का हित – सर्वे भवन्तु सुखिन: – सभी सुखी होवें।
    संकुचित क्षुद्र स्वार्थ भावना से ऊपर उठकर सर्वहित प्रेरणा वेदों से मिलती है। वेद सर्वहित सम्पादक महौषधि हैं।
    इस तरह वेद समस्त मानवता को एक सूत्र में संग्रठित करते हैं और सकल विश्व के लिये वेदों का यह अनुपम योगदान है।

भाग–५ वेदों की पारिवारिक / सामाजिक जीवन दृष्टि (Social and Family vision in Vedas)

    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह एकाकी, अकेले नहीं, अपितु परिवार में, समाज में रहता है और सुखमय जीवनयापन करना मनुषय की सहज स्वाभाविक अभिलाषा होती है। एतदर्थ वेदों में पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्था का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है । सुख समृद्धि की प्राप्ति हेतु ही ऋषियों ने ४ प्रत्यक्ष देवों को प्रस्तुत किया है। देव का अभिप्राय ही है जिनसे हमें वांछित फ़ल की प्राप्ति होती है । देवों दानात दान, इच्छित फ़ल प्रदान करने के कारण ही देव कहलाते हैं। प्रत्यक्ष देवता ४ हैं –
१. माता २. पिता ३.आचार्य ४.अतिथि
मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव
    तैत्तिरीयोपनिषद शिक्षावल्ली में विद्याध्ययन की सम्पूर्ति पर गुरुकुल से घर जाने वाले छात्रों को दिया गया यह उपदेश सभी मनुष्यों को इन प्रत्यक्ष देवों की सेवा सुश्रूषा के लिए प्रेरित कर रहा है। पारिवारिक-सामाजिक बन्धन को सुदृढ़ एवं प्रगाढ़ कर रहा है। इनकी सेवा करने से निश्चित रूप से अभीष्ट की सिद्धि होती है।
    सच्चा सुख तो वास्तव में परिवार में है। अकेले रहने में कोई सुख नहीं है। इसलिये भगवती वेद श्रुति कहती है कि प्रारम्भ में वह परमात्मा अकेला था, उसे कुछ अच्छा नहीं लगा –
एकाकी स न रेमे
    और पुन: उसने संकल्प किया कि मैं अकेला हूँ, बहुत हो जाऊँ, प्रजाओं की सृष्टि करूँ –
एकोsहं बहु स्याम, प्रजायेय
    इस तरह उस एक परमात्मा ने आत्मरमणार्थ, क्रीड़ा के लिए नामरूपात्मिका इस सृष्टि की रचना की। सृष्टि की रचना करके वह परमात्मा इसमें प्रवेश कर गया, इसलिए सच्चिदानंद परमात्मा से उद्भूत यह सृष्टि आनन्दबहुला है –
तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत
    (वह परमात्मा) (तत सृष्टवा) उस जगत की रचना करके (तद एवं अनुप्र-अविशत) उसी में प्रवेश कर गया। सर्वं खल्विदं, ब्रह्म (इदं सर्वं) यह सब कुछ (खलु) निश्चित रूप से (ब्रह्म) ब्रह्म है। इसका यही अभिप्राय है कि सच्चा सुख जो प्रत्येक मनुष्य को अभीष्ट है, परिवार में है और वेद पारिवारिक व्यवस्था का बहुत ही सुन्दर वर्णन प्रस्तुत करते हैं। परिवार के सभी सदस्यों में परस्पर सौहार्द सौमनस्य सहयोग का भाव होवे, प्रेमपूर्वक मधुर वाणी बोलते हुए मिलजुल कर एक साथ रहने की, एक साथ चलने की, मिल कर कार्य करने की बात वेदों में कही गयी है। सभी का खाना-पीना एक साथ होवे, आपस में द्वेष-अलगाव की भावना न होवे और इस प्रकार अभीष्ट लक्ष्य को सिद्ध करने के लिये प्रेरित किया गया है।
    माता-पिता, पत्नी, भाई-बहनों को परस्पर व्यवहार की विधि-रीति को वेद बतलाता है।
अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम॥ अथर्ववेद
३.३०.२
    (पुत्र: ) पुत्र (पितु: ) पिता के (अनुव्रत: ) अनुकूल आचरण वाला (भवतु) होवे। (मात्रा) माता (संमना: ) सभी सन्तानों के प्रति समान मन-स्नेह वाली (भवति) होवे (जाया) पत्नी (पत्ये) पति के प्रति (मधुमतीं) मधुर-मीठी (शान्तिवाम) शान्ति सुख प्रदान करने वाली (वाचं) वाणी (वदतु) बोले।
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा
    (भ्राता) एक भाई (भ्रातारं) दूसरे भाई से (मा द्विक्षत) द्वेष ना करे। (उत) और (स्वसा) एक बहन (स्वसारम) दूसरी बहन से द्वेष ना करे।     यहाँ पर वेद पारिवारिक सुख-शान्ति और समृद्धि के लिए एक सद्व्यवहार की प्रेरणा दे रहा है। यह सर्वथा सार्थक है। पुत्र के लिये आवश्यक है कि वह अपने पिता के विचारों को जानकर तदानुसार कार्य करे, वह आज्ञाकारी होवे। माता ममता स्नेह की मूर्ति होती है, उसकी गोद को पहली पाठशाला कहा गया है। सभी सन्तानों के प्रति उसका स्नेह वात्सल्य होना चाहिए। वेद ने पत्नी को ही घर कहा है।
    जायेदस्तम (जाया) पत्नी (इत) ही (अस्तम) घर है।  इसलिए घर की समृद्धि में पत्नी का विशेष उत्तरदायित्व है। गृहस्वामी पति की वह अपनी प्रिय मधुर वाणी से थकावट दूर करे। इसी प्रकार भाई-बहन सभी आपस में मिल-जुल कर रहें और अपने निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करते हुए परिवार को सुखी बनावें।
    इसी प्रकार सामाजिक एकता समरसता सह-अस्तित्व पर वेद बल देता है।
समानी प्रपा सह वोsन्नभाग: – अथर्ववेद ३.३०.६
    हे मनुष्यों (व: ) आप सभी की (प्रपा) पानीयशाला (समानी) समान-एक होवे। (अन्नभाग: ) अन्न का भाग वितरण समान होवे।
केवलाघो भवति केवलादी – ऋगवेद १०.११७.६
    (केवल-आदी) देवल अकेला खाने वाला (केवल अघ: भवति) केवल पाप को भोगने वाला होता है।
पुमान पुमांसं परिपातु विश्वत:
    (पुमान) एक मनुष्य (मुपांसं) दूसरे मनुष्य की (विश्वत: ) सभी तरफ़ से (परिपातु) रक्षा करे। इस प्रकार वेद सभी मनुष्यों के सह अस्तित्व, सहचरित्र पर बल देता है। सभी सुखी-समृद्ध रहें। ऋग्वेद के अन्तिम मन्त्र में यही कामना की गई है।
समानीव आकूति: समाना हृदयानि व:।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति॥ ऋग्वेद १०.१९१.४

हे मनुष्यों (व: ) आप सभी को (आकूति: ) विचार संकल्प (समानी) समान होवें। (व: ) आप सभी के (हृदयानि) हृदय (समाना) समान होवें (व: ) आप सभी के (मन: ) मनन-चिन्तन (समानम अस्तु) समान होवें। (यथा) जिससे (व: ) आप सभी का (सुसह-असति) एक साथ रहना होवे। सह अस्तित्व के लिये चिन्तन-मनन, भावना तथा संकल्प में समानता-एकरूपता आवश्यक है।

भाग–४ मानव शरीर ही ब्रह्माण्ड

मानवशरीर की ब्रह्माण्ड, यज्ञशाला, ऋषि आश्रम, तीर्थ एवं स्वराज्य रूप में अवधारणा –
    वेदों के सुप्रख्यात व्याख्याकार पं.श्रीपाद सातवलेकर ने अपनी व्याख्या में मानवशरीर को विशेष महत्व प्रदान किया है। सकल ब्रह्माण्ड अंश रूप में इस शरीर में विद्यमान है। इसलिए जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वह इस शरीर में भी है। हमारा शरीर ही यज्ञशाला है। शरीर के भितर होने वाली समस्त क्रियाएँ यज्ञीय क्रिया कलापों के समान हैं। मनाव शरीर ही ऋषियों का आश्रम तथा तीर्थ स्थल है। इस कथन से उन्होंने शरीर की पावनता पर बल दिया है। भावों, विचारों तथा ज्ञान से अपने इस शरीर की पवित्रता को बनाए रखना है।
सप्त ऋषय: प्रतिहिता: शरीरे।
सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम ( यजुर्वेद ३४.५५)
    (शरीरे) मानव शरीर में (सप्त ऋषय: ) सप्त ऋषि (प्रतिहिता: ) स्थापित विद्यमान हैं। (सप्त) सातों ऋषि (सदम) शरीर रूपी घर की (अप्रमादम) बिना प्रमाद के सावधानीपूर्वक (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं।

पं. सातवलेकर ने मानव शरीर को अपना स्वराज्य बतलाया है। यह शरीर ही रत्नादि से परिपूरित अपराजेय देवपुरी अयोध्या है और सवकीय आत्मा ही इस स्वराज्य का राजा है। शरीर रूपी यह स्वराज्य सभी को सहज ही स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। धनी हो अथवा निर्धनी, सभी व्यक्ति का अपना स्वराज्य है और आत्मा रूपी राजा का शासन इस पर चलना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य को अपने शरीर के महत्व का बोध कराया गया है।