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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३८ [कर्ण और भीम के बीच का रोचक प्रसंग..]

    एक बार मैं और अश्वतथामा दोनों खड़ग के अखाड़े के पास खड़े थे। उस अखाड़े के चारों ओर सब्बल-जैसी मोटी-मोटी लोहे की छड़ों की चहारदीवारी थी। उस चहारदीवारी की एक छड़ की नोक को किसी ने झुकाकर धरती पर टेक दिया था। वह उसी स्थिती में थी। वही एकमात्र छड़ उस चहारदीवारी से बाहर निकली होने के कारण अच्छी नहीं लग रही थी। उसको सीधी करने के विचार से मैंने उसको हाथ लगाया। उस समय बड़ी शीघ्रता से अश्वत्थामा बोला, “रहने दो कर्ण ! सभी इस पर प्रयोग कर चुके हैं। एक दिन क्रोध के आवेश में भीम ने इसको झुका दिया था। अन्य कोई इसको सीधी कर ही नहीं सका। वही कभी क्सको सीधी करेगा।“

   “अच्छा ! तो फ़िर मैं इसको सीधी करूँ क्या ?” मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।

“यह तुमसे नहीं हो सकेगा।“

    “अच्छा ?” मैंने पैरों से पदत्राण उतारकर अलग रख दिये। उत्तरीय कटि से लपेटा और उससे बोला, “इस छड़ को बायें हाथ से सीधी कर, जैसी यह थी वैसी ही इसको चहारदीवारी में लगा दूँगा। तुम देखते रहो।“

   मैं उस छड़ के पास गया। एक बार आकाश की ओर देखा। गुरुदेव चमक रहे थे। बायें गाथ में सारी शक्ति एकत्रित की । आँख मींचकर पूरी शक्ति से मैंने वह छड़ हाथ से झटके के साथ ऊपर खींची। पहले झटके में ही वह कमर के बराबर ऊँची हो गयी। उसका ऊपर आया युआ सिरा कन्धे पर लेकर बायें हाथ के पंजे से धीरे-धीरे मैंने उसको चहारदीवारी के घेरे में वैसे ही लगा दिया, जैसे वह लगी हुई थी। अश्वत्थामा अवाक हो गया। मेरी पीठ पर थाप मारने के लिये उसने अपना हाथ मेरी पीठ पर रखा। पर फ़िर तुरन्त ही उसने ऊपर ही ऊपर से अपना हाथ उठा लिया।

“क्या हुआ अश्वत्थामन ?” मैंने आश्चर्य से उससे पूछा।

    “अरे, तुम्हारी देह तो अग्नि की तरह जल रही है !” भेदक दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए उसने उत्तर दिया।

    उसके बाद भीम ने वह सीधी की हुई छड़ कभी देखी होगी। वह प्रतिदिन एक छड़ टेढ़ी कर जाता था। मैं प्रतिदिन रात में उसकी टेढ़ी की हुई छड़ को बायें हाथ से सीधी कर दिया करता।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३७ [अश्वत्थामा द्वारा कर्ण को कर्ण का सौंदर्य वर्णन.. ]

   अश्वत्थामा पर मेरा जो प्रेम था, उसका रुपान्तर अब प्रगाढ़ स्नेह में हो गया था। समस्त हस्तिनापुर में वही एकमात्र मेरा प्राणप्रिय मित्र बन गया था।

  एक बार हम दोनों गंगा के किनारे बैठे बातें कर रहे थे। अकस्मात सहज रुप में उसने कहा, “कर्ण, तुम मुझको अच्छे लगते हो, इसका कारण केवल तुम्हारा स्वभाव ही नहीं है, बल्कि तुम्हारा सुन्दर शरीर भी उसका एक कारण है।“

“तो क्या मैं इतना सुन्दर दिखाई देता हूँ ?”

  “हाँ। तुमने यह स्वप्न में भी न सोचा होगा, लेकिन प्रतिदिन तुम जिस समय स्नान करके धूप चढ़ने पर गंगा से लौटा करते हो, उस समय सारे समाज के बन्धनों को ताक पर रखकर इस नगर की स्त्रियाँ कुछ न कुछ कारण निकालकर भवनों के गवाक्ष खोलती हैं। केवल तुमको देखने के लिए।“

  “तुम यह क्या कह रहे हो अश्वत्थामा ? यदि यह सच है तो फ़िर आज से मुझको गंगा का मार्ग बदलना पड़ेगा।“

   “यह सच है कर्ण! वृषभ-जैसे तुरे पुष्ट कन्धे, गुड़हल के फ़ूल-जैसे लाल गाल, उन गालों पर तेरे कानों के कुण्डलों के पड़नेवाले नीले-से दीप्त-वलय, खड़्ग की धार की तरह सरल और नोकदार नासिका, धनुष के दण्ड की तरह वक्र और सुन्दर भौंहें, कटेरी के फ़ूल-जैसे नीलवर्ण नयन, थाली-जैसा भव्य कपाल, गरदन पर होते हुए कन्धे पर झूलनेवाले, महाराजों के मुकुट के स्वर्ण को भी लजानेवाले तुम्हारे सुनहले घने घुँघराले बाल और रथ के खम्भे-जैसे शरीर के कसे हुए सबल स्नायु – यह समस्त स्वर्गीय वैभव होने के कारण तुम भला किसे अच्छे नहीं लगोगे ?”

“अश्वत्थामन, मुझको विश्वास है कि सच बात कहने पर तुम क्रुद्ध नहीं होगे।“

“कहो, कर्ण !”

   “तुम्हारे पिताजी को क्यों इनमें से कोई बात कभी अच्छी नहीं लगी ? इन छह वर्षों में उनको और उनके लाड़ले अर्जुन को क्या यह मालूम है कि कर्ण कौन है, कहाँ है ?”

   “यह सत्य है, कर्ण ! लेकिन ऐसे तुम अकेले ही नहीं हो। शस्त्र-विद्या सीखने के उद्देश्य से निषध पर्वत पर से सैकड़ों योजन पार करके आये हुए निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र का – एकलव्य का – भी दुख यही है। तुम्हारे मन की बात सुनने के लिये कम से कम मैं तो हूँ यहाँ। परन्तु उस एकलव्य की मेरे पिताजी के बारे में क्या धारणा होगी, मैं सोच भी नहीं सकता। पिताजी ने क्यों ऐसा व्यवहार किया, यह मैं कैसे बताऊँ ? सभी पुत्र अपने पिता के अन्तरतम को नहीं जान सकते, वसु !”

   उसका उत्तर सहज सत्य था और इसीलिए वह मुझको अत्यन्त अच्छा लगा। अधिरथ पिताजी के मन में क्या-क्या कल्पनाएँ हैं, यह बात क्या मैं कभी जान सकता था ? अश्वत्थामा ने मुझको एकलव्य का समरण करा दिया, इससे कभी न देखे हुए लेकिन एक समदुखी के रुप में एकलव्य के प्रति मेरे मन में अनजाने ही एक प्रकार का अननुभूत आदर उत्पन्न हो गया।

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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३६ [कर्ण का तारुण्य… यौवन के रथ के पाँच घोड़े.… पुरुषार्थ, महत्वाकांक्षा, निर्भयता, अभिमान और औदार्य ]

     तारुण्य ! जवलन्त धमनियों का अविरत स्पन्दन । प्रकृति द्वारा मानव को प्रदत्त सबसे श्रेष्ठ वरदान। जीचन के नगर का एकमात्र राजपथ। प्रकृति के साम्राज्य का वसन्त, मन-मयूर के पूर्ण फ़ैले हुए पंख, विकसित शरीर-भुजंग का सुन्दर चितकबरा फ़न, भावनाओं के उद्यान का सुगन्धित केवड़ा, विश्वकर्ता के अविरत दौड़नेवाले रथ में सबसे शानदार घोड़ा, मनुष्य का गर्व से सिर उठाकर चलने का समय, कुछ न कुछ अर्जन करने का समय, शक्ति का और स्फ़ूर्ति का काल, कुछ न कुछ करना चाहिए, इस भावना को सच्चे अर्थों में प्रतीत कराने वाला काल।

    बचपन की सभी वस्तुओं का रंग हरा होता है। युवावस्था की सभी वस्तुओं का रंग गुलाबी और केसरिया होता है। युवक की दृष्टि की उडान क्षितिज को छूनवाले आकाश को भी पार कर जाती है। प्रत्येक गतिअमान और प्रकाशवान वस्तु की ओर उसका सहज सुन्दर खिंचाव होता है। जहाँ-जहाँ जो कुछ असम्भव होता है उसको सम्भव करने की अंगभूत तरंग उसमॆं होती है।

    आजकल मुझको अपनी ही, बचपन की और किशोरावस्था की, कुछ बातों पर हँसी आती थी। गंगा को गंगामाता कहनेवाला कर्ण, उसके किनारे पर उत्तरीय में सीपियाँ इकट्ठी करनेवाला कर्ण, गरुड़ की तरह आकाश में उड़ने की बात करनेवाला कर्ण, बालकों के आग्रह को स्वीकार कर राजा के रुप में पत्थर के सिंहासन पर बैठनेवाला कर्ण, अपने कुण्डल कैसे चमकते हैं – यह गंगा के पानी में निहारनेवाला कर्ण ! – कितनी प्रवंचना थी उस समय के आन्न्द में ! कितनी अन्धी थी उस समय की श्रद्धा ! कितना सन्देह ! कितना अज्ञान !

    यह सब धुँधला होता गया। काल के प्रहार ने सब कुछ ध्वस्त कर दिया। जीवन के रथ की वल्गाएँ युवावस्था के सारथी ने अपने हाथ में ले लीं। इस रथ में पाँच घोड़े होते हैं। पुरुषार्थ, महत्वाकांक्षा, निर्भयता, अभिमान और औदार्य।

     जो सामर्थ्यशाली होता है, वही है यौवन। प्रकाश कभी काला होता है क्या ? ऐसा सामर्थ्यशाली यौवन ही अपने साथ औरों का मान बड़ाता है।

   महत्वाकांक्षा तो युवक का स्थायी भाव है। मैं महान बनूँगा। परिस्थिति के मस्तक पर पैर रखकर मैं उसको झुका दूँगा, यह विचारधारा ही तरुण को ऊँचा उठाती है।

   निर्भयता तरुण के जीवन-संगीत का सबसे ऊँचा स्वर है। इस स्वर की भग्न और बिखरी हुई ध्वनि है भय। फ़टे बाँस की-सी ध्वनि भी कभी-कभी किसी को अच्छी लाती है। जग ऊँचे स्वर की तान सुनने को उत्सुक होता है, फ़टी हुई आवाज नहीं।

   अभिमान है युवावस्था का आत्मा। जिस मनुष्य में श्रद्धा नहीं है, वह मनुष्य नहीं है। और जिस तरुण में अभिमान नहीं है, वह तरुण नहीं है। तरुण मनुष्य अपनी श्रद्धाओं पर सदैव अभिमान करता है। समय आने पर उनके लिए प्राण तक देने को वह तैयार रहा करता है।

   और उदारता है यौवन का अलंकार। अपनी शक्ति का अन्य दुर्बलों के संरक्षण के लिये किया गया उपयोग। स्वयं जीवित रहकर दूसरों को जीने देने का अमूल्य साधन।

   ऐसी होती है तरुणाई। जहाँ यह होती है वहाँ अपमान से व्यक्ति चिढ़ता है। जहाँ यह होती है वहाँ अपने न्यायपूर्ण अधिकार पर किसी के आक्रमण से व्यक्ति क्रुद्ध हो उठता है। जहाँ यह होती है वहाँ यह अन्याय के पक्ष का उन्मूलन कर देती है। जहाँ यह होती है वहीं वास्तव में विजय होती है, वहीं प्रकाश होता है। प्रकाश न हो तो फ़िर अन्धकार ! अपमान का आलिंगन करने वाला अन्धकार ! पराजय के विष को अमृत समझकर पचा जानेवाला अन्धकार ! अन्याय का समर्थन करनेवाला अन्धकार ! आक्रमण से भयभीत होनेवाला अन्धकार !!

आज नेट पर तफ़री करते हुए गूगल वाली साड़ी दिखाई दी…. देखिये….

   आज नेट पर तफ़री करते हुए सत्यापाल की डिजाईन की हुई गूगल वाली साड़ी पहने हुए अदिति गोवित्रिकर दिखाई दी, साड़ी की खास बात साड़ी के किनार पर ऐड्रेस बार है फ़िर गूगल और फ़िर गूगल के सर्च के परिणाम..

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बचत खाते में औसत राशि का क्या मतलब होता है और इसकी गणना कैसे की जाती है ?? (What is Average Balance in Saving Account.. and calculations )

आजकल लगभग सभी बैंकों के बचत खातों में औसत राशि रखना होती है।
पहले यह न्यूनतम राशि होती थी। पर बैंकें यह औसत राशि की गणना कैसे करती हैं, आपको यह पता है, आईये देखते हैं –

औसत राशि – एक तिमाही में आपने रोज जो भी बैलेन्स अपने बचत खाते में रखा है, उस तिमाही के बैलेन्स का औसत औसत राशि होती है।

आईये एक उदाहरण द्वारा इसे देखते हैं –

मान लीजिये कि किसी बैंक में औसत राशि बचत खाते के लिये ५००० रुपये है एक तिमाही के लिये  –

जनवरी माह में –

१ जनवरी को खाते में बैलेन्स है ५००० रुपये।
५ जनवरी को सैलेरी जमा हुई २५००० रुपये तो बैलेन्स हुआ ३०००० रुपये।
१० जनवरी को खाते में से आपने २०००० रुपये निकाल लिये तो बैलेन्स हुआ १०००० रुपये।
१५ जनवरी को खाते में से फ़िर १०००० रुपये निकाल लिये तो बैलेन्स हुआ ० रुपये।

और अगर आप स्वीप इन खाते में क्या सुविधा होती है और इसे कैसे उपयोग करें देखें ।

पूरा लेख पढ़ने के लिये यहाँ चटका लगाईये ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३५ [युवराजों के कारनामे बताता कर्ण…]

     शाला के अन्य युवराज-शिष्यों की स्थिति इसके विपरीत थी। कृपाचार्य और द्रोणाचार्य दोनों का अत्यन्त लाड़ला था युवराज अर्जुन। वह अकेला ही क्यों प्रिय है, इसलिए युवराज दुर्योधन जान-बूझकर कोई अन्य कारण ढूँढ़कर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता। उसक पर्यावसान झगड़े में होता। अपने भाई को छेड़ने के कारण भीम को क्रोध आता। अपने क्रोध को वह कभी नहीं रोक पाता था। क्रोध से होंठ चबाता हुआ वह जो मिलता उसी पर टूट पड़ता। द्रोणाचार्य के भय से झगड़े की शिकायत कोई उन तक नहीं पहुँचाता था।

   एक बार तो यह सुना गया कि वे सब लोग मिलकर वनविहार के लिए नहर के बाहर गये थे। वहाँ जब भीम सो रहा था, तब दुर्योधन ने दु:शासन की सहायता से वनलताओम से उसके हाथ-पैर कसकर बाँधे और फ़िर उसको एक सरोवर में फ़ेंक दिया था। परन्तु भीम को कुछ नहीं हुआ। कहा जाता है कि उसको जल-देवताओं ने मुक्त कर दिया था।

   मुझको इस बात पर कभी विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि एक तो भीम को उन्होंने यदि इस प्रकार सरोवर में फ़ेंक दिया होता, तो निश्चय ही वह जीवित न रहा होता; क्योंकि सरोवर में जलदेवता नहीं होते हैं, वहाँ विशाल जबड़ोंवाले मत्स्य और क्रूर मगर होते हैं। और दूसरी बात यह कि सरोवर से बाहर आने पर तो भीम को यह पता चल ही जाता कि उसको जान से मारने का षड़यन्त्र रचा गया है। यह कार्य दुर्योधन के अतिरिक्त अन्य किसी का नहीं हो सकता है, यह जानकर उसने बाहर आते ही सबसे पहले अपनी गदा से उसका काम तमाम कर दिया होता। वह इसलिए कि भीम अपने क्रोध को कभी वश में नहीं कर पाता था। कोई कितना भी समझाता, वह उसको नहीं मानता और कोई कितनी ही सान्त्वना देता, उससे वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता था।

    युवराजों के झगड़े निपटाते समय और उनके पुरुषार्थ का वर्णन करने में आकाश-पाताल एक करते समय भला सारथी के दो लड़कों की ओर ध्यान देने के लिए किसके पास अवकाश होता ! इस प्रकार ये छह वर्ष बीत गये। सोलह वर्ष के किशोर का बाईस वर्ष के तरुण में रुपान्तर हो गया। इच्छा होने लगी कि साहस-भरे और चुनौती देनेवाले प्रत्येक कार्य को स्वीकार किया जाये।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३४ [कर्ण की अपने गुरु के प्रति श्रद्धा…..]

       काल के वायु के साथ ही ऐसे दिन और रात के अनेक सूखे-हरे पत्ते उड़ गये। प्रतिदिन प्रत्युषा में उठना, गंगा में जी भरकर डुबकियाँ लगाना, प्रात:काल से दोपहर तक, जबतक पीठ अच्छी तरह गरम न हो जाये, गंगा में रहकर ही सूर्यदेव की आराधना करना, दिन-भर युद्धशाला में शूल, तोमर, शतघ्नी, प्रास, भुशुण्डी, खड़्ग, गदा, पट्टिश आदि भिन्न-भिन्न प्रका के शस्त्र फ़िराना, समय अपर्याप्त लगने पर रात में शोण को लेकर पलीते के धूमिल प्रकाश में अचूक लक्ष्य-भेद करना और अन्त में सारे दिन की घटनाओं का चिन्तन करते हुए, कभी-कभी चम्पानगरी की स्मृतियाँ मन ही मन दुहराते हुए, सो जाना। इसी लीक पर चलते हुए छह वर्ष बीत गये।

      बचपन का वसु अब मन के प्रांगण में दौड़ नहीं लगाता था। चम्पानगरी का स्थान अब हस्तिनापुर ने ले लिया था। चम्पानगरी में गंगा के किनारे बालू में अंकित होनेवाले छोटे-छोटे पैर अब हस्तिनापुर की भूमि पर दृढ़ता से पड़ने लगे थे। काल का अजगर छह वर्ष निगल चुका था। छह बर्ष ! इन छह वर्षों में क्या हुआ और क्या नहीं हुआ, यह सब कहा जाये तो वह अलग ही कहानी बन जायेगी। इन छह वर्षों में मैं तो युद्धशाला का एक शिष्य मात्र था। यहाँ कभी किसी ने मेरे साथ शिष्य का-सा व्यवहार नहीं किया। द्रोणाचार्य की देख-रेख में कृपाचार्य के पथक में मेरा नाम था। उस पथक में हस्तिनापुर के सभी साधारण शिष्य थे। उन साधारण शिष्यों में मैं सबसे अधिक साधारण था। शिष्यों की भीड़ में कृपाचार्य अथवा द्रोणाचार्य ने कभी मुझसे पूछताछ नहीं की थी। और सच पूछो तो वे मुझसे कुछ पूछें, मेरी पीठ पर अपना हाथ फ़ेरें, यह इच्छा मेरे मन में भी कभी नहीं हुई। जब-जब शास्त्र का कोई कठिन दाँव मेरी समझ में न आता, तब तब मैं क्षण-भर आँखें बन्द कर अपने गुरु का – सूर्यदेव का – स्मरण करता और पल-भर में उस दाँव को समझकर अलग हट जाता, जैसे यक्षिणी ने जादू की छड़ी घुमा दी हो। श्रद्धा में बड़ी शक्ति होती है। किसी न किसी पर श्रद्धा रखे बिना मनुष्य जीवित ही नहीं रह सकता।

       शिष्यावस्था में मेरी सारी श्रद्धा अपने गुरु पर थी। भय से तो मेरा लेशमात्र भी परिचय नहीं था। परन्तु कभी-कभी मेरा मन केवल इसी बात के लिए विद्रोह कर उठता था कि शाला के ये दोनों गुरुदेव कभी मुझसे बात क्यों नहीं करते ? कर्ण को वे पत्थर का एक पुतला समझते हैं क्या ? प्यासे व्यक्ति को समुद्र में रहते हुए भी एक बूँद पानी पीने को नहीं मिले, मेरी दशा भी ऐसी ही हो जाती। अपने इन विचारों को मैं यदि किसी से प्रकट भी करता तो शोण के अतिरिक्त और था ही कौन मेरे पास ! मेर मन घुटता जा रहा था। बड़े लोग छोटों को अपने पास बुलाकर उनके दोष दिखायें तब तो ठीक है। लेकिन यदि उनकी उपेक्षा करें तो ?…तो उनके मन का अंकुर घुटने लगता है। फ़िर जहाँ उसको रास्ता मिलता है वहीं से वह बाहर निकलता है। इन छह वर्षों में मुझको क्या प्राप्त हुआ था ? घोर असह्य उपेक्षा। ज्वलन्त तिरस्कार। कर्ण नामक कोई एक शिष्य इस युद्धशाला में भी अपने आप ही बनय गया। कृपाचार्य और द्रोणाचार्य के प्रति आदर होने के बजाय शंका आ पैठी। मुझे ऐसा लगता कि वे मेरे नाममात्र के लिये गुरु हैं। जो शिष्यों के मन नहीं जानते हैं, वे कैसे गुरु ? जो प्रेम की फ़ूँक से शिष्यों के मन की कली प्रफ़ुल्लित नहीं करते, वे कैसे गुरु ? मेरा मन गुरु-प्रेम के लिए तरसता था। इसीलिए मैं प्रतिदिन अपने गुरु का हाथ अपनी पीठ पर तब तक फ़िरवाता था, जबतक कि पीठ गर्म नहीं हो जाती थी। हाँ तब तक सूर्यदेव को अर्ध्य देता रहता। नित्य इसी प्रकार तप्त होने के कारण मेरी पीठ प्रखर हो गयी थी।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३३ [द्वन्द्वयुद्ध के दाँव….]

     छह वर्षों का समय तो ऐसे उड़ गया जैसे पक्षियों का झुण्ड उड़ जाता है। उसका पता भी न चला। युद्धशास्त्र में कुछ भी सीखना शेष नहीं बचा। बल्कि मैंने और शोण ने रात में जो अतिरिक्त अभ्यास किया था, उसके कारण हमने प्रत्येक शास्त्र के कुछ ऐसे विशिष्ट कौशल सीख लिये थे जो केवल हम ही जानते थे। कुश्ती के अखाड़े में मैंने केवल लगातार परिश्रम ही नहीं किया, बल्कि एक ही समय चार-चार मल्लयुवकों के साथ मैंने कुश्ती भी लड़ी थी। न जाने क्यों व्यायाम करते समय मुझको थकावट कभी नहीं मालूम पड़ती थी। इसके विपरीत जैसे-जैसे मैं व्यायाम करता जाता वैसे ही वैसे मेरा शरीर तप्त होता जाता। कभी-कभी वह इतना तप्त हो जाता था कि मेरे साथ कुश्ती लड़नेवाले जोड़ीदार कहते, “कर्ण, सीधा जा और दो-चार घड़ी गंगा के पानी में अच्छी तरह डुबकी लगाकर पहले अपना शरीर थोड़ा ठण्डा कर उसके बाद ही हमको अपने साथ कुश्ती लड़ने के लिये बुला। यह तेरा शरीर है या रथ की प्रखर तप्त हाल ?”

     मेरे बाहुकण्टक दाँव से तो वे इतने घबराते कि उस दाँव को चलाने के लिए मैं जैसे ही चपलतापूर्वक अपने शरीर्को सक्रिय करने लगता, वे अपने-आप एकदम चित्त हो जाते । इस दाँव की एक विशेषता थी। प्रतिद्वन्द्वी की गरदन इस दाँव में जकड़ ली जाती थी। शरीर की सारी शक्ति हाथ में एकत्रित कर उसका दबाब धीरे-धीरे बढ़ाते जाने पर प्रतिद्वन्द्वी का दम घुटने लगता था और वह मर जाता था। उस समय उसके हाथ और पैर पीठ पर गट्ठर की तरह ऐसे बँध जाते थे कि गरदन पर रखे हाथ को हटाने की शक्ति उसमें होने पर भी वह उसको हटा नहीं पाता था। यह मेरा विशेष सुरक्षित दाँव था। और युद्धशास्त्र के नियम के अनुसार वह केवल द्वन्द्वयुद्ध के समय ही इतनी क्रूरता से प्रयोग में लया जा सकता था। द्वन्द्व का अर्थ एक ही था। उसमें दो योद्धाओं में से एक ही बचता था। इस युद्ध जब मरने के डर से शरण में आ ही जाता था, तो उसको जीवनदान मिलता था। परन्तु वह जीवनदान विधवा स्त्री के जीवन की तरह होता था। योद्धाओं के राज्य में इस प्रकार जीवनदान माँगनेवाले का मूल्य तिनके के बराबर भी नहीं होता है। ऐसे द्वन्द्वयुद्ध में काम आनेवाले सभी दाँव मैंने सीख लिये थे। परन्तु मेरा सबसे अधिक विश्वास एक ही दाँव पर था – बाहुकण्टक पर।

कविता की दो लाईनें जो मेरे परम मित्र ने मुझे सुझाई …. आईये इस कविता को पूरी करने में मेरी मदद करें…

    हमारे एक परम मित्र हैं जो अब हमारे सहकर्मी भी हैं, एक दिन हम ऐसे ही अंगड़ाई ले रहे थे, तो उन्होंने कुछ इस प्रकार से कह डाला –

मत लो अंगड़ाईयाँ 
वरना हम पर भी असर हो जायेगा

    हमने झट से ये लाईनें नोट कर लीं और कहा कि इसे पूरी कविता का रुप देते हैं परंतु हम यह कार्य न कर सके…. या सोच न सके… तो आज सोचा कि अपने हिन्दी ब्लॉग मंच पर ही कविता पूरी करने के लिये देते हैं शायद इन दो अच्छी लाईनों को कुछ अच्छे या बहुत अच्छे शब्द मिल जायें।