Tag Archives: संस्मरण

प्रात:भ्रमण के दौरान “मधुबन में राधिका नाचे रे, गिरधर की मुरलिया बाजे रे…”

    आज सुबह घूमने के दौरान कुछ पुरानी यादें ताजा हो गईं, घूमते हुए एक वृद्ध सज्जन के पास से निकले तो उनके जेब में रखे मोबाईल से गाना बज रहा था “मधुबन में राधिका नाचे रे, गिरधर की मुरलिया बाजे रे…”, हमें अपने घर की याद आ गई, क्योंकि हमारे पापा और मम्मी जी को भी यह गाना बहुत पसंद है, और मुझे भी, शास्त्रीय संगीत पर आधारित (मेरे ज्ञान के अनुसार) गाना लाजबाब है।

कोहिनूर (1960) फ़िल्म के इस  गाने का लुत्फ़ उठाईये –

अंधेरी में ज्ञान पाने के लिये मुंबई के २ २ मिनिट की कीमत बारिश के बीच जद्दोजहद …. विवेक रस्तोगी

    आज अंधेरी में जागोइन्वेसटर पाठक मिलन था, समय तय किया गया था सुबह १० बजे से दोपहर २ बजे तक । क्लास रुम का जितना भी खर्च आना था वह सबको साझा करना था। सही मायने में वित्तीय प्रबंधन शिक्षा के लिये यह मुंबई में शुरु किया गया एक प्रयास है। जागोइन्वेस्टर.कॉम ब्लॉग मनीष चौहान लिखते हैं।

   तो सुबह ९ बजे घर से निकल पड़े थे क्योंकि अंधेरी पहुँचने में पुरे ४५ मिनिट का अनुमान लगाया था। ९ बजे नहीं निकल पाये हम निकल पाये ९.०५ बजे घर से और हाईवे तक पैदल बस स्टॉप पर ९.०८ बजे पहुँच गये। वहाँ जाकर बोरिवली स्टेशन की बस पकड़ी, हमारा अनुमान था कि लगभग ९.१७ बजे तक हम बोरिवली स्टेशान पहुँच जायेंगे।

    बोरिवली से कांदिवली ३ मिनिट, कांदिवली से मालाड ४ मिनिट, मलाड से गोरेगांव ४ मिनिट, गोरेगांव से जोगेश्वरी ६ मिनिट और जोगेश्वरी से अंधेरी लगभग ३ मिनिट लगता है, याने कि बोरिवली से अंधेरी २० मिनिट लगते हैं।

  और फ़िर हमें टिकट भी लेना था क्योंकि हम रोज लोकल ट्रेन में तो जाते नहीं हैं, हमारे पास रेलकार्ड है, जिसे कि रेल्वे स्टेशन पर लगे टर्मिनल से फ़टाफ़ट टिकट लिया जा सकता है। हमने रिटर्न टिकट लिया मतलब बोरिवली से अंधेरी जाने का और वापस बोरिवली आने का।

    फ़िर वहीं लगे उद्घोषणा टीवी पर देखा कि ९.२१ की चर्चगेट स्लो तीन नंबर प्लेटफ़ॉर्म और ९.२५ की चर्चगेट फ़ास्ट दो नंबर प्लेटफ़ार्म पर थी। हम फ़टाफ़ट दौड़ते हुए २-३ प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँचे और ब्रिज से ही देखा कि ९.२१ की ट्रेन तो नदारद थी लगा कि चली गई परंतु भीड़ देखकर और इंडिकेटर पर ९.२१ का समय देखकर अंदाजा लगाया  कि ट्रेन लेट है। हमें तो अंधेरी तक ही जाना था तो हम ९.२५ की लोकल में चढ़ लिये।

  सेकंड क्लॉस के डिब्बे में बहुत दिन बाद चढ़े थे, अरे लोकल में ही बहुत दिनों बाद चढ़े थे और पीक समय था पर शनिवार होने के कारण चढ़ने को मिल गया था। अंदर घुसते ही पीछे से धक्का पड़ा और आवाज आई “अंदर दबा के चलो …. ” “भाईसाहब जरा धक्का मारकर !!!”, हम हाथ में छाता और अपनी किताब कापी पकड़े भीड़ में दुबके खड़े थे, जो गेट पर खड़े थे वो हर स्टॆशन पर दरवाजे की जनता का बराबर तरीके प्रबंधन कर रहे थे, “ए कांदिवली वालों को चढ़ने दे रे, जगह दे रे…”, “ऐ मालाड चलो आओ रे, ऐ इस तरफ़ से नहीं चढ़ने का” “ चल दबाके अंदर होले…”

    फ़िर जोगेश्वरी निकला और हम भी गेट के पीछे की भीड़ में लाईन में खड़े हो लिये और आगे वाले से पूछ कर आश्वस्त हो लिये “अंधेरी….” तो उसने धीरे गर्दन “हाँ” में हिला दी, और बाहर बारिश अपने पूरे जोरों से शुरु हो चुकी थी, ऐसी बारिश मुंबई के लिये थोड़ी अच्छी नहीं होती क्योंकि मुंबई में बारिश का पानी भर जाता है।

    जैसे ही अंधेरी स्टेशन आया तो आवाज आई “ऐ चल उड़ी मार उड़ी…” और जब तक ट्रेन स्टेशन पर रुकती तब तक तो हम भी प्लेटफ़ॉर्म पर थे। बारिश पूरे जोरों पर थी, हमने एक ओर पाठक से ९.४५ पर मिलना तय किया था, अंधेरी स्टेशन के एक्सिस बैंक के ए.टी.एम. के पास, वो हैं आशुतोष तिवारी जो कि हिन्दी ब्लॉगर भी हैं उनका ब्लॉग है मेरी अनुभूतियाँ । जोरों की बारिश में हम चल दिये अपने गंतव्य की ओर।

    वहाँ जाकर ४ घंटॆ कैसे निकल गये पता ही नहीं चला, गजेन्द्र ठाकुर जो कि सी.एफ़.पी. भी हैं, उन्होंने म्यूचयल फ़ंड पर इतनी अच्छी जानकारियाँ जुटाई थीं, कि समय का पता ही नहीं चला। अब अगली मीटिंग का दिन २८ अगस्त का है जिसमें एस.आई.पी., एस.टी.पी और एस.ड्ब्ल्यू.पी. पर जानकारी साझा की जायेगी।

मुंबई में हवस, हो सकता है कि गलती लड़्की की ही हो।

सीन १ – ऑफ़िस से निकलते हुए

    ऑफ़िस से निकले, गलियारे से होते हुए पैसेज में आये, वहाँ चार लिफ़्ट हैं बड़ी बड़ी, २५ लोग तो आराम से आ जायें इतनी बड़ी, पर हम साधारणतया: आते जाते समय सीढ़ियों का ही इस्तेमाल करते हैं, जिससे मन को शांति रहती है कि चलो कुछ तो व्यायाम हो गया। जैसे ही पैसेज में पहुँचे तो एक लिफ़्ट का इंडिकेटर नीचे जाने का इशारा कर रहा था, और हम लिफ़्ट के लोभ में उसमें सवार हो लिये।

    लिफ़्ट से नीचे जाते समय एक सुविधा होती है कि कोई न कोई पहले से रहता है तो ग्राऊँड फ़्लोर का बटन नहीं दबाना पड़ता है, जबकि इसके उलट ऊपर जाना हो तो बटन दबा है या नहीं अपने फ़्लोर का ध्यान रखना पड़ता है।

    जैसे ही लिफ़्ट में पहुँचे तो देखा कि एक लड़की पहले से थी, मोबाईल हाथ में और मोबाईल का हेंड्स फ़्री कान में लगा हुआ, किसी गाने का आनंद उठा रही थी, हमने एक नजर देखा और लिफ़्ट के कांच में अपने को निहारने लगे कि कितने मोटे हो गये हैं, बाल बराबर हैं या नहीं, तो ध्यान दिया कि वो लड़की टकाटक हमारी ओर देखे जा रही थी, बस हमें शरम आ गई, वैसे ये कोई विशेष बात नहीं है, विपरीत लिंगी आकर्षण में सब देखते हैं।

    पर मुंबई में लोगों की नजरें बहुत खराब होती हैं, आप नजर से पहचान सकते हैं कि साधारण तरीके से देख रहा है या हवस की नजर से, कोई भी कैसा भी हो बस हवस का शिकार होता है, फ़िर भले ही वो नजर की हवस हो या मन को तृप्त करने की।

सीन २ – बस को पकड़ने की जद्दोजहद

    हम सबकुछ भूलकर ऑटो लेने निकल पड़े, तो बस स्टॉप से होकर गुजरे थोड़ा आगे सिग्नल है लिंक रोड का, जिस पर शाम के समय लम्बा ट्राफ़िक रहता है, बसें एक के पीछे एक लगी रहती हैं, एक बस स्टॉप पर नहीं रुकी और एक लड़का और एक लड़की उस बस के पीछे दौड़ने लगे, क्योंकि आगे सिग्नल था और बस की गति कम थी और जैसे तैसे बस में सवार हो लिये, लड़के और लड़की ने जमकर सुनाई कंडक्टर को, इतने मॆं उसके पीछे वाली बस से एक लड़की उतरी और आगे वाली बस में चढ़ने की कोशिश में दौड़ने लगी, परंतु जब तक चढ़ पाती सिग्नल हरा हो गया और बस की गति तेज हो गई और इस चक्कर में वह चढ़ नहीं पाई।

    उसके बाद उसने बस न पकड़ पाने और अपनी नादानी में पहले तो अपना पैर पटका और फ़िर एक हाथ की हथेली पर दूसरे हाथ से मुक्का बनाकर बस न पकड़ पाने की असफ़लता प्रदर्शित की, जब उसे ध्यान आया कि वह सड़क पर यह कर रही है तो सकपकाकर आसपास देखा तो पाया कि हम उसकी गतिविधियों को देख रहे हैं, तो मुस्करा उठी और हम भी।

सीन ३ – हो सकता है कि गलती लड़्की की ही हो।

    ऑटो में घर जा रहे थे कि एस.वी.रोड मलाड पर एक नजारा देखा, मोटर साइकिल पर एक लड़का बैठा था और एक लड़की उसके पास में खड़ी थी, लड़के ने लड़की की सूट की कॉलर पकड़ रखी थी और दूसरे हाथ से घूँसा दिखा रखा था।

    तो ऑटो वाला बोला कि इस लड़के को लोग अभी जम कर पिटेंगे तभी इसको समझ में आयेगा। तो मैं बोला कि तुम ये क्यों सोचते हो कि लड़के की गलती होगी हो सकता है कि लड़की सड़क पर बीच में चल रही होगी और लड़का बाईक से गिरते हुए या उसकी दुर्घटना होने से बच गया होगा, इसलिये गुस्सा हो रहा होगा। ऑटो वाला बोला परंतु ऐसा थोड़े ही होता है।

    मैंने उसको बोला कि स्कूटर और ट्रक की टक्कर में लोग बेचारे ट्रक वाले को ही मारते हैं, क्यों क्योंकि स्कूटर छोटी गाड़ी है, पर गलती तो स्कूटर की भी हो सकती है ना !! तो बोलता है कि हाँ साहब बराबर बोलते हैं। हो सकता है कि गलती लड़्की की ही हो।

कुछ खरीदारी मैगी मसाला पास्ता, सी.एफ़.एल., पेस्ट्री, पढ़ने के लिये बच्चों को रिश्वत ? [एक सवाल]

   कल ऐसे ही घर से दोपहर के वक्त सामान लेने के लिये निकला अब हँसिये मत घर के लिये समान तो सब ही लाते हैं, बस एक दूसरे को बताते हुए शर्म खाते हैं, नहीं लाओ तो वीकेंड बर्बाद और पूरा वीक भी वीकेंड जैसा ही रहता है।

    सबसे पहले गये किराना दुकान पर, हमें बोला गया था कि मैगी का पास्ता मसाला मैनिया लाना है, हमने दुकानदार को वही बोला तो जबाब मिला कि मसाला मैनिया कुछ नहीं आता, मसाला  और कुछ अजीब सा नाम बोला तो हमने कहा कि यही दे दो २ पैकिट, ऐसा लग रहा था कि हमें ये सब चीजें पता न होने से यह लग रहा है कि हम आऊटडेटेड होते जा रहे हैं। फ़िर जेब से एकॉर के फ़ूड कूपन निकाले और कुछ चिल्लर निकालकर पेमेन्ट किया। वैसे तो और भी किराना स्टोर हैं परंतु यह सुपरबाजार जैसा है और अपने कस्बे के जैसा भी है, अगर ऑर्डर दो तो समान निकाल भी देता है, नहीं तो खुद नये जमाने के हिसाब से शॉपिंग कर लो अपनी बास्केट उठाकर।

    वहाँ से निकले तो हमें सी.एफ़.एल. लेनी थी, किराना पर पूछा तो बोला नहीं पास की दुकान पर मिलेगी, हम चल दिये अपना झोला उठाये, जी हाँ अपना झोला क्योंकि मुंबई में प्लास्टिक की पोलिथीन को प्रतिबंधित कर दिया गया है।

————— सी.एफ़.एल. के लिये हार्डवेयर की दुकान पर ———————————–

भैया, एक सी.एफ़.एल. देना,

“कितने वोल्ट की दूँ ?”,

हम बोले दे दो १२ वोल्ट की, पर ये बताईये कि इस पर कितनी गारंटी है,

“छ: महीने की”,

फ़िर हम बोले ओह मतलब जो फ़्यूज हुई है हम उसका आलरेडी ९ महीने ज्यादा इस्तेमाल कर चुके थे, मतलब १५०% का फ़ायदा।

“नहीं सा..ब वैसे तो यह ३००० घंटे चलती है और कई बार ३-४ साल भी चल जाती है, पर गारंटी छ: महीने की ही है”

ओह, अब हम याद करने लगे कि ये ३००० घंटे क्या हमारा परिवार पिछले १५ महीने में नहाता ही रहा होगा क्या ?

“वैसे आपको बाथरुम में लगानी है तो १२ वोल्ट की जगह ८ वोल्ट की लीजिये, लोग तो ५ वोल्ट की भी लगाते हैं”

हमने कहा चलो ८ वोल्ट की ही दे दो।

“टेस्ट कर देता हूँ”

फ़िर उसने सी.एफ़.एल. के ऊपर ही आज की तिथि और गारंटी खत्म होने की तिथि दोनों ही अंकित कर दीं।

——————————— मोजिनीज पर ———————————————-

    वहाँ से निकले किसी ओर दुकान के लिये परंतु वहीं मोजिनीज पेस्ट्री की दुकान दिख गई तो सोचा चलो कोई चॉकलेट वाली पेस्ट्री बेटेलाल के लिये ले लेता हूँ, क्योंकि कई दिनों से हमने पेस्ट्री नहीं खिलाई है, एक चॉकलेट फ़ुल्ली लोडेड वाली पेस्ट्री घर के लिये पैक करवा ली।

——————————स्टेशनरी की दुकान पर —————————————–

    मुंबई में लगभग सभी दुकानें मल्टी टास्किंग करती हैं, अपने नाम के अन्रुरुप तो समान मिलता ही है परंतु और भी समान मिल जायेगा, मसलन स्टेशनरी की दुकान पर प्लास्टिक का समान, फ़ोटोकॉपी, गेम्स सीडी और भी बहुत कुछ…

    हमारे बेटेलाल के एग्जामस शुरु होने वाले हैं सोमवार से और स्कूल में फ़ाईल को फ़्लोरोसेंट रेड कलर में कवर करके मंगाया गया है, तो कवर लेना था, खुद के लिये एक फ़ाईल लेनी थी, और जिलेटिन लेनी थी बेटेलाल की किताबों के लिये, स्कोर शीट में किताबें मैंटेन करने के भी ५ नंबर जो हैं।

    सड़क से ही एक लड़के ने दुकानदार से कुछ पूछा, दुकानदार ने कहा “है आ जाओ”, तो लड़के की मम्मी ने वहीं से कहा कि बेटा नहीं मिलेगा चलो कल देखेंगे । लड़का बोला नहीं मम्मी है चलो …. और वो जबरदस्ती खींचता हुआ मम्मी को दुकान में ले आया । लड़्के को गेम्स की सीडी चाहिये थी।

    दुकानदार ने ४-५ सीडी निकालकर दे दी और बोला कि सील मत खोलना, अगर सील खुल गई तो आपने खरीद ली है यह मान लिया जायेगा, हमने सोचा वाकई यहाँ पर सभी लोग कितने प्रोफ़ेशनल हैं, नहीं तो खरीददार का क्या है वो तो खोलकर देख ही लेगा । साथ में दुकानदार चेता भी रहा था, एक एक सीडी महँगी है, जिस गेम की लेनी हो वही लेना, ऐसा नहीं हो कि दूसरे गेम की ले जाओ और आपके पैसे फ़ालतू में खर्च हो जायें।

बात तो एकदम सही कह रहा था।

एक गेम की सीडी खरीद ली गई, और दुकानदार ने ३८० रुपये दाम बताया तो वे बोलीं कि इस पर तो ३९० लिखा है आपने बस इतना ही कम किया।

“नहीं मैंने कुछ कम नहीं किया है, देखिये ३८० रुपये ही लिखा है”

कुछ तो कम कीजिये ना अपनी तरफ़ से कुछ तो डिस्काऊँट दीजिये ??

“मैडम ये डिस्काऊँटेड प्राईस ही है”

तो वे अपने पर्स में खुल्ले तलाशने लगीं।

“५०० का नोट दे दीजिये मैं पूरी ईमानदारी से बाकी पैसे लौटाता हूँ”

उसका इतना बोलते ही हमें भी हँसी छूट गई।

    साथ में वे बोलती भी जा रही थीं – आज इसने पूरे ४ घंटे पढ़ाई की है, परसों से एग्जाम है, फ़िर अपने बेटे से भाव कर रही थीं कि यू गेट वन गेम सी.डी. एस आई प्रामिस्ड, नाऊ यू हैव टू रीड २ होवर्स मोर, ओनली ऑफ़्टर देट यू विल प्ले गेम  ओन कम्पयूटर ।

बेटा भी कुछ आरग्यूमेंट करता जा रहा था।

और वे माँ बेटे चले गये।

    फ़िर मैं दुकानदार से मुखतिब हुआ कि बताओ आजकल बच्चों को पढ़ाने के लिये भी रिश्वत देना पड़ती है, और हमारे जमाने में पूरा पढ़ लो तब भी जूते ही पढ़ते थे, ऐसे पढ़ाई करते हैं, याद तो पूरा है नहीं, ये सब करने से क्या फ़र्क पड़्ता है और भी बहुत कुछ [ मैं याद नहीं करना चाहता ..]

और आजकल बस कैसे भी करके पढ़ लें सिलेबस पूरा कर लें, याद है या नहीं, क्वालिटी है या नहीं उससे किसी को कोई मतलब नहीं है।

हमने भी अपना पेमेन्ट किया और घर चल दिये।

    सोच रहे थे कि हमारे बेटे ने भी तो आज जितना पढ़ाया उतना पढ़ लिया और ये पेस्ट्री कहीं हम भी रिश्वत के लिये ही तो नहीं ले जा रहे हैं, या फ़िर ये केवल पिता का प्यार है कि बेटेलाल ने बहुत दिनों से पेस्ट्री नहीं खाई है, पेस्ट्री देखकर ही खुश हो जायेगा, और बोलेगा –

“अरे वा डैडी, आप तो बहुत ही प्यारे हो, मैंने तो बहुत दिनों से पेस्ट्री नहीं खाई थी, मजा आ गया डैडी…”

सोच रहा हूँ…

वो १ मिनिट का दृश्य और उसके चेहरे का संतोष…

    वह बहुत तेजी से चावल खा रहा था, जिसमें शायद दाल और कुछ सब्जी मिली हुई थी, पीले रंग की पीतल की तश्तरी से बड़ा सा बर्तन था, उसके बाँहें जो कि साँवली नहीं नहीं काली ही थीं.. उसमें से मसल्स दिख रहे थे… गंदी मैली बनियान या शायद गंदे रंग की बनियान पहने हुआ.. और लुंगी को डबल कर मद्रासी श्टाईल में लपेट कर पहना हुआ था… चेहरे पर गजब का संतोष था.. समय शाम का था लगभग ६.३० बजे का.. चेहरे पर संतोष से ऐसा लग रहा था कि उसने आज जो भी काम किया है उससे वो संतुष्ट है और खुश है कि वह आज का कार्य पूरा कर सका। और यह तो शायद सभी ने महसूस किया होगा जिस दिन कार्य बराबर होता है तो भूख कुछ ज्यादा ही लगती है। दिमाग की किसी ग्रंथी का संबंध जरुर पेट से रहता है।
    यह दृश्य अपने कार्यालय से घर लौटते समय ऑटो से १ मिनिट से भी कम समय में हमने किसी घर में देखा, जो कि सड़क किनारे ही था। केवल १ मिनिट के दृश्य के लिये भी कभी कभी इंसान कितने ही दिन सोचने पर मजबूर हो जाता है।

कुछ गंभीर चिंतन [लेपटॉप, गर्मी, लेखन की विषयवस्तु, ब्लॉगरी, अधूरापन]

      सुबह कुछ लिखने का मन था, लेपटॉप खोला लिखने के लिये तो पता नहीं क्या समस्या उसमें आ गयी है, तो अब मन मारकर अपने बेटे के संगणक पर लिख रहे हैं, क्योंकि जो सुविधाजनक स्थिती हाथों की और टाईपिंग पेड की  होती है, वह संगणक (डेस्कटॉप) पर नहीं।


    गर्मी ऐसी हो रही है कि अच्छे अच्छों के पसीने छुटा दिये हैं, कहीं भी बाहर थोड़ी देर के लिये खड़े हो जाओ, तो शर्ट और बनियान के नीचे से पीठ पर रीढ़ की हड्डी के ऊपर, गर्दन से पसीने की धार बहने लगती है, और पूरे जिस्म पर चिपचिपानी गर्मी से चिलचिलाता पसीना, यहाँ तक कि सुबह नहाकर गुसलखाने से बाहर निकलो तो बाहर निकलते ही पसीने से नहा लो, नहाना न नहाना सब बराबर है। सुबह उठने के बाद की ताजगी पता नहीं कहां खो गई है।

    सुबह मन हुआ कि चलो कुछ इस विषय पर लिखा जाये जो कि सभी के काम आयेगा, परंतु तभी अखबार आ गया, तो उसमें उसी विषय पर जिन दोनों विषयों पर हम लिखने की सोच रहे थे, वही आलेख छपे थे, लगा कि इन अखबार वालों को भी लगता है कि ब्लॉगर्स के लिये लिखने को कुछ छोड़ना नहीं है, वैसे लिखने की तो हम ८-१० दिन से सोच रहे थे, परंतु व्यस्तता के कारण संभव न हो सका।

    अब सोच रहे हैं कि वापस नये सिरे से विषयवस्तु पर सोचा जाये और लिखा जाये, क्योंकि वित्तीय विषयों पर हिन्दी में लेखन बहुत ही कम है, जो कि आम जन को जागरुक बनाये। निवेश के मायने बताये।

    वैसे भी परेशानी बताकर तो आती नहीं है, जो काम हम चाहते हैं कि हो जाये तो अगर आसान काम भी होगा तो भी उसमें इतनी मुश्किलें आयेंगी, कि हम भी सोचेंगे कि वाकई जब समय खराब हो तो छोटी से छोटी मुश्किल भी बड़ी हो जाती है। वैसे एक बात और हम शायद उल्टा सोचते हैं, जब समय खराब होने की बातें कर रहे होते हैं, तो शायद समय अच्छा चल रहा होता है, क्योंकि अगर खराब होता तो बहुत कुछ खराब हो सकता था, परंतु कुछ नहीं हुआ। तो ये सोचकर शांति रखना चाहिये और संतुष्टि से जीवन बिताना चाहिये।

    वैसे भी आज के लेखन के विषय पर जो हमने सोचा था, हम उससे पथभ्रष्ट हो चुके हैं, जो विषय था वो तो मीठे सपनीले सपने के साथ ही खत्म हो गया, जब तक याद था तब तक हमारा निजी संगणक (लेपटॉप) ही नहीं खुला। अब भूल बिसार गये। जल्दी ही कुछ नई रचनाएँ लिखने की जरुरत है, जो हमारी उँगलियों की खुराक है।

    कल ही हमारी श्रीमतीजी ने बोला कि क्या हुआ आज संगणक नहीं खुला और ब्लॉगरी शुरु नहीं हुई, तो हमें अहसास हुआ कि हमारे साथ ही कुछ गलत है, क्यों मन उचाट हुआ जा रहा है, क्यों मन विमुख हुआ जा रहा है, लगता है जिंदगी में कुछ चीजें अधूरी हैं, अधूरेपन का अहसास होता है, इस रिक्तता की पूर्ति कैसे होगी पता नहीं ?

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ८ [बच्चों की चिल्लपों पूरी ट्रेन में, और एक ब्लॉगर से मुलाकात] आखिरी भाग

पहला भागदूसरा भाग, तीसरा भाग, चौथा भाग, पाँचवा भाग, छठा भाग, सातवां भाग

    ट्रेन में हमारे बेटेलाल को खेलने के लिये अपनी ही उम्र का एक और दोस्त अपने ही कंपार्टमेंट में मिल गया, और क्या मस्ती शुरु की है, दोनों एक से बढ़कर एक करतब दिखाने की कोशिश कर रहे थे। पूरा डब्बा ही बच्चों से भरा हुआ था, लग रहा था कि अभी स्कूल की छुट्टियाँ चल रही हैं।

    ट्रेन में बैठते ही हमारे बेटेलाल को भूख लगने लगती है चाय पीने की इच्छा होने लगती है, उस वक्त तो कुछ भी खिला लो पता नहीं उनके पेट में कौन घुसकर बैठ जाता है।

    बेटेलाल अपने दोस्त के साथ मस्ती में मगन थे, फ़िर शौक चर्राया कि अपर बर्थ पर जायेंगे, तो बस फ़ट से अपर बर्थ पर चढ़ लिये, उनके दोस्त के मम्मी और पापा हमसे कहते रहे कि अरे गिर जायेगा, हम बोले हमने ट्रेंड किया है चिंता नहीं कीजिये नहीं गिरेगा। तो बस उसकी देखा देखी उनके दोस्त भी अपर बर्थ पर जाने की जिद करने लगे, उनके पापा ने चढ़ा तो दिया पर उनका दिल घबरा रहा था, अपर बर्थ पर जाने के बाद तो दोस्त की भी हालत खराब हो गई, वो झट से नीचे आने की जिद करने लगा, तो बेटेलाल ने खूब मजाक उडाई। फ़िर वो भी नीचे आ गये आखिर उनके दोस्त जो नीचे आ गये थे। बस फ़िर रुमाल से पिस्टल बनाकर खेलना शुरु किया फ़िर तकिये से मारा मारी। एक और लड़का जो कि देहरादून से आ रहा था और इंदौर जा रहा था, बोला कि इन बच्चों में कितनी एनर्जी रहती है जब तक जागते रहेंगे तब तक मस्ती ही चलती रहती है और मुँह बंद नहीं होता। काश अपने अंदर भी अभी इतनी एनर्जी होती।

    खैर फ़िर खाना शुरु किया गया, और फ़िर बेटेलाल को पकड़ कर अपर बर्थ पर ले गये कि बेटा अब बाप बेटे दोनों मिलकर सोयेंगे। फ़िर उन्हें २-३ कहानी सुनाई पर सोने का नाम नहीं लिया, बोले कि लाईट जल रही है, पहले उसे बंद करवाओ, तो लाईट बंद करवाई फ़िर तो २ मिनिट भी नहीं लगे और सो लिये। हम फ़िर नीचे उतर कर आये और बर्थ खोलकर बेडरोल व्यवस्थित किया और बेटेलाल को मिडिल बर्थ पर सुलाकर, और अपने बेग की टेक लगा दी जिससे गिरे नहीं। और सोने चल दिये क्योंकि सुबह ५ बजे उज्जैन आ जाता है। रात को एक बार फ़िर नींद खुली तो देखा कहीं ट्रेन रुकी हुई है, पता चला कि ट्रेन ३ घंटे देरी से चल रही है, और किसी पैसेन्जर ट्रेन के लिये इस एक्सप्रेस ट्रेन को रोका गया है। हम फ़िर सो लिये सुबह छ: बजे हमारे बेटेलाल की सुप्रभात हो गई, और फ़िर चढ़ गये हमारे ऊपर कि डैडी उठो सुबह हो गई, उज्जैन आने वाला है देखा तो शाजापुर आने को अभी समय था, हमने कहा बेटा सोने दो और खुद भी सो जाओ या खिड़की के पास बैठकर बाहर के नजारे देखो। हम तो सो लिये पर बेटेलाल ने अपनी माँ की खासी परेड ली। सुबह साढ़े सात हमारे बेटेलाल फ़िर जोर से चिल्लाये डैडी उज्जैन आ गया, हमने कहा अरे अभी नहीं आयेगा, अभी तो कम से कम आधा घंटा और लगेगा, तो नीचे से हमारी घरवाली और आंटी दोनों बोलीं एक स्वर में “उज्जैन आ गया है”, अब तो हम बिजली की फ़ुर्ती से नीचे उतरे और फ़टाफ़ट समान उठाकर उतर लिये।

   प्लेटफ़ॉर्म नंबर ६ पर आने की जगह आज रेल्वे ने हम पर कृपा करके ट्रेन को प्लेटफ़ॉर्म नंबर १ पर लगाया था, तो हमारी तो बांछें खिल गईं, बस फ़िर बाहर निकले तो ऑटो करने की इच्छा नहीं थी, तांगे में जाने को जी चाह रहा था, पर एक ऑटो वाला पट गया, तो तांगे को मन मसोस कर छोड़ ऑटो में चल दिये।

    दो दिन जमकर नींद निकाली गय़ी यहाँ तक कि दोस्तों को भी नहीं बताया कि हम उज्जैन में हैं। फ़िर किसी तरह तीसरे दिन घर से निकले भरी दोपहर में दोस्तों से मिले फ़िर सुरेश चिपलूनकर जी से मिले और बहुत सारी बातें की। फ़िर चल दिये घर क्योंकि महाकाल जाना था, हमारा महाकाल जाने का प्रिय समय रात को ९.३० बजे का है, क्योंकि उस समय बिना भीड़ के अच्छे से दर्शन हो जाते हैं, और नदी भी अच्छी लगती है, रामघाट पर। फ़िर वहाँ कालाखट्टा बर्फ़गोला और आते आते छत्री चौक पर फ़ेमस कुल्फ़ी। उसके एक दिन पहले ही शाम परिवार के साथ घूमने गये थे तो पानी बताशे और फ़्रीगंज में फ़ेमस कुल्फ़ी खाई थी।

    चौथे दिन याने कि १९ मई को वापिस हमें मुंबई की यात्रा करनी थी और हम वापिस मुंबई चल दिये अवन्तिका एक्सप्रेस से, अपनी उज्जैन छोड़कर जहाँ हमारी आत्मा बसती है, जहाँ हमारे प्राण लगे रहते हैं, केवल पैसे कमाने के लिये इस पुण्य भूमि से दूर रह रहे हैं। बहुत बुरा लगता है। जल्दी ही वापिस उज्जैन जाने की इच्छा है, इस बारे में भी सुरेश चिपलूनकर जी से विस्तृत में बात हुई।

    मुंबई आते हुए भी बहुत सारी घटनाएँ हुई और लोग भी मिले परंतु कुछ खास नहीं, सुबह ५.३० पर ट्रेन बोरिवली पहुँच गय़ी और हम ऑटो पकड़कर १० मिनिट में अपने घर पहुँच गये। इस तरह हमारी लंबी यात्रा अंतत: सुखद रही।

कुल यात्रा २५२५ किलोमीटर की तय की गई।

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ७ [कुछ चित्र मेरी यात्रा के, धौलपुर, उज्जैन रामघाट, महाकाल नंदीगृह और विजयपथ उपन्यास]

धौलपुर के कुछ फ़ोटो, जो कि हमने रिक्शे पर से अपने नये मोबाईल से खींचे।
15052010(009) 15052010(005) 15052010(006) 15052010(007) 15052010(008) 

धौलपुर स्टेशन के कुछ और फ़ोटो जिसमें हमारे “लाल” लाल रंग के कपड़ों में नजर आ रहे हैं, इन्हें श्टाईल में फ़ोटो खिंचाने का बहुत शौक है।

15052010(014) 15052010(010) 15052010(011) 15052010(012) 15052010(013)

स्टेशन के कुछ फ़ोटो और ट्रेन में बैठने के बाद के कुछ फ़ोटो…

15052010(021)15052010(017) 15052010(018) 15052010(019) 15052010(020)

उज्जैन रामघाट के कुछ फ़ोटो, मतलब नदी किनारे, जहाँ सिंहस्थ पर पैर रखने की जगह नहीं होती है।

17052010(007) 17052010(003) 17052010(004) 17052010(005) 17052010(006)
17052010(011) 17052010(008) 17052010(009) 17052010(010)

महाकाल मंदिर उज्जैन के नंदीगृह में खींचा गया फ़ोटो

18052010(001)

विजयपथ उपन्यास जो कि इस बात उज्जैन प्रवास पर हमने पढ़ा। ओमप्रकाश कश्यप जी इसके लेखक हैं और आपका ब्लॉग भी है।

  19052010(005)

जारी ….

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ६ [मोबाईल का अलार्म, मवाली दंपत्ति की असलियत सामने आई]

    झांसी से ट्रेन चलने लगी, अब कंपार्टमेंट में हम तीन लोग ही बचे, मवाली दंपत्ति और मैं। मवाली श्रीमती जी के पास उनके मोबाईल पर फ़ोन पर फ़ोन आये जा रहे थे पर वे उठा नहीं रही थीं, इस पर वे उस मवाली से बोलीं कि देखो कितने फ़ोन आ रहे हैं, और मैं उठा भी नहीं सकती, तो लड़का बोला कि फ़ोन उठाकर बात तो कर ही लो, इस पर लड़की बोली कि फ़ोन उठाया तो ट्रेन की आवाज आयेगी और उनको पता चल जायेगा कि मैं तुम्हारे साथ ट्रेन में हूँ। सुबह किसी स्टेशन पर पहुँचकर फ़ोन करुँगी और बोल दूँगी कि फ़ोन नीचे कमरे में था और मैं छत पर घूम रही थी।
    हमने भी अपना खाना निकाल कर खाना शुरु कर दिया था और साथ में यह घटनाक्रम हो रहा था, अब तो हमें पक्का यकीन हो गया कि ये शादीशुदा नहीं हैं और ये लड़की इसके चक्कर में आ गई है, या पता नहीं कुछ और पर रात घिरने के साथ ही उनकी हरकतें बढ़ने लगीं। लड़का और लड़की इस तरीके से बैठे थे कि वे चेहरे को चूम सकें और चूम भी रहे थे, हम बेचारे खिड़की के बाहर अँधेरे में ट्रेन से मनोहारी दृश्य देख रहे थे।
    अपना खाना हो गया और हमने अपने बैग से चादर और तकिया निकाल लिया कि एकाध घंटा सो लिया जाये अब धौलपुर १ बजे के पहले तो नहीं आने वाला है, और अपने मोबाईल में अलार्म भी लगा लिया, ये जानते हुए भी कि अगर एक बार सो गये तो फ़िर अलार्म क्या कोई नहीं उठा सकता है, जब तक कि नींद पूरी नहीं हो जाये। चादर बिछाई, तकिये में हवा भरी और लोअर बर्थ पर ही सो लिये, मवाली दंपत्ति ओह माफ़ कीजियेगा अब दंपत्ति नहीं कहूँगा केवल मवाली कहूँगा, क्योंकि अब पता चल गया है कि वे दंपत्ति नहीं हैं, वे भी सोने की तैयारी करने लगे, लड़के ने चादर अपर बर्थ पर बिछा दी और लड़की सोने के लिये चली गई, लड़का बाहर सिगरेट फ़ूँकने।
    हमने उससे जाने से पहले बोला कि भई हमें ग्वालियर में उठा देना, नहीं तो पता नहीं कहाँ उतरेंगे। वो ओके बोलकर चल दिया। इसी दौरान हमारी आँख लग गई, थोड़ी देर मतलब कितनी देर वो हमें भी नहीं पता पर आँख थोड़ी से खुली तो देखा कि मवाली लड़का ऊपर बर्थ पर बैठा हुआ है और लड़की उसकी गोदी में सिर रखकर लेटी हुई है। मोबाईल पर बातें हो रहीं थीं और हाथ भी घूम रहे थे, हमने सोचा कि ये सब देखने से अच्छा है कि सो ही जायें, और वैसे भी हमारी आँखें खुलने का नाम नहीं ले रही थीं। हम फ़िर सो लिये।
    फ़िर आँख खुली तो पाया कि ट्रेन ग्वालियर में खड़ी है, और ये मवाली लोग अपने में ही मशगूल हैं, पर देखने लायक स्थिती में नहीं हैं, पता नहीं लोग घर पर ये सब क्यों नहीं करते हैं ? क्या ये आजादी सबको अच्छी लगती है ? ये प्रश्न खुद से था या किसी ओर से ये भी नहीं पता। क्योंकि इस तरह के दृश्य अवन्तिका एक्सप्रेस जो कि मुंबई से इंदौर चलती है आम होते हैं, कालेज से आई नये लड़के लड़कियों की फ़ौज किसी सोफ़्टवेयर कंपनी में रिक्रूट हुई होती है और जहाँ ३-४ दिन की छूट्टियाँ हुईं तो रिजर्वेशन की मारा मारी तो होती ही है, आरक्षित बर्थ कम होती हैं तो लड़के लड़कियाँ युगल बनाकर अपर बर्थ पर एक दूसरे से चिपककर सो जाते हैं, पता नहीं ये सब अपनी संस्कृति का कितना ध्यान रखते हैं, पर ये आजादी निश्चित ही ठीक नहीं है। हम इस संदर्भ में और कुछ लिखना नहीं चाह रहे हैं, इसलिये माफ़ी चाहते हैं, क्योंकि ये सब देखकर मन खिन्न हो जाता है, कि माँ बाप ने पता नहीं कितने अरमानों से इन लोगों को भविष्य संवारने के लिये यहाँ भेजा है और ये देखो पता नहीं क्या संवार रहे हैं।
    ग्वालियर में हम उठ कर बैठ गये क्योंकि अब हमारा सफ़र केवल ४५ मिनिट का था और हम सोने का खतरा मोल नहीं लेना नहीं चाहते थे, ट्रेन अपनी फ़ुल रफ़्तार से भागी जा रही थी और हम खिड़की के पास बैठकर बाहर से आती गरम हवा का लुत्फ़ ले रहे थे। डबरा निकला फ़िर आया मुरैना स्टेशन तो हमने भी फ़ोन करके बोला कि मुरैना निकल गया है स्टेशन लेने भेज दो, क्योंकि रात को १ बजे धौलपुर में स्टेशन से अकेले निकलना सुरक्षित नहीं रहता है, लूट होती ही रहती है। हालांकि हमारे पास ऐसा कुछ था नहीं परंतु डर तो डर ही होता है।
    हम अपना समान लेकर ट्रेन के दरवाजे के पास आ गये, वहाँ पर लोग अपनी चादर बिछाकर सोये हुए थे जिनको रिजर्वेशन नहीं मिला था, निकलने के लिये पूरी जगह छोड़ी हुई थी कि किसी को आने जाने में तकलीफ़ न हो। रात थी इसलिये चंबल की घाटियाँ दिख नहीं रही थीं पर हम उन्हें महसूस कर रहे थे, मैंने २-३ बार इन बीहड़ घाटियों को बहुत पास से देखा है, जहाँ प्रसिद्ध डाकुओं ने राज किया है, और आज भी बहुत डाकू हैं। फ़िर चंबल का पुल आया वहाँ से धौलपुर केवल ५ मिनिट का रास्ता होता है। आखिरकार ट्रेन स्टेशन पर रुकी और हम चल दिये घर की ओर अपने साले साहब के साथ।
    शाम को वापिस उज्जैन के लिये निकलना था, इसलिये बातचीत सुबह पर छोड़कर चुपचाप सो लिये। बातचीत होती रही, साथ हम सोते भी रहे थकान के कारण, दिन में कहीं मिलने जाना था तो २-३ घंटे बाजार में मिल भी आये। धौलपुर में तो अभी से ही दोपहर मॆं लू चलने लगी थी, बहुत दिनों बाद लू का अहसास हुआ था। शाम को हमारी ट्रेन ५.३० बजे थी देहरादून इंदौर, ३ ए.सी. में पहले से ही रिजर्वेशन था इसलिये निश्चिंत थे कि बस गर्मी थोड़ी देर और सहनी है। जब घर से निकले थे तब ट्रेन केवल ५ मिनिट लेट बतायी गयी थी, और धीरे धीरे पूरे ५० मिनिट लेट हो गयी। रेल्वे की संचार क्षमता पर हमें कोई शक नहीं परंतु कार्य करने वाले तो आदमी ही हैं ना, कितनी ही बार हमने इस बाबत झांसी मंडल में शिकायत भी की है, परंतु वही ढ़ांक के तीन पात। हर बार झांसी मंडल से एक पत्र आ जाता है कि शिकायत दुरुस्त की गई है, अब आगे से शिकायत नहीं होगी, अब तो खैर हमने शिकायत करना ही बंद कर दी है।



जारी….

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ५ [“जो भक्त हो आठ हाथों वाली का, उसका क्या बिगाड़ लेंगे ये दो हाथ वाले”]

    थोड़ी देर में ही विदिशा आया जो कि मेरी जन्मस्थली है, मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब मैं अपने होश में पहली बार विदिशा से मालवा एक्सप्रेस से ही निकला था तब मैंने ट्रेन से उतरकर विदिशा की माटी को अपने माथे पर लगाया था, पता नहीं बड़ी अजीब सी झनझनी आयी थी, कुछ लोग तो एकटक मुझे देखे जा रहे थे, पर मैं अपने में मशगूल मातृभूमि के प्रेम में मगन था।
    विदिशा में डॉक्टर साहब से कुछ लोग मिलने वाले आये थे,  इसलिये उनके मित्र डॉक्टर साहब पहले ही चले गये थे,  शायद उनके परिवार के ही थे और उनके ससुराल पक्ष के लग रहे थे, क्योंकि जितनी इज्जत लड़के को ससुराल पक्ष की ओर से मिलती है वह अपने पक्ष से नहीं, आखिर दामाद होता है, वे मिलने वाले खिड़की से ही मिल लिये २ लीटर की ठंडी बोतल भी दे गये।
    ललितपुर आने को था और हम लोगों की बातचीत अपने पूरे जोर पर थी, तभी वो मवाली लड़का बोला कि मैं वैष्णोदेवी जा रहा हूँ और अब तक लगभग ९० बार जा चुका हूँ, मैं देवी भक्त हूँ इसलिये गुजरात में भी देवी के मंदिर में भी जाता हूँ, नाम नहीं बताया कि कौन सा मंदिर, और फ़िर एक डॉयलाग कि “जो भक्त हो आठ हाथों वाली का, उसका क्या बिगाड़ लेंगे ये दो हाथ वाले”।
    मवाली श्रीमती जी के पास उनके मोबाईल पर फ़ोन पर फ़ोन आये जा रहे थे, और उनके चेहरे से उनकी परेशानी झलक रही थी सारे कॉल को मिस काल जान बूझकर करवाती जा रही थीं। और मुँह में ही कुछ गाली जैसा बुदबुदा रही थीं, खैर हमें तो इतना समझ में आया कि दाल में कुछ काला है और ये वैधानिक रुप से पति पत्नि नहीं हैं, क्योंकि उनकी हरकतें नये पति पत्नि से ज्यादा प्रेमी प्रेमिका की लग रहीं थी।
    ललितपुर गार्ड साहब को भी उतरना था और डॉक्टर साहब के दोस्त डॉक्टर साहब को भी, गार्ड साहब तो केवल ट्रेन के बाहर देखते और बिल्कुल सही समय बता देते कि अब केवल ३० मिनिट का रास्ता है, अब १५ मिनिट बचे हैं, हम उनसे बहुत प्रभावित हुए आखिर उन्होंने अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण वर्ष गार्ड की नौकरी करते हुए निकाले थे और उनको रास्ता याद नहीं होगा तो किसे होगा। थोड़ी देर बाद कहीं ट्रेन को रोक दिया गया, शायद आऊटर था, तो गार्ड साहब बोले कि ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं ललितपुर तो नहीं, अभी पिछले दो –तीन दिन से ललितपुर में इस समय लाईट नहीं रहती है, तो कई बार तो लोगों को पता ही नहीं चलता है कि ललितपुर आ गया है। खैर थोड़ी देर में ही ललितपुर आ गया, और हमारे पास वाली डॉक्टर दंपत्ति अपने डॉक्टर मित्र को विदा देने गये, तभी अचानक ट्रेन की खिड़की पर उतरने वाले डॉक्टर साहब हमसे हाथ मिलाने आये और बोले कि मिलकर बहुत खुशी हुई। वाह साहब केवल ट्रेन में कुछ देर बैठकर बातें करने से भी अच्छी दोस्ती हो जाती है।
    ट्रेन चल दी तो डॉक्टर दंपत्ति ने अपना खाना शुरु कर दिया, खाना हमारे पास भी था परंतु पेट भरा सा लग रहा था, इसलिये सोचा कि थोड़ी देर बाद खायेंगे। मवाली लड़का बहुत शेखी बघार रहा था कि अपने दोस्त तो भोपाल से लेकर झाँसी तक रहते हैं, खाना बाहर से आ जायेगा, और वो बेचारा अपने फ़ोन से फ़ोन खटकाते हुए परेशान हो गया परंतु दोस्त लोग तो सो रहे थे न क्योंकि उसके दोस्त भी निशाचर थे, जब फ़ोन आया तब गाड़ी विदिशा में खड़ी थी, तो वह बोला कि अब रहने दो मैं ट्रेन में ही खाने का आर्डर कर रहा हूँ। तो गार्ड साहब ने भी चुटकी ले ही ली थी, “कितना भी बड़ा भाई हो, परंतु भूख तो सभी को लगती है, और कभी कभी दोस्त भी काम नहीं आते हैं।” हम उसकी और देख रहे थे, वो खिसियाये जा रहा था, बेचारा कर भी क्या सकता था।
    झांसी रात को ९.३० का सही समय था ट्रेन का परंतु ट्रेन कुछ देरी से चल रही थी, डॉक्टर साहब अपने ससुराल किसी की शादी में जा रहे थे, और उनको लेने उनके साले साहब स्टेशन पर आ रहे थे, डॉक्टर दंपत्ति को ४-५ दिन रहना था और झांसी की गर्मी की सोच सोचकर ही आधे हुए जा रहे थे। क्योंकि हम भी झांसी की गर्मी झेल चुके हैं पूर्व में केवल ७ दिन में ही हालत खराब हो गयी थी। वे अपने साले साहब से लगातार फ़ोन पर संपर्क साधे हुए थे, ट्रेन लगभग १०.१५ पर झांसी आयी, हमने डॉक्टर दंपत्ति को विदा दी और उन्होंने कहा कि जब भी उज्जैन आयें मिलने जरुर आयें।