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कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ४१
की चाँदनी वाली रातें” इसमें कोई असंगति नहीं बैठती।
प्रेक्षा दिदृक्षा रम्येषु तच्चिन्ता त्वभीलाषक:।रागस्तासड़्गबुद्धि: स्यात्स्नेहस्तत्प्रवणाक्रिया॥तद्वियोगऽसहं प्रेम, रतिस्तत्सहवर्तनम़्।श्रृड़्गारस्तत्समं क्रीड़ा संयोग: सप्तधा क्रमात़्॥
कुन्दप्रसवशिथिलम़् – कुन्द पुष्प चमेली के पुष्प को कहते हैं, यह पुष्प शाम को खिलता है और प्रात:काल मुरझा जाता है; अत: महाकवि ने विरह पीड़ित प्राणों को प्रात:कालीन चमेली के पुष्पों के समान कहा है।
ते विद्युता विप्रयोग: मा भूत़् – विद्युत को मेघ की पत्नी बताया गया है। श्लोकार्द्ध में मेघ के प्रति मंगल कामना की गयी है कि वह अपनी प्रिया से क्षण भर के लिए भी वियुक्त न हो। वास्तव में यक्ष ने अपनी प्रिया से वियोग सहा है और वह जानता है कि वियोग कितना कष्टकारक होता है। इस प्रकार मेघदूत मार्मिक मंगल-वाक्य के साथ समाप्त होता है।
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-चार प्रहर होने चाहिये परन्तु विद्वानों के अनुसार रात के आदि और अन्त में आधे-आधे प्रहरों को दिन में ग्रहण किया गया जाता है। इस प्रकार रात्रि में तीन प्रहर और दिन में पाँच प्रहर बचते हैं।
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धातुरागै: शिलायाम़् – अपनी प्रिया का चित्र बनाने के लिये विरही यक्ष के पास कोई सामग्री जैसे कागज, पैंसिल, रंग आदि नहीं थी। इसलिये वहाँ सुलभ गेरु को रंग के स्थान पर तथा पत्थर को कागज के स्थान पर प्रयुक्त करके अपनी प्रिया का चित्र बनाया।
दृष्टिरालुप्यते – यक्ष विरह की अग्नि में अत्याधिक पीड़ित है, इसलिये वह अपनी प्रिया का चित्र बनाता है और अपने आप को भी उसके पैरों में गिरकर उसे मनाता हुआ चित्रित करना चाहता है, किन्तु आँसुओं की अविरल धारा के कारण वह ऐसा नहीं कर पाता, आँसुओं से उसकी दृष्टि लुप्त
हो जाती है। वस्तुत: यहाँ कालिदास द्वारा वर्णित करुणा अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी है।
स्वप्नसंदर्शनेषु – सोये हुए पुरुष के ज्ञान को स्वप्न कहते हैं। प्राय: देखा जाता है कि जो भाव दिन में हमारे मन में जागृत होते हैं और वे पूर्ण नहीं होते, वे स्वप्न में पूर्ण होते हैं। यक्ष की भी स्थिति ऐसी ही है कि वह प्रिया मिलन के लिये उत्कण्ठित है, परन्तु दिन में मिलन सम्भव नहीं, तब रात्रि में स्वप्न में आलिंगन के लिये भुजाएँ फ़ैलाता है, किन्तु वहाँ प्रिया कहाँ ? वहाँ तो शून्याकाश है। उसकी इस दयनीय दशा को देखकर वन देवियाँ भी रो पड़ती हैं। स्वप्नदर्शन विरहकाल में मनोविनोद के चार साधनों में से तीसरा है।
तरुकिसलयेषु – अश्रुबिन्दुओं का भूमि पर न गिरकर पत्तों पर गिरना साभिप्राय है; क्योंकि कहा जाता है कि महात्मा, गुरु और देवताओं का अश्रुपात भूमि पर होगा तो देशभ्रंश, भारी दु:ख और मरण भी निश्चय होगा।
तुषाराद्रिवाता : – वायु के मान्द्य, सौरभ और शीतलता ये तीन गुण होते हैं। हिमालय पर्वत की वायु में ये तीनों गुण पाये जाते हैं। ऐसी वायु को श्रंगार का उद्दीपक कहा जाता है। इसी कारण यह वायु विरही यक्ष को और अधिक उद्दीप्त करती है, जिस कारण उसे अपनी प्रिया की स्मृति हो आती है। वह इन पवनों को यह सोचकर स्पर्श करता है कि इन पवनों ने इससे पूर्व उसकी प्रिया के शरीर को भी स्पर्श किया है।
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के अर्थ में होता है और बड़ों के लिये “प्रशस्त जीवन वाले” अर्थ में होता है।
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याममात्रम़् – एक याम (प्रहर) तीन घण्टे के बराबर होता है। यक्ष ने यहाँ मेघ को एक याम तक प्रतीक्षा करने को कहा है; क्योंकि लक्षणों से यक्षिणी “पद्मिनी” मानी गयी है और पद्मिनी के सोने का समय एक या
म भर होता है। जैसे कि कहा गया है –
पद्मिनी यामनिद्रा च द्विप्रहरा च चित्रिणी।
हस्तिनी यामत्रितया घोरनिद्रा च शड़्खिनी॥
परंतु अन्य विद्वान लिखते हैं कि संभोग की परमावधि एक याम मानी गयी है। यक्षिणी भी पूर्ण यौवना है। उसकी भी स्वप्न में रतिक्रीड़ा एक याम तक चलेगी तब तक प्रतीक्षा करना।
स्वजलकणिकाशितलेन – इससे स्पष्ट होता है कि यक्ष-पत्नी कोई सामान्य स्त्री नहीं थी, वह स्वामिनी थी; क्योंकि स्वामी या स्वामिनियों के पैर दबाकर, पंखा झलकर, गाकर जगाना चाहिये। इसलिये यक्ष मेघ से निवेदन करता है कि वह उसकी प्रिया को शीतल जल कणों से, शीतल वायु से जगाये।
विधुद़्गर्भ: – मेघ वहाँ अपनी बिजली रुपी पत्नी को साथ लेकर जाये; क्योंकि मेघ के लिये परस्त्री के साथ अकेले बात करना उचित नहीं है (परनारीसंभाषणमेकाकिनो नोचितम़्)।
अविधवे – कवि ने यह पद साभिप्राय प्रयुक्त किया है; क्योंकि मेघ यक्षिणी को अविधवे कहकर संबोधित करेगा, जिससे यक्षिणी समझ जायेगी कि उसका पति जीवित है और वह मेघ की बात उत्साहित होकर सुनेगी।
यो वृन्दानि त्वरयति पथि श्राम्यतां प्रोषितानां – संस्कृत काव्यों में वर्षा का उद्दीपक के रुप में वर्णन किया गया है; इसलिए प्राय: यह वर्णन किया जाता है कि मेघ परदेश गये पतियों को घर लौटने के लिये प्रेरित करता है। प्राचीन काल में क्योंकि आवागमन के साधन नहीं थे और पैदल ही आते जाते थे तो पुरुष दीपावली के बाद अपनी जीविका के लिये चले जाते थे और फ़िर वर्षा ऋतु से पहले लौट आते थे, पैदल चलते-चलते जब वे थक जाते थे तो विश्राम करने लगते थे, किन्तु मेघों की घटाएं देखकर वे शीघ्रातिशीघ्र घर पहुँचने के लिये उत्कण्ठित हो उठते थे।
अबलावेणिमोक्षोत्सुकानि – प्रोषितभर्तृका स्त्री प्रिये के प्रवास के समय केशों को एक चोटी में गूँथ लेती थी जिसे प्रवास से लौटकर पति ही अपने हाथ से खोलता था।
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संन्यस्ताभरणम़् – विरहिणी स्त्रियों के लिए आभूषण पहनना निषिद्ध था; अत: यक्षिणी ने भी आभूषणों का त्याग कर दिया था।
पेशलम़् – इसमें पेलवं तथा कोमल यह पाठान्तर भी मिलते हैं। तीनों का ही अर्थ कोमल है। यक्ष मेघ से कहता है कि उसकी पत्नी अत्यधिक कोमल है, विरह की ज्वाला उसे जला
रही होगी, जिस कारण वह शय्या पर भी कठिनता से लेटती होगी।
नवजलमयम़् – यक्ष मेघ से कहता है कि विरहिणी यक्षिणी की दशा देखकर वह (मेघ) स्वयं भी रो पड़ेगा। किन्तु किसी को दु:खी देखकर रोना चेतन प्राणी का धर्म है, मेघ तो अचेतन है वह कैसे रोयेगा ? इसका उत्तर आर्द्रान्तरात्मा पद से कवि ने दिया है, जो चेतन के लिये कोमल ह्र्दय वाला तथा अचेतन के लिए द्रव रुप अन्त: शरीर वाला अर्थ देता है; अत: मेघ जल की बूँदों के रुप मे आँसू बहायेगा।
रुद्धापाड़्गप्रसरम़् – विरहिणी यक्षिणी ने विरह के प्रथम दिन ही बालों को गूँथा था, तबसे न गूँथने के कारण वे ढीले पड़ गये हैं, जिससे वे बाल उसके नेत्रों पर लटक गये हैं, जिससे वह पूरी तरह से नहीं देख पाती।
विस्मृत भ्रूविलासम़् – भौंहो के मटकाने को भ्रूविलास कहते हैं। पति वियोग में यक्षिणी ने मद्य-पान छोड़ दिया था, इसलिए उसकी चञ्चलता तथा मस्ती समाप्त हो गयी थी तथा चञ्चलता के अभाव में बह भौंहो को मटकाना भी भूल गयी थी।
उपरिस्पन्दिनयनम़् – नयन से यहाँ बायाँ नेत्र अभीष्ट है; क्योंकि स्त्री की बायीं आँख फ़ड़कना अच्छा शकुन माना जाता है, जबकि पुरुष की दायीं आँख। और आँख का ऊपर के हिस्से में फ़ड़कना इष्ट प्राप्ति का लक्षण कहा गया है।
वामश्चास्या: उरु: – निमित्त निदान के अनुसार स्त्रियों की बायीं जंघा का फ़ड़कना रति सुख की प्राप्ति तथा दोनों जंघाओं का फ़ड़कना वस्त्र प्राप्ति का सूचक है। यक्षिणी की वाम जंघा का फ़ड़कना यह सूचित करता है कि शीघ्र ही उसे रति सुख की प्राप्ति होगी।
करुहपदै: – नायक संभोग काल में नायिका के ऊरु में नखक्षत करता है।
सम्भोगान्ते – कामशास्त्र के अनुसार रतिक्रीड़ा के अन्त में नायक का नायिका की रतिजन्य थकान को दूर करने के लिये चरण दबाना, पंखा झलने आदि का विधान है।
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से और यक्ष-पत्नी की कलामात्र शेष चन्द्रमा की मूर्ति से तुलना की गयी है।
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ले रही है। काम की दश अवस्थायें मानी गयी हैं यहाँ कवि ने तीसरी अवस्था का उल्लेख किया है। यहाँ सड्कल्पावस्था का वर्णन किया गया है।
(१) यक्षिणी रात्रि में अपने प्रियतम के ध्यान में इतनी मग्न हो जाती है कि उसे अपने शारीरिक कष्ट का ध्यान नहीं रहता और वह करवट तक नहीं बदलती।
(२) वह विरह में इतनी दुर्बल हो गयी है कि करवट बदलने की सामर्थ्य ही उसमें नहीं रही हो; अत: सारी रात एक ही करवट से पड़ी रहती है।
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दर्शन, ४.प्रिय के अंग से स्पृष्ट पदार्थों का स्पर्श करना।
षड्जमध्यमनामानौ ग्रामौ गायन्ति मानवा:।न तु गान्धारनामानं स लभ्यो देवयोनिभि:॥