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“कालिदास और मेघदूतम के बारे में” श्रंखला खत्म, आपके विचार बतायें

                   यह कड़ी कालिदास और मेघदूतम के बारे में की आखिरी कड़ी थी। कृप्या बतायें क्या आगे भी इसी तरह की कुछ और किताबों पर कड़ियां पढ़ना पसंद करेंगे तो मैं उस की तैयारी करता हूँ। अभी पढ़ी गई किताबों में है त्रिविक्रमभट्ट रचित “नलचम्पू” और शिवाजी सामंत की “मृत्युंजय”। पढ़ना जारी है – “Rich Dad Poor Dad”, पढ़ने के इंतजार में हैं “The Alchemist”|

दीपों के त्यौहार दीपावली पर आप सब को बहुत बहुत शुभकामनाएँ।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ४१

परिणतशरच्चन्द्रिकासु – भारतवर्ष में छ: ऋतुओं होती हैं। उसमें शरद का समय अश्विन और कार्तिक मास होता है, जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि यक्ष के शाप का अन्त कार्तिक शुक्ल एकादशी को होगा तभी उसका अपनी प्रिया से मिलना सम्भव होगा, तब शरद ऋतु का ढलना स्वाभाविक ही है। क्योंकि कार्तिक की समाप्ति पर शरद़् भी समाप्त हो जाती है इसलिए कवि का कथन कि “ढली हुई शरद़् ऋतु

की चाँदनी वाली रातें” इसमें कोई असंगति नहीं बैठती।


सान्तर्हासम़् – यक्षिणी ने किसी रात सोते समय स्वप्न में यक्ष को किसी अन्य रमणी के साथ रमण करते देखा, तो वह एक दम जाग जाती है और यह देखकर कि उसे वह अपने गले लगाये हुए है तो कुछ लज्जित-सी होती है और अपनी गलती पर मन ही मन हँसी भी आती है।

कितव – जो नायक किसी अन्य में अनुरक्त हो और प्रकृत नायिका में भी बाहरी तौर पर अनुराग दिखलाये और गुप्तरुपेण उसका अप्रिय करे वह शठ कहलाता है। यहाँ यक्षिणी  स्वप्न में यक्ष को किसी अन्य स्त्री के साथ देखकर उसे कितव (शठ) कहकर सम्बोधित करती है।

अभिज्ञानदानात़् – अभीज्ञान कहते हैं पहिचान का चिह्न अथवा निशानी। यक्ष मेघ को अभिज्ञान के रुप में एक ऐसा रहस्य बताता है जो यक्ष और यक्षिणी को ही पता है, उस रहस्य को सुनकर यक्षिणी जान जायेगी कि इस मेघ को यक्ष ने ही भेजा है।

उपचितरसा: प्रेमराशीभवन्ति – वियोग में अभिलाषा के बढ़ जाने पर स्नेह प्रेम के रुप में परिणत हो जाता है। रसरत्नाकार में संयोग की दर्शन, अभिलाषा, राग, स्नेह, प्रेम, रति और श्रृंगार ये सात अवस्थाएँ पृथक पृथक स्पष्ट की हैं –
प्रेक्षा दिदृक्षा रम्येषु तच्चिन्ता त्वभीलाषक:।
रागस्तासड़्गबुद्धि: स्यात्स्नेहस्तत्प्रवणाक्रिया॥
तद्वियोगऽसहं प्रेम, रतिस्तत्सहवर्तनम़्।
श्रृड़्गारस्तत्समं क्रीड़ा संयोग: सप्तधा क्रमात़्॥
अर्थात सुन्दर पदार्थ को देखने की इच्छा को प्रेक्षा, सुन्दर पदार्थ को पाने की चिन्ता को अभिलाष, सुन्दर पदार्थ के साथ संसर्ग की बुद्धि को राग, उसके लिए कार्य करने को स्नेह, उस पदार्थ के साथ होने वाले वियोग को न सहने को प्रेम, अभीष्ट पदार्थ के साथ रहने को रति और उसके साथ क्रीड़ा को श्रृंगार कहते हैं।



कुन्दप्रसवशिथिलम़् – कुन्द पुष्प चमेली के पुष्प को कहते हैं, यह पुष्प शाम को खिलता है और प्रात:काल मुरझा जाता है; अत: महाकवि ने विरह पीड़ित प्राणों को प्रात:कालीन चमेली के पुष्पों के समान कहा है।


ते विद्युता विप्रयोग: मा भूत़् – विद्युत को मेघ की पत्नी बताया गया है। श्लोकार्द्ध में मेघ के प्रति मंगल कामना की गयी है कि वह अपनी प्रिया से क्षण भर के लिए भी वियुक्त न हो। वास्तव में यक्ष ने अपनी प्रिया से वियोग सहा है और वह जानता है कि वियोग कितना कष्टकारक होता है। इस प्रकार मेघदूत मार्मिक मंगल-वाक्य के साथ समाप्त होता है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ४०

दीर्घयामा – यद्यपि यक्ष ने मेघ को सन्देश ग्रीष्म ऋतु के आषाढ़ मास में दिया है जबकि रात्रियाँ छोटी होती हैं, किन्तु विरहावस्था में जागरण व चिन्ता के कारण रात्रियाँ लम्बी प्रतीत होती हैं। इसलिए यक्ष की यह इच्छा कि रात्रि किसी तरह छोटी हो जाये, स्वाभाविक थी।

त्रियामा – रात्रि के तीन प्रहर माने हैं। एक प्रहर तीन घंटे का होता है। दिन और रात में आठ प्रहर माने जाते हैं। इस कारण दिन और रात्रि दोनों में चार

-चार प्रहर होने चाहिये परन्तु विद्वानों के अनुसार रात के आदि और अन्त में आधे-आधे प्रहरों को दिन में ग्रहण किया गया जाता है। इस प्रकार रात्रि में तीन प्रहर और दिन में पाँच प्रहर बचते हैं।


बहु विगणयन – जो व्यक्ति दु:ख में अपना धैर्य नहीं खोता, वह दु:ख के समय यह विचार करके कि आगे चलकर सुख प्राप्त होगा तो मैं ये-ये करुँगा, ऐसा सोचता रहता है। यही स्थिति यक्ष की है। वह भी शाप की समाप्ति पर जब अपनी प्रिया से मिलेगा तो उस समय क्या क्या करना है, ये योजनाएँ बनाता हुआ विरहकाल व्यतीत कर रहा है।

चक्रनेमिक्रमेण – इस पद से कवि ने लौकिक सत्य का उद़्घाटन किया है। जिस प्रकार रथ जब चलता है तो पहिये का किनारा जो भूमि को स्पर्श करता है, वह ऊपर चला जाता है और जो ऊपर होता है वह घूमते हुए नीचे आ जाता है। वैसे ही मनुष्यों की दशा में भी सुख, दु:ख आते हैं- कभी सुख आता है, तो कभी दु:ख।

भुजगशयनादुत्थिते – भारतीय परम्परा के अनुसार भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी को शेषनाग शय्या पर क्षीरसागर में सोते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को उठते हैं। इस एकादशी को क्रमश: हरिशयनी एकादशी तथा हरिप्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। लोकभाषा में इन्हें देव सोनी ग्यास और देव उठानी ग्यास भी कहते हैं। इनके बीच के समय को “देव सोना” कहा जाता है। इसमें विवाहादि शूभ कार्य नहीं किया जाता उस समय भगवान की पूजा करनी चाहिये।

विरहगणितम़् – विरह काल में व्यक्ति अनेक बातें सोचता है कि अपने प्रिय अथवा प्रिया के मिलने पर ऐसे मिलूँगा, ऐसे रुठूँगा, ऐसे मनाऊँगा आदि। यक्ष व यक्षिणी भी यही सब बातें सोच रहे हैं कि मिलने पर वे इन्हें पूरी करेंगे।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ३९

धातुरागै: शिलायाम़् – अपनी प्रिया का चित्र बनाने के लिये विरही यक्ष के पास कोई सामग्री जैसे कागज, पैंसिल, रंग आदि नहीं थी। इसलिये वहाँ सुलभ गेरु को रंग के स्थान पर तथा पत्थर को कागज के स्थान पर प्रयुक्त करके अपनी प्रिया का चित्र बनाया।


दृष्टिरालुप्यते – यक्ष विरह की अग्नि में अत्याधिक पीड़ित है, इसलिये वह अपनी प्रिया का चित्र बनाता है और अपने आप को भी उसके पैरों में गिरकर उसे मनाता हुआ चित्रित करना चाहता है, किन्तु आँसुओं की अविरल धारा के कारण वह ऐसा नहीं कर पाता, आँसुओं से उसकी दृष्टि लुप्त
हो जाती है। वस्तुत: यहाँ कालिदास द्वारा वर्णित करुणा अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी है।


स्वप्नसंदर्शनेषु – सोये हुए पुरुष के ज्ञान को स्वप्न कहते हैं। प्राय: देखा जाता है कि जो भाव दिन में हमारे मन में जागृत होते हैं और वे पूर्ण नहीं होते, वे स्वप्न में पूर्ण होते हैं। यक्ष की भी स्थिति ऐसी ही है कि वह प्रिया मिलन के लिये उत्कण्ठित है, परन्तु दिन में मिलन सम्भव नहीं, तब रात्रि में स्वप्न में आलिंगन के लिये भुजाएँ फ़ैलाता है, किन्तु वहाँ प्रिया कहाँ ? वहाँ तो शून्याकाश है। उसकी इस दयनीय दशा को देखकर वन देवियाँ भी रो पड़ती हैं। स्वप्नदर्शन विरहकाल में मनोविनोद के चार साधनों में से तीसरा है।


तरुकिसलयेषु – अश्रुबिन्दुओं का भूमि पर न गिरकर पत्तों पर गिरना साभिप्राय है; क्योंकि कहा जाता है कि महात्मा, गुरु और देवताओं का अश्रुपात भूमि पर होगा तो देशभ्रंश, भारी दु:ख और मरण भी निश्चय होगा।


तुषाराद्रिवाता : – वायु के मान्द्य, सौरभ और शीतलता ये तीन गुण होते हैं। हिमालय पर्वत की वायु में ये तीनों गुण पाये जाते हैं। ऐसी वायु को श्रंगार का उद्दीपक कहा जाता है। इसी कारण यह वायु विरही यक्ष को और अधिक उद्दीप्त करती है, जिस कारण उसे अपनी प्रिया की स्मृति हो आती है। वह इन पवनों को यह सोचकर स्पर्श करता है कि इन पवनों ने इससे पूर्व उसकी प्रिया के शरीर को भी स्पर्श किया है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ३८

पवनतनयम़् – हनुमान के पिता का नाम पवन तथा माता का नाम अञ्जना था; इसलिए हनुमान को पवनपुत्र, वायुपुत्र, मारुति, आञ्जनेय भी कहते हैं। उन्होंने सौ योजन समुद्र को लाँघकर सीता का पता  लगाकर उन्हें राम की अँगूठी दी। जैसा व्यवहार हनुमान को देखकर सीता जी ने किया वैसा ही तुम्हें देखकर मेरी पत्नी करेगी। सीता और हनुमान को उपमान के रुप में प्रस्तुत करने से यक्ष-पत्नी का पातिव्रत्य और मेघ के दूत के गुण अभिव्यक्त होते हैं।

आयुष्मान – यक्ष ने मेघ को छोटा भाई माना है; इसलिये मेघ को आयुष्मान संबोधित करता है। छोटों के लिये आयुष्मान का प्रयोग दीर्घजीवी

के अर्थ में होता है और बड़ों के लिये “प्रशस्त जीवन वाले” अर्थ में होता है।


अड़्गेनाड़्गम़् – इसके द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि यक्ष और यक्षिणी दोनों की ही शारीरिक और मानसिक स्थिती एक जैसी है। दोनों ही दुर्बल हो गये हैं, संतप्त हैं और आँसू बहाते हैं, मिलने के लिये व्याकुल हैं, आहें भरकर नम का दु:ख कुछ कम करते हैं। यक्ष तो वहाँ सामने ही स्थित है और वह अपनी प्रिया की भी वैसी ही कल्पना करता है।

तै: सड़्कल्पै: – वे-वे मनोरथ जिनका यक्ष ने संभोगकाल में अनुभव कर रखा था और वे मनोरथ अब उससे ह्रदय में विरह के कारण जागृत हो रहे हैं।

आननस्पर्शलोभात़् – इससे यह भाव झलकता है कि यक्ष को अपनी पत्नी से इतना अधिक प्रेम था कि उसके शरीर के स्पर्श के लिये कोई ना कोई बहाना ढूँढता रहता था और जो बात सबके सामने कह सकता, उसे धीरे से उसके कान में कहता था, जिससे उसके अंगों को स्पर्श करने का अवसर मिल जाये।

चण्डि – विप्रलम्भ श्रंगार निम्न भेदों से चार प्रकार का होता है – पूर्वराग, मान, प्रवास तथा करुण । मान कोप को कहते हैं जो प्रणय से अथवा ईर्ष्या  से उत्पन्न होता है। पति के अन्य स्त्री में आसक्ति देखकर या सुनकर स्त्रियों को ईर्ष्याजन्य मान होता है। यहाँ चण्डि पद से यह भाव झलकता है कि मैं तुम्हारे अंगों की समानता अन्य वस्तुओं में देखने का प्रयत्न कर रहा हूँ, इसलिये तुम कुपित हो जाओगी, किन्तु तुम्हारे कुपित होने की कोई बात नहीं है; क्योंकि उन वस्तुओं में किसी में भी तुम्हारी समानता नहीं मिलती।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ३७

याममात्रम़् – एक याम (प्रहर) तीन घण्टे के बराबर होता है। यक्ष ने यहाँ मेघ को एक याम तक प्रतीक्षा करने को कहा है; क्योंकि लक्षणों से यक्षिणी “पद्मिनी” मानी गयी है और पद्मिनी के सोने का समय एक या
म भर होता है। जैसे कि कहा गया है –

पद्मिनी यामनिद्रा च द्विप्रहरा च चित्रिणी।
हस्तिनी यामत्रितया घोरनिद्रा च शड़्खिनी॥

परंतु अन्य विद्वान लिखते हैं कि संभोग की परमावधि एक याम मानी गयी है। यक्षिणी भी पूर्ण यौवना है। उसकी भी स्वप्न में रतिक्रीड़ा एक याम तक चलेगी तब तक प्रतीक्षा करना।


स्वजलकणिकाशितलेन – इससे स्पष्ट होता है कि यक्ष-पत्नी कोई सामान्य स्त्री नहीं थी, वह स्वामिनी थी; क्योंकि स्वामी या स्वामिनियों के पैर दबाकर, पंखा झलकर, गाकर जगाना चाहिये। इसलिये यक्ष मेघ से निवेदन करता है कि वह उसकी प्रिया को शीतल जल कणों से, शीतल वायु से जगाये।


विधुद़्गर्भ: – मेघ वहाँ अपनी बिजली रुपी पत्नी को साथ लेकर जाये; क्योंकि मेघ के लिये परस्त्री के साथ अकेले बात करना उचित नहीं है (परनारीसंभाषणमेकाकिनो नोचितम़्)।


अविधवे – कवि ने यह पद साभिप्राय प्रयुक्त किया है; क्योंकि मेघ यक्षिणी को अविधवे कहकर संबोधित करेगा, जिससे यक्षिणी समझ जायेगी कि उसका पति जीवित है और वह मेघ की बात उत्साहित होकर सुनेगी।


यो वृन्दानि त्वरयति पथि श्राम्यतां प्रोषितानां – संस्कृत काव्यों में वर्षा का उद्दीपक के रुप में वर्णन किया गया है; इसलिए प्राय: यह वर्णन किया जाता है कि मेघ परदेश गये पतियों को घर लौटने के लिये प्रेरित करता है। प्राचीन काल में क्योंकि आवागमन के साधन नहीं थे और पैदल ही आते जाते थे तो पुरुष दीपावली के बाद अपनी जीविका के लिये चले जाते थे और फ़िर वर्षा ऋतु से पहले लौट आते थे, पैदल चलते-चलते जब वे थक जाते थे तो विश्राम करने लगते थे, किन्तु मेघों की घटाएं देखकर वे शीघ्रातिशीघ्र घर पहुँचने के लिये उत्कण्ठित हो उठते थे।


अबलावेणिमोक्षोत्सुकानि – प्रोषितभर्तृका स्त्री प्रिये के प्रवास के समय केशों को एक चोटी में गूँथ लेती थी जिसे प्रवास से लौटकर पति ही अपने हाथ से खोलता था।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ३६

संन्यस्ताभरणम़् – विरहिणी स्त्रियों के लिए आभूषण पहनना निषिद्ध था; अत: यक्षिणी ने भी आभूषणों का त्याग कर दिया था।


पेशलम़् – इसमें पेलवं तथा कोमल यह पाठान्तर भी मिलते हैं। तीनों का ही अर्थ कोमल है। यक्ष मेघ से कहता है कि उसकी पत्नी अत्यधिक कोमल है, विरह की ज्वाला उसे जला
रही होगी, जिस कारण वह शय्या पर भी कठिनता से लेटती होगी।


नवजलमयम़् – यक्ष मेघ से कहता है कि विरहिणी यक्षिणी की दशा देखकर वह (मेघ) स्वयं भी रो पड़ेगा। किन्तु किसी को दु:खी देखकर रोना चेतन प्राणी का धर्म है, मेघ तो अचेतन है वह कैसे रोयेगा ? इसका उत्तर आर्द्रान्तरात्मा पद से कवि ने दिया है, जो चेतन के लिये कोमल ह्र्दय वाला तथा अचेतन के लिए द्रव रुप अन्त: शरीर वाला अर्थ देता है; अत: मेघ जल की बूँदों के रुप मे आँसू बहायेगा।


रुद्धापाड़्गप्रसरम़् – विरहिणी यक्षिणी ने विरह के प्रथम दिन ही बालों को गूँथा था, तबसे न गूँथने के कारण वे ढीले पड़ गये हैं, जिससे वे बाल उसके नेत्रों पर लटक गये हैं, जिससे वह पूरी तरह से नहीं देख पाती।


विस्मृत भ्रूविलासम़् – भौंहो के मटकाने को भ्रूविलास कहते हैं। पति वियोग में यक्षिणी ने मद्य-पान छोड़ दिया था, इसलिए उसकी चञ्चलता तथा  मस्ती समाप्त हो गयी थी तथा चञ्चलता के अभाव में बह भौंहो को मटकाना भी भूल गयी थी।


उपरिस्पन्दिनयनम़् –  नयन से यहाँ बायाँ नेत्र अभीष्ट है; क्योंकि स्त्री की बायीं आँख फ़ड़कना अच्छा शकुन माना जाता है, जबकि पुरुष की दायीं आँख। और आँख का ऊपर के हिस्से में फ़ड़कना इष्ट प्राप्ति का लक्षण कहा गया है।


वामश्चास्या: उरु: – निमित्त निदान के अनुसार स्त्रियों की बायीं जंघा का फ़ड़कना रति सुख की प्राप्ति तथा दोनों जंघाओं का फ़ड़कना वस्त्र प्राप्ति का सूचक है। यक्षिणी की वाम जंघा का फ़ड़कना यह सूचित करता है कि शीघ्र ही उसे रति सुख की प्राप्ति होगी।


करुहपदै: – नायक संभोग काल में नायिका के ऊरु में नखक्षत करता है।


सम्भोगान्ते – कामशास्त्र के अनुसार रतिक्रीड़ा के अन्त में नायक का नायिका की रतिजन्य थकान को दूर करने के लिये चरण दबाना, पंखा झलने आदि का विधान है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ३५

प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमांशो: – इस पर महिमसिंह गणी का कथन है कि – “कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां रात्रौ शेषकलामात्रस्य चन्द्रस्य दिड़्मुखे संभव:।” अर्थात कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को चन्द्रमा पूर्व क्षितिज में एक ही कला के रुप में रह जाता है। यहाँ यक्ष-पत्नी की सेज की पूर्व दिशा के क्षितिज

से और यक्ष-पत्नी की कलामात्र शेष चन्द्रमा की मूर्ति से तुलना की गयी है।


विरहमहतीम़् – युवक और युवतियों को अपने प्रथम मिलन के दिनों में दिन और रात क्षण-क्षण के समान छोटे दिखायी पड़ते हैं, किन्तु विरह की अवस्था में उन्हें दिन-रात पहाड़ की तरह विशाल प्रतीत होने लगते हैं। यक्षिणी की भी यही स्थिति है।

पूर्वप्रीत्या – काव्यों में, संयोगवस्था में जो चन्द्रमा प्रियजनों को सुख प्रदान करता है और विरहावस्था में वही चन्द्रमा कष्टप्रद होता है, ऐसा वर्णन अनेक स्थलों पर मिलता है। यक्ष का विचार है कि उसकी प्रिया जब अपने प्रियतम के साथ लेटती थी, उसी अनुभव के आधार पर बड़े उत्साह से उसकी प्रिया चन्द्रमा की किरणों पर दृष्टि डालेगी, किन्तु विरह के कारण वह किरणें दु:ख प्रदान करने वाली होंगी; इसलिए वह उन पर से दृष्टि हटा लेगी।

शुद्धस्नानात़् – यहाँ शुद्ध स्नान से अभिप्राय तैल आदि सुगन्धित द्रव्यों से रहित, उबटन आदि से रहित स्नान से है; क्योंकि वह प्रोषितभर्तृका है, इसलिए पूज आदि करने से पूर्व साधारण स्नान ही कर सकती थी; क्योंकि उसे प्रसाधन का निषेध था।

मत्संभोग – यक्षिणी का प्रियतम उससे दूर है; अत: उससे साक्षात़् संभोग तो सम्भव नहीं है इसलिये यह सोचकर कि उससे स्वप्न में ही संभोग सम्भव हो जाये, इसी विचार से नींद लेने का प्रयास कर रही है, किन्तु आँखों में आँसू आ जाने के कारण निद्रा का अवसर नहीं मिलता।

मयोद्वेष्टनीयाम़् – प्राचीन समय में यह प्रथा थी कि वियोग के अवसर पर पति अपनी पत्नी के बालों को एक वेणी में गूँथता था और वियोग के बाद वही उसे खोलता था।

स्पर्शक्लिष्टाम़् – प्रोषितभर्तृकाएँ जिस वेणी को विरह के दिन गूँथती थीं, उसमें तेलादि न लगाने के कारण वह शुष्क हो जाती थीं जो स्पर्श करने में कष्ट देती थी।

कठिनविषमाम़् – बहुत समय से प्रसाधन न करने के कारण वेणी कठोर और उलझ जाती थी। विषम का अर्थ ऊँचा नीचा होता है, किन्तु यहाँ इसका अर्थ उलझा हुआ अधिक उपयुक्त है।

अयमुतनखेन – प्रोषितभर्तृकाएँ क्योंकि विरहावस्था में प्रसाधन नहीं करती थीं; इसलिए नाखून भी नहीं काटे थे, जिससे यक्षिणी के नाखून लम्बे-लम्बे हो गये थे।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ३४

ह्रदयनिहितारम्भम़् – यक्षिणी अकेले में बैठकर प्रिय के काल्पनिक सहवास से मन बहलाती थी। आचार्य मल्लिनाथ ने यहाँ आरम्भ का अर्थ कार्य किया है, जिसका अर्थ है कि यक्षिणी पति के साथ चुम्बन, अलि़ड़्गन आदि कार्य वाले रति सुख का आन्नद

ले रही है। काम की दश अवस्थायें मानी गयी हैं यहाँ कवि ने तीसरी अवस्था का उल्लेख किया है। यहाँ सड्कल्पावस्था  का वर्णन किया गया है।


सव्यापाराम़् – विरहिणी स्त्रियों का दिन तो किसी न किसी प्रकार काम आदि करते हुए व्यतीत हो जाता है, परन्तु रात्रि में कोई कार्य न होने के काराण उसे रात्रि व्यतीत करना कठिन हो जाता है।

सुखयितुम़् – वियोगिनियों को यदि प्रियतम का सन्देश प्राप्त हो जाये तो अत्यन्त सुख मिलता है।

अवनिशयनम़् – प्रोषितभर्तृका को सती धर्म का पालन करने के लिये पलंग पर सोने का निषेध होने से भूमि पर सोने का विधान है; अत: यक्षिणी भी पृथ्वी पर ही सोती है।
चौथी कामदशा जागरणावस्था होती है।

आधिक्षामाम़् – रोग दो प्रकार के बताये ग्ये हैं – आधि तथा व्याधि । आधि मानसिक तथा व्याधि शारीरिक रोग के लिये आता है, विरहिणी यक्षिणी आधि रोग से पीड़ित है; इसलिये यह अत्यन्त क्षीण हो गयी है।

संनिषण्णैकपार्श्वाम़् – प्राय: विरहिणी स्त्रियाँ रात्रि को करवट बदल-बदलकर व्यतीत करती हैं, किन्तु यक्षिणी एक करवट से पडी हुई रात्रि व्यतीत करती है। इसके दो कारण हो सकते हैं –

(१) यक्षिणी रात्रि में अपने प्रियतम के ध्यान में इतनी मग्न हो जाती है कि उसे अपने शारीरिक कष्ट का ध्यान नहीं रहता और वह करवट तक नहीं बदलती।

(२) वह विरह में इतनी दुर्बल हो गयी है कि करवट बदलने की सामर्थ्य ही उसमें नहीं रही हो; अत: सारी रात एक ही करवट से पड़ी रहती है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ३३

भावगम्यम़् – यक्षिणी पत्नी-विरह से युक्त अपने पति की कृशता देख तो नहीं सकती थी, परन्तु अनुमान के द्वारा ही चित्र खींचा करती थी। संस्कृत साहित्य में विरह से पीड़ित के लिए विनोद के चार साधन वर्णित किये गये हैं – १. सदृश वस्तु का अनुभव, २. चित्रकर्म ३. स्वप्न

दर्शन, ४.प्रिय के अंग से स्पृष्ट पदार्थों का स्पर्श करना।


सारिका – प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं के यहाँ तथा कुलीन परिवारों में मनोरञ्ज्न आदि के लिये तोता, मैना, हंस आदि पक्षी पाले जाते थे और उनसे विरह काल में मनोरञ्जन होता था। यक्ष के यहाँ भी पालतू पक्षी थे और यक्ष विचार करता है कि उसकी प्रिया सारिका आदि के साथ बातें करके अपना समय व्यतीत करती होगी।

उद्रातुकामा – क्योंकि यक्ष-पत्नी देवयोनि की थी, इसलिये गान्धार ग्राम में गाने की इच्छा रखती थी, जबकि मनुष्य षड्ज या मध्यम ग्राम में गाते हैं। जैसा कि कहा है –
षड्जमध्यमनामानौ ग्रामौ गायन्ति मानवा:।
न तु गान्धारनामानं स लभ्यो देवयोनिभि:॥
स्वर भेद को ग्राम कहते हैं। ग्राम तीन प्रकार के होते हैं – षड्ज, मध्यम, गान्धार।

तन्त्रीमार्द्राम़् – यक्ष पत्नी कभी-कभी अपने प्रिय के नाम के चिह्नों से युक्त रचे हुए पदों के गाने की इच्छा करती होगी तथा वीणा बजाने के साथ उसे प्रियतम की स्मृति होती होगी जिस कारण आँसू आने से उसके तार भीग जाते होंगे।

मूर्च्छना – स्वरों के आरोह-अवरोह क्रम को मूर्च्छना कहते हैं। संगीतशास्त्र में सात स्वर माने गये हैं – षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद। इन स्वरों तथा तीन ग्रामों के मेल से ये मूर्च्छना २१ प्रकार की होती है।

देहलीदत्तपुष्पै: – जिस दिन प्रियतम विदेश जाता है, उसी दिन नायिका देहली की पूजा करती है और वहाँ पुष्प रखती है कि मेरा प्रियतम इतने महीनों के लिये गया है। अत: मास बीतने पर एक पुष्प उठाकर दूसरी ओर रख देती है। उत्कण्ठा के क्षणों में वह पुष्पों को गिनती है कि अब आने के कितने महीने शेष रह गये हैं। यह वियोग के क्षणों में मन बहलाने का साधन है।