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आयकर रिटर्न की ईफ़ाईलिंग और नियोक्ता द्वारा कटा हुआ कर फ़ॉर्म 26A S से देखें। (E-filing of Income Tax Return and Check deducted Tax from employer in form 26A S)

    क्या आपने आयकर रिटर्न भर दिया है, अगर नहीं तो कैसे भरने वाले हैं, हमने इस बार से इलेक्ट्रॉनिक तरीके से भरना शुरू किया है और बहुत ही आसान लगा।
    आयकर की ईफ़ाईलिंग की वेबसाईट पर जाकर अपने पान नंबर से रजिस्टर करें, और अपनी निजी जानकारियाँ भरें। डाऊनलोड में जाकर संबंधित फ़ॉर्म डाऊनलोड कर लें, जैसे अगर आप केवल नौकरी करते हैं तो आपको आई.टी.आर. १ सहज भरना है, सहज की एक्सेल फ़ाईल डाऊनलोड करें, और जब एक्सेल में फ़ाईल खोलें तो मेक्रो को इनेबल करें नहीं तो एक्सेल फ़ाईल के पुश बटन काम नहीं करेंगे।
एक्सेल में अपनी सही जानकारी भरें जो कि फ़ॉर्म १६ में दी गई है, इसमें तीन टैब दिये हैं –
1. Income Details – इस शीट में फ़ॉर्म १६ के अनुसार आय की जानकारियाँ, नाम और   पता भरिये। Valideate  करिये और Next बटन पर क्लिक कीजिये।
2. TDS – इस शीट में नियोक्ता द्वारा काटे गये टैक्स की जानकारी, सैलेरी के अलावा अगर कहीं TDS कटा है और अग्रिम कर की जानकारी Transaction wise दें।
3. Taxes paid and verification – इस शीट पर अपने बैंक का खाता नंबर और माइकर कोड टंकित करें साथ ही यहाँ पर आपका टैक्स के बारे में पता चलता है कि टैक्स सही है या और जमा करना है या रिफ़ंड है। अगर यह नहीं आ रहा है तो पहली शीट Income Details पर जाकर Calculate Tax बटन पर क्ल्कि करें।
    अब तीसरी शीट पर दिये गये Generate बटन को दबायें तो यह आपकी एक्सेल फ़ाईल की .xml फ़ाईल बना देगा। जो कि Submit Return – Select Assessment Year में जाकर अपना वर्ष चुन लें, अपना फ़ॉर्म चुनें और अगर आपके पास डिजिटल सिग्नेचर है तो Yes करें नहीं तो No ही रहने दें। Next पर क्ल्कि करें, अब Choose file पर क्लिक करें और .xml फ़ाईल को चुनें। और अगर डिजिटल सिग्नेचर हैं तो इसके लिये जावा का संस्थापित होना आवश्यक है और अपनी .pfx फ़ाईल का पता दें। अब Upload बटन दबाकर फ़ाईल को Upload कर दें। जैसे ही फ़ाईल upload हो जायेगी, वैसे ही आपको फ़ॉर्म V की PDF लिंक मिल जायेगी, जिसे डाऊनलोड करके उसका प्रिंट निकालकर उसे आयकर बैंगलोर स्थित स्पेशल सैल के पते पर भेज दें। १२० दिनों के अंदर आपको फ़ॉर्म V आयकर विभाग को भेजना होता है जिसकी रसीद आयकर विभाग द्वारा आपके ईमेल पते पर भेज दी जायेगी। और इसका ऑनलाईन स्टेटस भी आयकर की साईट पर देख सकते हैं। अगर रसीद नहीं मिले तो फ़ॉर्म V वापिस से भेजें और ध्यान रखें कि फ़ॉर्म V केवल साधारण डाक या स्पीडपोस्ट से भेजें, रजिस्टर पोस्ट और कूरियर से डाक स्वीकार नहीं करते हैं। ज्यादा जानकारी के लिये आयकर विभाग की साईट पर देखें।
    अगर आपने डिजिटल सिग्नेचर भी अपलोड किये हैं तो फ़ॉर्म V भरकर भेजने की आवश्यकता नहीं है। सबसे सस्ता डिजिटल सिग्नेचर ईमुद्रा द्वारा दिया जाता है, मैंने भी सोचा था कि डिजिटल सिग्नेचर लूँ परंतु जब मात्र २० रूपये खर्च करने से काम चल जाता है तो उसके लिये ४०० रूपये का खर्चा क्यों किया जाये और डिजिटल सिग्नेचर का आयकर रिटर्न भरने के अलावा कहीं ओर व्यावहारिक उपयोग भी नहीं है।
    याद रखें पासवर्ड कभी भी कहीं भी नहीं लिखें, जैसे बैंक का पासवर्ड महत्वपूर्ण है वैसे ही आयकर की साईट का पासवर्ड महत्वपूर्ण है। कोई भी जानकारी अपलोड की जाती है, तो उसकी जिम्मेदारी केवल उस लॉगिन की ही है।
    अब आपको अपने नियोक्ता द्वारा जमा किये गये आयकर का विवरण देखना है तो आप पिछले वर्षों का भी विवरण यहाँ ऑनलाईन देख सकते हैं, फ़ॉर्म 26AS के द्वारा।
    My Account – View Tax Assessment ( Form 26A S), पूछी गई जानकारियों को भरें और View Form 26A S पर क्ल्कि करें। यह वेबसाईट एन.एस.डी.एल की साईट से कनेक्ट होकर सारी जानकारी आपको मुहैया करवा देता है।
    तो भूल जाईये ऑफ़लाईन आयकर रिटर्न भरना और भरिये ऑनलाईन रिटर्न, हाँ अगले वर्षों में अगर डिजिटल सिग्नेचर अगर सस्ता होता है या फ़िर उसका कहीं और भी व्यवहारिक उपयोग होता है तो डिजिटल सिग्नेचर भी ले लिया जायेगा।

क्या सरकार को हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ?

    यह एक बहुत बड़ा सवाल है, क्या सरकार को हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ? जब सरकार आम आदमी की रक्षा नहीं कर सकती, आम आदमी को मूलभूत सुविधाएँ नहीं प्रदान कर सकती तो सरकार हमसे कर कैसे ले सकती है ?

    जब हमें सड़क अच्छी नहीं मिल सकती, बस अच्छी नहीं मिल सकती और तो और सरकार चलाने वाले जनता के मुलाजिम हैं क्योंकि उनको तन्ख्वाह जनता के जमा किये गये कर से मिलती है, वे मुलाजिम ही जनता से आँखें लड़ाते हुए अपना रूतबा दिखाते हैं और जिस काम की तन्ख्वाह लेते हैं, उसका शुल्क भी जनता से भ्रष्टाचार के रूप में बटोरते हैं और बेचारी निरीह जनता इनके दमन चक्र में पिसी जा रही है, अगर कोई आवाज उठाता है तो सचान को जैसे मारा वैसे मारकर मुँह बंद करवा दिया जाता है या फ़िर बाबा रामदेव के ऊपर जैसा दमनकारी चक्र सरकार ने चलाया, चला दिया जाता है।

    सरकार अपनी ताकत केवल जनता पर दिखा सकती है, सरकार आतंकवाद, माओवाद और नक्सलियों से निपटने में असक्षम है और वहाँ केवल अपनी राजनीति की रोटियाँ सेकने में लगी है, क्या अगर सरकार सेना की टुकड़ी को नक्सली इलाके में भेज दे तो ये नक्सलवाद एक दिन में खत्म नहीं हो सकता ? या माओवाद खत्म नहीं हो सकता ? हमारे खूफ़िया विभाग समय पर सभी सुरक्षा विभागों को जानकारियाँ दे देते हैं, परंतु उन जानकारियों को फ़ाईलों में दबा दिया जाता है और ढुलमुल रवैया अपनाया जाता है। सुरक्षा विभाग आपस में ही एक दूसरे से बराबर संपर्क में नहीं रहते और समय पर इस प्रकार की जानकारियों का उपयोग नहीं कर पाते, ये लोग असक्षम नहीं है, बल्कि इसके पीछे राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी है।

    इतने सब के बाद भी सरकार को क्या हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ? सरकार हमसे हरेक चीज में तो कर ले रही है, फ़िर वह खाना, पहनना हो या ऐश करना, उस कर से भी पेट नहीं भरता तो तरह तरह के घोटाले भी सामने आते हैं ? और जनता के साथ धोखा किया जाता है ?

    हम किसी भी प्रकार का कर देने में कोई आपत्ति नहीं है, परंतु हमारे कर के रुपयों से क्या किया जा रहा है, वह तो हमें बताया जाये।

    मानते हैं कि सेना का शासन अच्छा नहीं होता, परंतु अब स्थिती इतनी खराब हो चुकी है कि अगर सेना का शासन लगा दिया जाये तो भी हमें अपने भारत को सुधारने में बहुत समय लगेगा, या फ़िर जनता को ही कानून अपने हाथ में लेकर अपने हिसाब से कानून का पालन करवाना पड़ेगा ?

क्या आप २० रुपये में एक दिन का खाना खा सकते हैं ?

क्या आप २० रुपये में एक दिन का खाना खा सकते हैं ?

    यह प्रश्न बहुत ही व्यवहारिक है, क्योंकि सरकार ने गरीबी रेखा के लिये जो सीमा निर्धारित की है वह है २० रूपये प्रतिदिन, अगर कोई २० रूपये प्रतिदिन से ज्यादा कमाता है तो वह गरीबी रेखा में नहीं आता है।

    भारतीय प्रबंधन संस्थान, बैंगलोर के ७५ छात्रों ने समूहों में बँटकर गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों का जमीनी संघर्ष जाना। भारतीय प्रबंधन संस्थान के छात्रों के लिये २० रूपये कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है, जब वे चले तो उन्होंने अपने पास केवल २० रूपये ही रखे और खाने की कोई भी सामग्री नहीं रखी।

    जब उन्होंने २० रूपयों में पूरा दिन गुजारा तो उन्हें पैसे की कीमत पता चली और उन्होंने देखा कि गरीबी रेखा के नीचे वाले कैसे जीवन यापन करते होंगे। २० रूपये से ज्यादा की तो एक दिन में नाश्ता या सिगरेट पीने वाले प्रबंधन संस्थान के छात्र सकते में थे, और इन लोगों के लिये मूलभूत सुविधाओं को कैसे जुटाया जाये ये सोचने पर मजबूर थे। मूलभुत सुविधाओं का न होने के लिये सरकार को ही दोषी नहीं माना जा सकत है।

    इस महँगाई के जमाने में उन्हें अगर सब्जी खाना हो तो पत्तेदार सब्जी थोड़ी बहुत आ सकती है, या फ़िर शाम को बची हुई गली सी सब्जी में से उन्हें सब्जी खरीदनी पड़ती है। चावल भी अगर १० रूपये किलो मिले तब जाकर उनके लिये खाना २० रूपये में एक दिन का पड़ेगा। परंतु चावल अगर देखें तो कम से कम २०-२२ रूपये है, वह भी लोकल सोना मसूरी मोटा चावल। अगर गेहूँ ही देखें तो कम से कम १६ रूपये किलो है और पिसवाने का ४ रुपये तो २० रूपये किलो तो आटा भी पड़ता है।

    अपने को तो सोचकर ही पसीने आते हैं, कि कैसे २० रूपये में दिन भर में खाना खाया जा सकता है जबकि १० रूपये की चाय या कॉफ़ी ही बाजार में मिलती है। नाश्ते में भी २० रूपये कम पड़ते हैं।

    वाकई २० रूपये में एक दिन निकालना बहुत मुश्किल है, और गरीबी रेखा के नीचे वालों को तो तब तक दिन निकालने हैं, जब तक कि वे इस गरीबी रेखा को पार नहीं कर लेते।

   भारतीय प्रबंधन संस्थान के छात्रों ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का जीवन स्तर सुधारने और मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के लिये संकल्प लिया।

स्पीड पोस्ट के भाव देखकर होश उड़ गये ?

    अभी बहुत दिनों बाद कूरियर और स्पीडपोस्ट करने की जरूरत पड़ी, तो बदले हुए भाव देखकर होश उड़ गये, भाव इतने बड़े हुए हैं कि अच्छे अच्छों के होश उड़ जायें।

    Indiapost कूरियर सेवा शुरू हुए भारत में लगभग २ दशक हो चले हैं, परंतु कूरियर ने पिछले एक दशक से जो जोर पकड़ा है वह ऐतिहासिक है और कूरियर सेवाओं ने डाक विभाग को हाशिये पर ला खड़ा किया है। आज भारत में कुकुरमुत्तों की तरह जाने कितनी ही कूरियर सेवाएँ हैं, कूरियर सेवाएँ निजी हैं तो यह विश्वास करना लाजिमी है कि सेवाएँ अच्छी होंगी, परंतु यह सत्य नहीं है। कूरियर सेवा किसी हद तक जनता का विश्वास जीतने में कायम तो रहीं, परंतु जो लोग डाक विभाग की सेवाओं का उपयोग करते रहे उनको डिगा नहीं पायी।

    कूरियर सेवा की अपनी एक पहुँच होती है, वह ज्यादा से ज्यादा जिला स्तर तक या तहसील स्तर तक ही अपनी सेवाएँ प्रदान करते हैं, और भारतीय डाक विभाग की सेवाएँ पूरे विश्व में सबसे बड़ी हैं, भारतीय डाक विभाग की सेवाएँ छोटे से छोटे गाँव तक में मौजूद हैं।

Post Box     एक जगह स्पीड पोस्ट करना था तो मजबूरी में हमें पोस्ट ऑफ़िस जाना पड़ा तो पता चला कि शनिवार को १२.३० बजे ही पोस्ट ऑफ़िस बंद् हो जाता है, फ़िर सोमवार को घरवाली को भेजना पड़ा, तो पता चला कि लाईन लगी हुई थी, और लगभग सभी लोग टेलीफ़ोन का बिल जमा करने के लिये लाईन में लगे हुए थे, अब बताईये डाक जो कि डाकविभाग का मुख्य कार्य है उसे हाशिये पर डाक विभाग ने धकेल दिया है और टेलीफ़ोन बिल जमा कर रहा है। हाँ यह है कि टेलीफ़ोन विभाग से डाक विभाग को कमीशन मिलता है, तो क्या डाक विभाग अपने मुख्य कार्य को प्राथमिकता से करना छोड़ देगा। अब पोस्ट ऑफ़िस के लाल डिब्बे भी हर चौराहों पर नहीं दिखते हैं।

India post cargo     परंतु एक बात अच्छी लगी जो शायद सबको अच्छी लगे कि उतने ही वजन के कूरियर के और उतनी ही दूरी पर भेजने के कूरियर सेवा ने ५० रुपये लिये और जबकि स्पीडपोस्ट सेवा ने २५ रुपये लिये। दोनों ही सेवाओं में लगभग ४८ घंटों से ज्यादा का समय लगता है, परंतु अगर आप अपने कूरियर या स्पीडपोस्ट को ट्रेक करना चाहते हैं, तो यहाँ पर भी स्पीडपोस्ट की बेहतर ट्रेकिंग विश्वस्तर की है और कूरियर सेवाओं को इसमें भी मात करती है। यहाँ तक कि कई विश्वस्तर कूरियर कंपनियाँ भी इस तरह की जबरदस्त ट्रेकिंग का इस्तेमाल नहीं करती हैं।

    उसके बाद हमने सोचा कि आखिर क्यों डाक विभाग की सेवाओं से लोग भागने लगे हैं, तो पाया कि कूरियर सर्विसेस लगभग हर गली चौराहों के नुक्कड़ पर किसी न किसी दुकान में मिल जाती है, और लगभग पूरे समय आप कभी भी कूरियर कर सकते हैं, जबकि डाक विभाग का सरकारी समय निर्धारित है, और उस पर भी आपको लाईन में लगना पड़ता है तो आजकल समय किस के पास है, जो लाईन में लगे और डाक विभाग की सेवाओं का उपयोग करे।

    ६-७ वर्ष पहले उज्जैन में डाक विभाग ने कार्यालयों के लिये एक सेवा शुरू की थी, जिसके तहत शाम के समय डाकविभाग से कर्मचारी आता था और सारी डाक ले जाता था, अब पता नहीं कि वह सेवा उपलब्ध है या नहीं, परंतु उस समय लगभग हर बैंक और सरकारी कार्यालयों ने इसे तत्काल प्रभाव से उपयोग करना शुरू कर दिया था। अब शायद यह सेवा नहीं है, क्यूँकि अभी जब उज्जैन गये थे तो बैंकों में वापिस से कूरियर सेवाओं ने अपनी जड़ें जमा ली थीं, परंतु अन्य सरकारी कार्यालयों का पता नहीं है।

    कूरियर में एक अच्छी बात यह है कि आप फ़ोन कर दो वह आपके स्थान से ही आपकी डाक पिक अप कर लेगा और आप निश्चिंत हो जायेंगे, परंतु डाकविभाग के साथ ऐसा नहीं है, डाकविभाग को अपने तंत्र को प्रभावी रूप से इस्तेमाल करना होगा और उन्हें व्यावसायिक बुद्धि का परिचय देते हुए ठोस कदम उठाने होंगे। कुछ अच्छी सेवाएँ ग्राहकों के लिये देना होंगी, जिससे डाकविभाग के मजबूत तंत्र का फ़ायदा आम जनता को हो।

बहिन जी विज्ञापनों से खबरी चैनलों की बोलती बंद की ? या अपराध खत्म हो गये ?

    कुछ दिनों पहले IBN7 के दो पत्रकारों को बहिनजी के दो कानूनी रक्षकों ने अंदर कर दिया था और देख लेने की धमकी दी थी, जैसे ही मीडिया में मामला उछला वैसे ही आला अफ़सर सफ़ाई देने पहुँच गये कि यह उनका निजी मामला था, इसमें सरकार का कोई हाथ नहीं है।

    इसके पहले भी मीडिया के साथ इस तरह के मामले हो चुके हैं, परंतु उस समय मीडिया इतना संगठित नहीं था और यह भी कह सकते हैं कि व्यावसायिक मामलों के मद्देनजर कभी खुलकर नहीं बोल पाते थे। परंतु इस बार मीडिया ने हिम्मत करी और खुलकर सभी चैनलों ने इसका विरोध किया तो खुद बहिनजी और प्रधानमंत्रीजी को मीडिया से मुखतिब होने के लिये आना पड़ा। यह भी कह सकते हैं कि अब मीडिया परिपक्व हो चुका है और अब उसके पास व्यावसायिक विज्ञापनों की कमी नहीं है।

    जब से यह मामला हो गया है, उसके बाद उन दोनों कानूनी रक्षकों को सस्पेंड कर दिया गया परंतु अब उनका क्या हुआ उसकी कोई खबर नहीं है। शायद मामले को रफ़ा दफ़ा कर दिया गया होगा।

    अब लगभग हर खबरी चैनल पर बहिनजी के विज्ञापन की भरमार है, या तो बहिनजी की सरकार मजबूर है विज्ञापन देने के लिये, या फ़िर बहिनजी अपनी जनता की खून पसीने की कमाई को सम्मान नहीं देती हैं और इस तरह विज्ञापन में पैसा बहा रही हैं।

    अब उत्तरप्रदेश में हो रहे अपराधों का इन खबरी चैनलों ने प्रसारण कम कर दिया है, आखिर खबरी चैनलों को अच्छे खासे पैसों से बहिन जी ने खरीद जो लिया है, नहीं तो पहले यह हालत थी कि १-२ चैनलों पर ही विज्ञापन दिखते थे, और बहिन जी के प्रदेश के अपराधों का समाचार चल रहा है जिसमें उनके खुद के मंत्री तक लिप्त थे और ब्रेक में बहिन जी के प्रदेश के विका का विज्ञापन आता था।

    खैर अब यह तो खबरी चैनल ही बता सकते हैं कि अपराध खत्म हो गये या मिलने वाले बोनस से उनके कैमरों ने उधर देखना बंद कर दिया है।

लड़कियों का सिगरेट पीना और शराब पीना समाज को स्वीकार करना चाहिये, समाज को बदलना होगा

    जब मैंने पहली बार प्रगति मैदान और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बाहर सिगरेट पीती हुई लड़कियों को देखा था, बड़ा अजीब लगा था कि लड़कियाँ भी सिगरेट पीती हैं। यह बात लगभग १४-१५ वर्ष पुरानी है। अब जब आज अपने आसपास देखता हूँ तो स्थितियाँ बहुत ही तेजी से बदलती जा रही हैं।
    अधिकतर स्मोकिंग जोन लंच के बाद भरेपूरे पाये जाते हैं, और इतने खचाखच होते हैं कि पैर रखने की जगह नहीं होती, अगर वहाँ कोई पैसिव स्मोकर हो तो पैसिव रहने से अच्छा है कि उसे खुद स्मोक शुरु कर देना चाहिये।
    लगभग पिछले ६ वर्षों से महानगरीय स्वरूप देख रहा हूँ। पहले दिल्ली में जहाँ कनॉट प्लेस, करोल बाग, इंडिया गेट हो या लाजपत नगर, डिफ़ेंस कॉलोनी, साऊथ एक्स. कोई भी जगह ले लो, लड़कियाँ समूह में खड़ी देख जायेंगी और उनको मजे से छल्ले उड़ाते हुए देखा जा सकता है।
    वैसे ही मुंबई में हालात ऐसे हैं कि वहाँ पर तो जहाँ मेरा कार्यालय था वहाँ लड़कों से ज्यादा स्मोकर लड़कियाँ थीं, और अगर समूह भी होते तो लड़कियाँ ज्यादा और लड़के कम और शेयर करके सिगरेट पीते हुए देखा जा सकता है। लड़कियाँ यहाँ शराब की दुकान से शराब भी खरीदते हुए देखी जा सकती हैं।
    अब आये बैंगलोर तो यहाँ तो ७०% जनता जवान है और उनकी जवानियों की अंगड़ाईयाँ यत्र तत्र सर्वत्र देखी जा सकती है, अभी जहाँ मेरा कार्यालय है वहाँ दोपहर में स्थिती देखने लायक होती है, सिक्योरिटी वाले बेचारे स्मोकर्स को चेताते चेताते परेशान हो जाते हैं, कि ये कृप्या यहाँ स्मोक न करें यह वर्जित क्षैत्र है, परंतु मजाल कि कोई सुन ले, और एक बात कि बैंगलोर में लगभग ७०% लोग कन्नड़ भाषा नहीं जानते क्योंकि वे सब उत्तर भारत से हैं। मैंने यहाँ बहुत सी लड़कियाँ देखी हैं जो कि चैन स्मोकर्स हैं। और अधिकतर स्मोकर्स लड़कियाँ वही हैं जो कि घर से बाहर रहती हैं।
    अभी थोड़े दिन पहले ही शुक्रवार को  देखा जब हम हायपर सिटी में हमारे आगे कुछ लड़कियाँ बिलिंग करवा रही थीं, व्हिस्की रम और वोद्का ले जा रही थीं और पेप्सी और कंडोम्स की बिलिंग करवा रही थीं, हमने अपनी घरवाली से कहा देखो इन लड़कियों ने सप्ताहांत पर रिलेक्स होने का पूरा इंतजाम कर लिया है, उनको भी कोई फ़र्क नहीं पड़ा क्योंकि महानगर में रहकर सोच बदल ही जाती है, खैर हमें भी अपनी सोच बदलनी होगी।
    आखिर लड़कियाँ भी कमा रही हैं आजाद हैं, स्वतंत्र हैं, घर से बाहर रहते हुए वे अपनी स्वतंत्रता का पूरा फ़ायदा उठाती हैं। यह आधुनिक सोच है और हम तो इसे मान चुके हैं कि जिसे जैसा रहना है वैसा रहे इसलिये अब कहीं कोई लड़की सिगरेट या शराब पीती हुई दिखती भी है तो हमें सामान्य जैसा ही लगता है, समाज को अब बदलना चाहिये वक्त आ गया है कि समाज को यह सच भी स्वीकार करना चाहिये कि लड़कियाँ भी लड़कों की तरह ही स्वतंत्र हैं और उनके यह अधिकार हैं अगर लड़कों के पास सारे अधिकार हैं तो। क्या हमें अपनी पुरातन मानसिकता की बेढ़ी से बाहर नहीं निकलना होगा ?

रेल्वे द्वारा तकनीक के इस्तेमाल और कुछ खामियाँ सेवाओं में.. (Technology used by Railway… some problems in services)

    पिछले महीने हमने अपनी पूरी यात्रा रेल से की और विभिन्न तरह के अनुभव रहे कुछ अच्छे और कुछ बुरे। कई वर्षों बाद बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर गये थे, हमारा आरक्षण कर्नाटक एक्सप्रेस से था और सीट नंबर भी कन्फ़र्म हो गया था। तब भी मन की तसल्ली के लिये हम आरक्षण चार्ट में देखना उचित समझते हैं, इसलिये आरक्षण चार्ट ढूँढ़ने लगे, तो कहीं भी आरक्षण चार्ट नहीं दिखा। ५-६ बड़े बड़े टीवी स्क्रीन लगे दिखे जिसपर लोग टूट पड़े थे, हमने सोचा चलो देखें कि क्या माजरा है। पता चला कि आरक्षण चार्ट टीवी स्क्रीन पर दिखाये जा रहे हैं, हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रेल्वे तकनीक का इतना अच्छा इस्तेमाल भी कर सकता है। बहुत ही अच्छा लगा कि रेल्वे ने तकनीक का उपयोग बहुत अच्छे से किया जिससे कितने ही कागजों की बर्बादी बच गई।

    बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर तकनीक का रूप देखकर रेल्वे के बदलते चेहरे का अहसास हुआ। बस थोड़ी तकलीफ़ हुई कि ट्रेन कौन से प्लेटफ़ॉर्म पर आयेगी यह कहीं भी नहीं पता चल रहा था, हालांकि टीवी पर आने और जाने वाली गाड़ियों का समय के साथ प्लेटफ़ार्म नंबर दिखाया जा रहा था, परंतु हमारी गाड़ी के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं थी। खैर पूछताछ करके पता चला कि ट्रेन एक नंबर प्लेटफ़ार्म पर आने वाली है। पूछताछ खिड़्की भी केवल एक ही थी, जिस पर लंबी लाईन लगी हुई थी और लोग परेशान हो रहे थे। हम चल दिये एक नंबर प्लेटफ़ार्म की और, जैसे ही घुसे ट्रेन सामने ही थी अब डब्बे का पता नहीं चल रहा था क्योंकि पूरी ट्रेन की लोकेशन बाहर नहीं लगी थी, तो वहीं प्रवेश द्वार पर बैठे टी.सी. महोदय से पूछा कि डिब्बा किधर आयेगा, और उन्होंने तत्परता से बता भी दिया ( जो कि हमारी उम्मीद के विपरीत था )।

    खैर डब्बे में पहुँचे तो तप रहा था क्योंकि ए.सी. चालू नहीं किया गया था, थोड़ी देर बाद ए.सी. चालू किया तब जाकर राहत मिली। हमने सोचा कि द्वितिय वातानुकुलित यान में पहले के जैसी अच्छी सुविधाएँ मौजूद होंगी और पॉवर बैकअप होता ही है, तो बहुत दिनों से छूटे हुए ब्लॉग पोस्ट पढ़ लिये जायेंगे । पहले तो हमने अपना जरूरी काम किया तो अपने लेपटॉप की बैटरी नमस्ते हो ली, अब चाहिये था बैटरी चार्ज करने के लिये पॉवर, बस यहीं से हमारा दुख शुरु हो गया। १० मिनिट बाद ही पॉवर गायब हो गया, तो इलेक्ट्रीशियन को पकड़ा गया उसने वापस से रिसेट किया परंतु फ़िर वही कहानी १० मिनिट मॆं फ़िर पॉवर गायब हो गया। उसके बाद जब हम फ़िर से इलेक्ट्रीशियन को ढूँढ़ते हुए पहुँचे तो हमें बताया गया कि इससे आप लेपटॉप नहीं चला पायेंगे केवल मोबाईल रिचार्ज कर पायेंगे। लोड ज्यादा होने पर डिप मार जाती है। कोच नया सा लग रहा था तो पता चला कि रेल्वे ने पुराने कोच को ही नया बनाकर लगा दिया है। खैर यह समस्या हमने मालवा एक्सप्रेस में भी देखी परंतु आते समय राजधानी एक्सप्रेस में यह समस्या नहीं थी। अब क्या समस्या है यह तो रेल्वे विभाग ही जाने। परंतु लंबी दूरी की गाड़ियों में यह सुविधा तो होनी ही चाहिये, आजकल सबके पास लेपटॉप होते हैं और सभी बेतार सुविधा का लाभ लेते हुए अपना काम करते रहते हैं।

    द्वितिय वातानुकुलन यान की खासियत हमें यह अच्छी लगती है कि केबिन में सीटें अच्छी चौड़ी होती हैं, परंतु इस बार देखा तो पता चला कि सीटें साधारण चौडाई की थीं। और यह हमने तीनों गाड़ियों में देखा।

    जब आगरा में थकेहारे रेल्वे स्टेशन पर पहुँचे तो गर्मी अपने पूरे शबाब पर थी, और ट्रेन आने में लगभग १ घंटा बाकी था, हमने वहाँ उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय ढ़ूँढ़ा तो मिल भी गया और ऊपर से सबसे बड़ी खुशी की बात कि ए.सी. भी चल रहे थे, मन प्रसन्न था कि चलो रेल्वे अपने यात्रियों को कुछ सुविधा तो देता है। बस सोफ़े नहीं थे उनकी जगह स्टील की बैंचे डाल रखी थीं जिस पर यात्री ज्यादा देर तक तो बैठकर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आते समय भोपाल में भी हमने रात को ४ घंटे प्रतीक्षालय में बिताये वहाँ पर भी सुविधा अच्छी थी।

    जाते समय कर्नाटक एक्सप्रेस का खाना निहायत ही खराब था, केवल खाना था इसलिये खाया, ऐसा लग रहा था जैसे कि रूपये देकर जेल में मिलने वाला खाना खरीद कर खा रहे हैं (वैसे अभी तक जेल का खाना चखा नहीं है), वैसे हमें ऐसा लग रहा था तो हम अपने साथ बहुत सारा माल मत्ता अपने साथ लेकर ही चले थे, तो सब ठीक था। आते समय राजधानी एक्स. का खाना भी कोई बहुत अच्छा नहीं था, पहले जो क्वालिटी खाने की राजधानी एक्स. में मिलती थी अब नहीं मिलती। आते समय तो दाल कम पड़ गई होगी तो उसमें ठंडा पानी मिलाकर परोस दिया गया, लगभग सभी यात्रियों ने इसकी शिकायत की, टी.सी. को बोलो तो वो कहते हैं यह अपनी जिम्मेदारी नहीं और पूछो कि किसकी जिम्मेदारी है तो बस बगलें झांकते नजर आते ।

    खैर अब सभी चीजें तो अच्छी नहीं मिल सकतीं, पर कुल मिलाकर सफ़र अच्छा रहा और अब आगे रेल्वे की सुविधा का उपयोग केवल मजबूरी में ही किया जा सकेगा क्योंकि एक तो ३६-३९ घंटे की यात्रा थकावट से भरपूर होती है और उतना समय घर पर रहने के लिय भी कम हो जाता है। अगर रेल्वे थोड़े सी इन जरूरी चीजों पर ध्यान दे तो यात्रियों को बहुत सुविधा होगी।

    अगर पाठकों को पता हो कि इन खामियों की शिकायत कहाँ की जाये, जहाँ कम से कम सुनवाई तो हो, तो बताने का कष्ट करें।

बच्चों के शार्टब्रेक मॆं खाने के लिये क्या दिया जाये, स्कूल ने नोटिस निकाला

    बेटेलाल ने जब से स्कूल जाना शुरु किया है तब से उनके शार्ट ब्रेक और लंच के नाटक फ़िर से शुरु हो गये हैं। रोज जिद की जाती है कि मैगी, पास्ता, पिज्जा या बर्गर दो। हम बेटेलाल को रोज मना करते हैं, मगर कई बार तो जिद पर अड़ लेते हैं, सब बच्चे लाते हैं, और एक आप हैं कि मुझे इन चीजों के लिये मना करते हैं। हमने कितनी ही बार समझाया कि बेटा मैगी, पास्ता, पिज्जा ठंडे हो जाने पर बुल्कुल अच्छे नहीं लगते और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक भी होते हैं। इस तरह से लगभग रोज की कहानी हो चली थी। और इस बात से लगभग सभी अभिभावक परेशान रहते हैं।
    शार्ट ब्रेक में अलग अलग चीजें दिया करते हैं अलग तरह के बिस्किट तो कभी उनकी कोई मनपसंदीदा नमकीन या मिठाई और खाने में रोटी सब्जी या परांठा सब्जी। पर बेटेलाल हैं कि कहते हैं उन्हें रोटी सब्जी नहीं मैगी दिया करें, पास्ता दिया करें। पैरेंट्स टीचर मीटिंग के दौरान स्कूल में उनकी मैडम ने हमें पहले ही मना कर दिया था कि बच्चों को यह सब चीजें नहीं दिया करें। परंतु बच्चे हैं कि मानते ही नहीं, घर पर इतनी जिद करते हैं और आसमान सिर पर उठा लेते हैं।
    दो दिन पहले बेटेलाल की स्कूल की वेबसाईट पर नोटिस में शार्ट ब्रेक में मेनू आ गया, जिसमें हर दिन का मेन्यू निश्चित है। अब बेटेलाल को समझा रहे हैं कि बेटा अभी भी मान जाओ नहीं तो स्कूल वाले अब लंच का भी मेन्यू दे देंगे फ़िर क्या करोगे ?
    हमेशा लंच बॉक्स में सब्जी बची हुई आती है, अब देखते हैं कि इस सबका क्या असर होता है। अभिभावक कितना भी समझा लें परंतु बच्चों को समझ में नहीं आता, अगर शिक्षक स्कूल में बोले तो वह बच्चों के लिये पत्थर की लकीर होता है।
    पहले कक्षा में ही लंच करना होता था, अब थोड़ी बड़ी कक्षा में आ गये हैं तो उनकी क्लॉस टीचर बच्चों को स्कूल के छोटे बगीचे में लंच करने ले जाती हैं और लंच करने के बाद टिफ़िन वापिस अपनी क्लॉस में रखकर फ़िर से बच्चे बगीचे में खेलने आ जाते हैं। बेटेलाल के मुँह से यह सब बातें सुनने के बाद अपने स्कूल के दिन याद आ जाते हैं।

प्रवीण पाण्डे जी के ब्लॉग पोस्ट का फ़ायदा और xBox काइनेक्ट

    ब्लॉग से नुकसान तो शायद कम ही होंगे पर फ़ायदे बहुत हैं। प्रवीण पांडे जी ने अपने ब्लॉग में कुछ दिनों पहले xBox काइनेक्ट का विवरण लिखा था और मैं पिछले तीन वर्षों से लगभग इसी तरह की चीज ढूँढ़ रहा था, जब मुंबई में था तो Wii का गेमिंग कन्सोल देखा था परंतु उसमें खेलने के लिये एक रिमोट को पकड़ना होता था, जो कि मुझे पसंद नहीं था।

    हाथ में रिमोट न चाहने का कारण था हमारे बेटेलाल, क्यूँकि अगर फ़ेंक दिया बज गया बैंडबाजा महँगे गेमिंग कन्सोल का, इसलिये कुछ ऐसी तकनीक वाला कन्सोल चाहिये था जिसमें बिना रिमोट पकड़े खेल सकें, इसी बीच माइक्रोसॉफ़्ट ने xBox के साथ काइनेक्ट बाजार में उतारा परंतु इसके बारे में हमने कहीं सुना नहीं था। सुना तो प्रवीण जी के ब्लॉग से, ब्लॉग का हमारे लिये एक फ़ायदा ।

    प्रवीण जी से xBox के बारे में पूरी जानकारी ली और एक शोरूम में जाकर डेमो भी देख लिया, बस हमको भा गया, कीमत हालांकि कुछ ज्यादा थी परंतु जैसी चीज अपने को चाहिये हो मिल जाये तो कीमत मायने नहीं रखती है।

    इसी बीच हमारे छोटे भाई का अमेरिका जाना हो गया, और हमने ऑनलाईन वहाँ का भाव देखा तो लगभग ४० प्रतिशत रुपयों की बचत हो रही थी तो हमने अपने भाई को बोला कि हमारे लिये एक xBox ले आओ, हमारा xBox मई के दूसरे सप्ताह में हमारे पास आ गया। पर अब समस्या यह थी कि xBox का पॉवर एडॉप्टर अमेरिका वाला था जो कि 110 – 130 वोल्ट होता है और यह भारत में नहीं चल सकता था।

    अमेरिका का पॉवर एडॉप्टर भारत में कैसे चलेगा गूगल में बहुत ढूँढ़ा, कई प्रकार के समाधान मिले, कि अमेरिका से भारत का पॉवर कन्वर्टर ले लो जिसमें एक ट्रांसफ़ॉर्मर लगा होता है और चल जायेगा, हम लेकर भी आये परंतु काम नहीं बना, फ़िर गूगल पर ढूँढ़ा गया, तो पता चला कि इस समस्या से केवल हम ही दो-चार नहीं हो रहे हैं, इस समस्या से बहुत सारे लोग ग्रसित हैं।

    इस बाबत हमने एक बड़े शोरूम पर भी पूछताछ की तो उन्होंने हमें एक मोबाईल नंबर दिया और कहा कि आपकी समस्या का समाधान यहाँ हो जायेगा, हमने फ़ोन किया तो पता चला कि ये किसी निजी दुकान का नंबर था जो कि चीन निर्मित थर्ड पार्टी पॉवर एडॉप्टर बेचते हैं और उसकी केवल टेस्टिंग वारंटी है, और उसकी कीमत हमें लगभग ३२०० रूपये बताई गई और बताया गया कि लगभग ३०० लोग उनसे खरीद चुके हैं।

    ऐसे ही एक और समाधान मिला कि स्टेप अप / स्टेप डाऊन ट्रासफ़ॉर्मर का उपयोग करें, हमने अपने पास की इलेक्ट्रिक दुकान को इसे लाने के लिये बोल भी दिया।

    जब xBox के अंतर्जाल पर घूम रहे थे तो भारत का उपभोक्ता सेवा का फ़ोन नंबर मिला और हमने माइक्रोसॉफ़्ट को फ़ोन किया तो उन्होंने xBox से संबंधित जानकारी ली और हमने पॉवर एडॉप्टर संबंधी समस्या माइक्रोसॉफ़्ट के सामने रखी तो उपभोक्ता सेवा अधिकारी ने हमसे कहा कि आप चिंता न करें हम आपकी समस्या का समाधान करेंगे। आपने अमेरिका से xBox खरीदा है तो क्या हुआ, हम आपको भारत का पॉवर एडॉप्टर कंपनी की गुड विल के लिये कॉम्लीमेंटरी देंगे, और आप अपना अमेरिका वाला पॉवर एडॉप्टर भी अपने पास रखें जब अमेरिका जायें तब उसका उपयोग करें, उनका इस बाबत ईमेल भी तुरंत ही मिल गया और ५ दिनों में ही हमें माइक्रोसॉफ़्ट से पॉवर एडॉप्टर भी मिल गया, हमने चलाकर भी देख लिया, और इस प्रकार माइक्रोसॉफ़्ट ने हमारी समस्या का समाधान कर दिया।

जय हो प्रवीण जी की और जय हो माइक्रोसॉफ़्ट वाले बिल्लू भैया की।

टाटा ने सुनाई फ़िरंगियों को खरी खरी, अंतर है मानसिकता का, विकसित और विकासशील राष्ट्र का… (Tata in london)

    टाटा समूह के प्रमुख रतन टाटा ने कल लंदन में फ़िरंगियों को खरी खरी सुनाई, कि फ़िरंगी लोग ज्यादा काम नहीं करना चाहते और काम करने की इच्छाशक्ति की कमी है।

    अगर शाम को मीटिंग चल रही है और वह छ: बजे तक चलने वाली है तो लोग ५ बजे यह कहकर निकल लेंगे कि हमारी ट्रेन का समय हो गया है और अब हमें घर जाना है, यह घर जाने का समय है।

    सिंगूर का उदाहरण देते हुए बताया कि लगभग ८५% प्लांट तैयार था पर समस्या को देखते हुए गुजरात में नैनो कार का प्लांट लगाया गया और सारे उपकरणों को भी सिंगूर से गुजरात लाया गया और समय पर उत्पादन शुरू किया गया। सारी कानूनी कागजी कार्यवाही भी समय से कर ली गई। अगर यही बात लंदन में की जाये कि प्लांट की जगह समस्या के कारण आखिरी समय पर बदलना है तो यहाँ के प्रबंधन के हाथ पैर फ़ूल जायेंगे और कानूनी कागजी कार्यवाही का हवाला देकर जगह नहीं बदल पायेंगे। फ़िरंगियों की काम करने की इच्छाशक्ति में कमी है और बहुत गहरी निराशा फ़िरंगियों में भरी हुई है।

    ये तो समाचार था परंतु इसके पीछे क्या कारण हैं, वे टाटा ने नहीं सोचे होंगे क्योंकि उनको तो भारत के कर्मचारियों के साथ काम करने की आदत है जो कि वक्त पड़ने पर लगातार अपने काम के समय से भी ज्यादा काम कर सकते हैं। और वाकई कई बार उत्पादन कंपनियों में इसकी जरूरत भी होती है।

    इसके पीछे मानसिकता का बहुत बड़ा अंतर है, भारत विकासशील राष्ट्र है, भारत में बेरोजगारी है, और भारतीय रुपये का मूल्य जानते हैं, उन्हें पता है कि अगर काम ठीक चलेगा तो सब ठीक चलेगा और अगर काम ठीक नहीं चलेगा तो कुछ ठीक नहीं चलेगा।

    पर फ़िरंगियों का देश विकसित देशों की श्रेणी में आता है और उन्हें ज्यादा काम करने की आदत भी इसीलिये नहीं है और करना भी नहीं चाहते हैं क्यूँकि उनको इसकी जरूरत नहीं है, फ़िरंगी लोग Work Life Balance का फ़ार्मुला अपनाते हैं, कि सबको बराबर समय दिया जाये, और अपने समय का सही तरीके से उपयोग करते हैं।

    भले ही टाटा ने फ़िरंगियों की दो बड़ी कंपनियों को खरीद लिया है परंतु उनके प्लांट में काम तो उनसे ही करवाना है, इसलिये टाटा को शायद उनकी इन आदतों को भी स्वीकारना होगा और भारतियों से उनकी तुलना करना बंद करनी होगी। अभी भारत को विकसित देश की श्रेणी में आने के लिये भारी मश्क्कत का सामना करना है।

    विकसित देश की श्रेणी में आने के लिये राजनैतिक इच्छाशक्ति चाहिये जो कि भारत की सरकार में नहीं है, उद्योंगों को बढ़ावा देने के लिये सरकार को नियम शिथिल करना होंगे और भ्रष्टाचार का खात्मा करना होगा।  अगर इतना ही हो गया तो भारत के विकसित देशों की श्रेणी में आने से कोई नहीं रोक सकता।

     हमारी अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत है और भारत दुनिया में बहुत बड़ा बाजार है, तभी तो अमेरिका की कंपनियाँ भारत में अपनी दुकानें खोलने को मरी जा रही हैं, पर भारत को अभी अमेरिकी दुकानों की जरूरत नहीं है, पहले भारत अंदर से अपने को सुधार ले फ़िर हालात यह होंगे कि फ़िरंगियों और अमेरिकी धरती पर भारतीय दुकानों के परचम लहरायेंगे।