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आज फ़िर भारतीय बाजारों के लिये काला सोमवार है (Today again a Black Monday for Indian Share Market..)

काला सोमवार     आज फ़िर से भारतीय बाजारों के लिये काला सोमवार है, आज सेन्सेक्स कितना नीचे जाता है यह तो बाजार खुलने के बाद ही पता चलेगा, मगर शेयर बाजार के विशेषज्ञों के अनुसार सेन्सेक्स १५,००० का लेवल तोड़ सकता है। शनिवार और रविवार यूरोप और भारत के बाजार बंद रहते हैं, परंतु मिडिल ईस्ट के बाजार खुले होते हैं और वहाँ भारी गिरावट देखने को मिली है। मसलन सऊदी अरब, UAE, इस्राइल, कुवैत यहाँ के बाजारों में ७% तक की गिरावट दर्ज की गई है।

काला सोमवार बम     दरअसल शुक्रवार को बाजार बंद होने के बाद स्टैंडर्ड् एन्ड पूअर्स (Standard and Poor’s) ने अमेरिका की डेब्ट रेटिंग AAA से AA+ कर दी, अमेरिका की रेटिंग कम होने से उन संस्थाओं पर अब अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर दबाब पढ़ने लगा है जो कि केवल AAA रेटिंग वाले देशों में ही निवेश कर सकते हैं, इसका मतलब यह हुआ कि अब अमेरिका से निवेश निकलकर AAA रेटिंग वाले देशों में याने कि जर्मनी, फ़्रांस, कनाडा और ब्रिटेन में जायेगा। यहाँ तक कि स्टैंडर्ड और पूअर्स ने अमेरिका को यह भी चेताया है कि  अगले कुछ दिनों में अगर अमेरिकी अर्थव्यवस्था नहीं सुधरी तो अमेरिका की डेब्ट रेटिंग AA+ से घटाकर AA की जा सकती है।

आज के परिदृश्य में भारतीय अर्थव्यवस्था पर वैश्विक परिस्थितियों का गहन असर पड़ता है। इसलिये आने वाला समय बाजारों के लिये ठीक नहीं है, शेयर बाजार विशेषज्ञों की राय में अभी बाजार में निवेश करने से बचें और निचले लेवलों पर धीरे धीरे निवेश करते रहें, एकसाथ निवेश न करें।

अमेरिका देश की साख दाँव पर लगी है, अब देखते हैं कि ओबामा सरकार इससे कैसे निपटती है या अपने देश की डेब्ट रेटिंग AA या AA- पर आने देती है।

एक बात और स्टैंडर्ड और पूअर्स के चैयरमैन हैं देवेन शर्मा जो कि झारखंड के जमशेदपुर से हैं, और उन्होंने अपनी टीम के साथ ओबामा की छुट्टी कर दी।

स्टैंडर्ड और पूअर्स के बारे में ज्यादा जानने के लिये क्ल्कि करें।

दो वयस्क फ़िल्में “देहली बेहली” और “मर्डर २”, हमारी अपनी समीक्षा (Two Adult Movies “Delhi Belly” and “Murder 2” My Review)

    पिछले दो दिनों में दो वयस्क फ़िल्में देख लीं, जो कि बहुत दिनों से देखने की सोच रहे थे और ऐसे महीनों निकल जाते हैं फ़िल्में देखे हुए।  पहली “देहली बेहली” और दूसरी “मर्डर २”। दोनों ही फ़िल्में अलग अलग कारणों से वयस्क दी गई होंगी। जहाँ “देहली बेहली” एक व्यस्क हास्य फ़िल्म है वहीं “मर्डर २” में  गरम दृश्य, थोड़ी बहुत गालियाँ और हिंसक दृश्य हैं ।

    अगर गरम दृश्यों की बात की जाये तो “देहली बेहली” में कुछ दृश्य ऐसे हैं जो कि लोगों को आपत्तिजनक लग सकते हैं मगर आजकल की पीढी इसे आपत्तिजनक नहीं मानती और इसे हास्यदृश्य ही मानेगी, तो यहाँ पीढ़ियों के अंतर की बात आ जाती है, और वहीं “मर्डर २” में गरम दृश्यों की जरूरत न होने पर भी ठूँसा गया है जो कि बोझिल से लगते हैं, परंतु उत्तेजना पैदा करने में कामयाब हुए हैं।

 मर्डर २

    अगर गालियों की बात की जाये तो “मर्डर २” में शायद ३-४ गालियों से ज्यादा नहीं हैं, और वे भी बिल्कुल सही तरीके से उपयोग की गई हैं, कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि गालियों को जबरदस्ती ठूँसा गया है या कम गालियों में काम चला लिया गया है। अब जब वयस्क फ़िल्म का सर्टिफ़िकेट लिया ही था तो कुछ गालियों का उपयोग तो कर ही सकते थे, और वह उन्होंने किया।

देहली बेहली के लिये मैंने फ़ेसबुक पर नोट लिखा था वही यहाँ चिपका रहा हूँ।

देहली बेहली

कल “डैली बैली” ए सर्टीफ़िकेट फ़िल्म देखी, तो लगा कि कई जगह जान बूझकर गाली कम दी गई है, जहाँ ज्यादा गालियाँ होनी चाहिये वहाँ केवल एक ही गाली से काम चला लिया गया है, अगर सही तरीके से गालियों का विज्ञान समझ लिया जाता तो यह संभव था, इसके लिये विशेष रूप से स्कूल और कॉलेज में जाकर समझा जा सकता है। या फ़िर वे लड़के जो होस्टल में रहते हैं, या अपने घर से अलग रहते हैं, उनका रहन सहन और गालियों का उपयोग बकायदा व्याकरण के तौर पर किया जाता है। वैसे आजकल हमारा गालियाँ देना काफ़ी कम हो गया है, परंतु हाँ अपने पुराने मित्रों के साथ आज भी बातें करते हैं तो बिना गालियों के बातें करना अच्छा नहीं लगता है, उसमें आत्मीयता लगती है। हालांकि किसी तीसरे सुनने वाले को यह गलत लग सकती है परंतु अगर व्याकरण का उपयोग नहीं किया जाये तो बात का मजा ही नहीं आता।

अब एक बात और है, जो सभ्य (मतलब कहने के लिये नहीं वाकई सभ्य, जिन लोगों ने अपने जीवन में कभी गालियाँ नहीं दीं) हैं, तो यह फ़िल्म वाकई उन लोगों के लिये नहीं है। यह हम जैसे सभ्यों (हम ऐसे सभ्य हैं, कि समय पड़ने पर इतनी गालियाँ दे सकते हैं और ऐसी ऐसी गालियाँ दे सकते हैं, कि अच्छे अच्छों के पसीने छूट जायें, पर देते नहीं हैं) के लिये है। खासकर युवावर्ग इसे बहुत पसंद करेगा।

    हिंसक दृश्यों की बात की जाये तो “मर्डर २” में हिंसक दृश्य अपना पूर्ण प्रभाव नहीं छोड़ पाये, वयस्क सर्टिफ़िकेट था तो हिंसक दृश्य को और बेहतर बनाया जा सकता था, हालांकि प्रशांत नारायन ने अपनी और से कोई कसर नहीं छोड़ी है, हिजड़ा बनने का दृश्य बहुत प्रभावी हैं और जो दृश्य पूर्व में आशुतोष राणा ने निभाये हैं, उनकी टक्कर के हैं। वैसे भी महेश भट्ट की फ़िल्म में अगर हिजड़ा ना हो तो उनकी फ़िल्म पूरी नहीं होती।

    “देहली बेहली” में हिंसक दृश्य प्रभावी बन पड़े हैं, जैसे कि अमूमन दृश्य में संवाद बनाये हैं, उससे वे दृश्य प्रभावी बन पड़े हैं, परंतु कुछ दृश्य हास्य पैदा करते हैं।

    कुल मिलाकर “देहली बेहली” बहुत अच्छी फ़िल्म लगी और “मर्डर २” ठीक ठाक, मतलब बहुत अच्छी नहीं। अच्छी बात यह है कि दोनों ही फ़िल्मों की पटकथा अच्छी कसी हुई है और अपने से दूर नहीं होने देती है।

अब जल्दी ही “चिल्लर पार्टी” देखने की इच्छा है।

स्पीड पोस्ट के भाव देखकर होश उड़ गये ?

    अभी बहुत दिनों बाद कूरियर और स्पीडपोस्ट करने की जरूरत पड़ी, तो बदले हुए भाव देखकर होश उड़ गये, भाव इतने बड़े हुए हैं कि अच्छे अच्छों के होश उड़ जायें।

    Indiapost कूरियर सेवा शुरू हुए भारत में लगभग २ दशक हो चले हैं, परंतु कूरियर ने पिछले एक दशक से जो जोर पकड़ा है वह ऐतिहासिक है और कूरियर सेवाओं ने डाक विभाग को हाशिये पर ला खड़ा किया है। आज भारत में कुकुरमुत्तों की तरह जाने कितनी ही कूरियर सेवाएँ हैं, कूरियर सेवाएँ निजी हैं तो यह विश्वास करना लाजिमी है कि सेवाएँ अच्छी होंगी, परंतु यह सत्य नहीं है। कूरियर सेवा किसी हद तक जनता का विश्वास जीतने में कायम तो रहीं, परंतु जो लोग डाक विभाग की सेवाओं का उपयोग करते रहे उनको डिगा नहीं पायी।

    कूरियर सेवा की अपनी एक पहुँच होती है, वह ज्यादा से ज्यादा जिला स्तर तक या तहसील स्तर तक ही अपनी सेवाएँ प्रदान करते हैं, और भारतीय डाक विभाग की सेवाएँ पूरे विश्व में सबसे बड़ी हैं, भारतीय डाक विभाग की सेवाएँ छोटे से छोटे गाँव तक में मौजूद हैं।

Post Box     एक जगह स्पीड पोस्ट करना था तो मजबूरी में हमें पोस्ट ऑफ़िस जाना पड़ा तो पता चला कि शनिवार को १२.३० बजे ही पोस्ट ऑफ़िस बंद् हो जाता है, फ़िर सोमवार को घरवाली को भेजना पड़ा, तो पता चला कि लाईन लगी हुई थी, और लगभग सभी लोग टेलीफ़ोन का बिल जमा करने के लिये लाईन में लगे हुए थे, अब बताईये डाक जो कि डाकविभाग का मुख्य कार्य है उसे हाशिये पर डाक विभाग ने धकेल दिया है और टेलीफ़ोन बिल जमा कर रहा है। हाँ यह है कि टेलीफ़ोन विभाग से डाक विभाग को कमीशन मिलता है, तो क्या डाक विभाग अपने मुख्य कार्य को प्राथमिकता से करना छोड़ देगा। अब पोस्ट ऑफ़िस के लाल डिब्बे भी हर चौराहों पर नहीं दिखते हैं।

India post cargo     परंतु एक बात अच्छी लगी जो शायद सबको अच्छी लगे कि उतने ही वजन के कूरियर के और उतनी ही दूरी पर भेजने के कूरियर सेवा ने ५० रुपये लिये और जबकि स्पीडपोस्ट सेवा ने २५ रुपये लिये। दोनों ही सेवाओं में लगभग ४८ घंटों से ज्यादा का समय लगता है, परंतु अगर आप अपने कूरियर या स्पीडपोस्ट को ट्रेक करना चाहते हैं, तो यहाँ पर भी स्पीडपोस्ट की बेहतर ट्रेकिंग विश्वस्तर की है और कूरियर सेवाओं को इसमें भी मात करती है। यहाँ तक कि कई विश्वस्तर कूरियर कंपनियाँ भी इस तरह की जबरदस्त ट्रेकिंग का इस्तेमाल नहीं करती हैं।

    उसके बाद हमने सोचा कि आखिर क्यों डाक विभाग की सेवाओं से लोग भागने लगे हैं, तो पाया कि कूरियर सर्विसेस लगभग हर गली चौराहों के नुक्कड़ पर किसी न किसी दुकान में मिल जाती है, और लगभग पूरे समय आप कभी भी कूरियर कर सकते हैं, जबकि डाक विभाग का सरकारी समय निर्धारित है, और उस पर भी आपको लाईन में लगना पड़ता है तो आजकल समय किस के पास है, जो लाईन में लगे और डाक विभाग की सेवाओं का उपयोग करे।

    ६-७ वर्ष पहले उज्जैन में डाक विभाग ने कार्यालयों के लिये एक सेवा शुरू की थी, जिसके तहत शाम के समय डाकविभाग से कर्मचारी आता था और सारी डाक ले जाता था, अब पता नहीं कि वह सेवा उपलब्ध है या नहीं, परंतु उस समय लगभग हर बैंक और सरकारी कार्यालयों ने इसे तत्काल प्रभाव से उपयोग करना शुरू कर दिया था। अब शायद यह सेवा नहीं है, क्यूँकि अभी जब उज्जैन गये थे तो बैंकों में वापिस से कूरियर सेवाओं ने अपनी जड़ें जमा ली थीं, परंतु अन्य सरकारी कार्यालयों का पता नहीं है।

    कूरियर में एक अच्छी बात यह है कि आप फ़ोन कर दो वह आपके स्थान से ही आपकी डाक पिक अप कर लेगा और आप निश्चिंत हो जायेंगे, परंतु डाकविभाग के साथ ऐसा नहीं है, डाकविभाग को अपने तंत्र को प्रभावी रूप से इस्तेमाल करना होगा और उन्हें व्यावसायिक बुद्धि का परिचय देते हुए ठोस कदम उठाने होंगे। कुछ अच्छी सेवाएँ ग्राहकों के लिये देना होंगी, जिससे डाकविभाग के मजबूत तंत्र का फ़ायदा आम जनता को हो।

लड़कियों का सिगरेट पीना और शराब पीना समाज को स्वीकार करना चाहिये, समाज को बदलना होगा

    जब मैंने पहली बार प्रगति मैदान और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बाहर सिगरेट पीती हुई लड़कियों को देखा था, बड़ा अजीब लगा था कि लड़कियाँ भी सिगरेट पीती हैं। यह बात लगभग १४-१५ वर्ष पुरानी है। अब जब आज अपने आसपास देखता हूँ तो स्थितियाँ बहुत ही तेजी से बदलती जा रही हैं।
    अधिकतर स्मोकिंग जोन लंच के बाद भरेपूरे पाये जाते हैं, और इतने खचाखच होते हैं कि पैर रखने की जगह नहीं होती, अगर वहाँ कोई पैसिव स्मोकर हो तो पैसिव रहने से अच्छा है कि उसे खुद स्मोक शुरु कर देना चाहिये।
    लगभग पिछले ६ वर्षों से महानगरीय स्वरूप देख रहा हूँ। पहले दिल्ली में जहाँ कनॉट प्लेस, करोल बाग, इंडिया गेट हो या लाजपत नगर, डिफ़ेंस कॉलोनी, साऊथ एक्स. कोई भी जगह ले लो, लड़कियाँ समूह में खड़ी देख जायेंगी और उनको मजे से छल्ले उड़ाते हुए देखा जा सकता है।
    वैसे ही मुंबई में हालात ऐसे हैं कि वहाँ पर तो जहाँ मेरा कार्यालय था वहाँ लड़कों से ज्यादा स्मोकर लड़कियाँ थीं, और अगर समूह भी होते तो लड़कियाँ ज्यादा और लड़के कम और शेयर करके सिगरेट पीते हुए देखा जा सकता है। लड़कियाँ यहाँ शराब की दुकान से शराब भी खरीदते हुए देखी जा सकती हैं।
    अब आये बैंगलोर तो यहाँ तो ७०% जनता जवान है और उनकी जवानियों की अंगड़ाईयाँ यत्र तत्र सर्वत्र देखी जा सकती है, अभी जहाँ मेरा कार्यालय है वहाँ दोपहर में स्थिती देखने लायक होती है, सिक्योरिटी वाले बेचारे स्मोकर्स को चेताते चेताते परेशान हो जाते हैं, कि ये कृप्या यहाँ स्मोक न करें यह वर्जित क्षैत्र है, परंतु मजाल कि कोई सुन ले, और एक बात कि बैंगलोर में लगभग ७०% लोग कन्नड़ भाषा नहीं जानते क्योंकि वे सब उत्तर भारत से हैं। मैंने यहाँ बहुत सी लड़कियाँ देखी हैं जो कि चैन स्मोकर्स हैं। और अधिकतर स्मोकर्स लड़कियाँ वही हैं जो कि घर से बाहर रहती हैं।
    अभी थोड़े दिन पहले ही शुक्रवार को  देखा जब हम हायपर सिटी में हमारे आगे कुछ लड़कियाँ बिलिंग करवा रही थीं, व्हिस्की रम और वोद्का ले जा रही थीं और पेप्सी और कंडोम्स की बिलिंग करवा रही थीं, हमने अपनी घरवाली से कहा देखो इन लड़कियों ने सप्ताहांत पर रिलेक्स होने का पूरा इंतजाम कर लिया है, उनको भी कोई फ़र्क नहीं पड़ा क्योंकि महानगर में रहकर सोच बदल ही जाती है, खैर हमें भी अपनी सोच बदलनी होगी।
    आखिर लड़कियाँ भी कमा रही हैं आजाद हैं, स्वतंत्र हैं, घर से बाहर रहते हुए वे अपनी स्वतंत्रता का पूरा फ़ायदा उठाती हैं। यह आधुनिक सोच है और हम तो इसे मान चुके हैं कि जिसे जैसा रहना है वैसा रहे इसलिये अब कहीं कोई लड़की सिगरेट या शराब पीती हुई दिखती भी है तो हमें सामान्य जैसा ही लगता है, समाज को अब बदलना चाहिये वक्त आ गया है कि समाज को यह सच भी स्वीकार करना चाहिये कि लड़कियाँ भी लड़कों की तरह ही स्वतंत्र हैं और उनके यह अधिकार हैं अगर लड़कों के पास सारे अधिकार हैं तो। क्या हमें अपनी पुरातन मानसिकता की बेढ़ी से बाहर नहीं निकलना होगा ?

रेल्वे द्वारा तकनीक के इस्तेमाल और कुछ खामियाँ सेवाओं में.. (Technology used by Railway… some problems in services)

    पिछले महीने हमने अपनी पूरी यात्रा रेल से की और विभिन्न तरह के अनुभव रहे कुछ अच्छे और कुछ बुरे। कई वर्षों बाद बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर गये थे, हमारा आरक्षण कर्नाटक एक्सप्रेस से था और सीट नंबर भी कन्फ़र्म हो गया था। तब भी मन की तसल्ली के लिये हम आरक्षण चार्ट में देखना उचित समझते हैं, इसलिये आरक्षण चार्ट ढूँढ़ने लगे, तो कहीं भी आरक्षण चार्ट नहीं दिखा। ५-६ बड़े बड़े टीवी स्क्रीन लगे दिखे जिसपर लोग टूट पड़े थे, हमने सोचा चलो देखें कि क्या माजरा है। पता चला कि आरक्षण चार्ट टीवी स्क्रीन पर दिखाये जा रहे हैं, हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रेल्वे तकनीक का इतना अच्छा इस्तेमाल भी कर सकता है। बहुत ही अच्छा लगा कि रेल्वे ने तकनीक का उपयोग बहुत अच्छे से किया जिससे कितने ही कागजों की बर्बादी बच गई।

    बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर तकनीक का रूप देखकर रेल्वे के बदलते चेहरे का अहसास हुआ। बस थोड़ी तकलीफ़ हुई कि ट्रेन कौन से प्लेटफ़ॉर्म पर आयेगी यह कहीं भी नहीं पता चल रहा था, हालांकि टीवी पर आने और जाने वाली गाड़ियों का समय के साथ प्लेटफ़ार्म नंबर दिखाया जा रहा था, परंतु हमारी गाड़ी के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं थी। खैर पूछताछ करके पता चला कि ट्रेन एक नंबर प्लेटफ़ार्म पर आने वाली है। पूछताछ खिड़्की भी केवल एक ही थी, जिस पर लंबी लाईन लगी हुई थी और लोग परेशान हो रहे थे। हम चल दिये एक नंबर प्लेटफ़ार्म की और, जैसे ही घुसे ट्रेन सामने ही थी अब डब्बे का पता नहीं चल रहा था क्योंकि पूरी ट्रेन की लोकेशन बाहर नहीं लगी थी, तो वहीं प्रवेश द्वार पर बैठे टी.सी. महोदय से पूछा कि डिब्बा किधर आयेगा, और उन्होंने तत्परता से बता भी दिया ( जो कि हमारी उम्मीद के विपरीत था )।

    खैर डब्बे में पहुँचे तो तप रहा था क्योंकि ए.सी. चालू नहीं किया गया था, थोड़ी देर बाद ए.सी. चालू किया तब जाकर राहत मिली। हमने सोचा कि द्वितिय वातानुकुलित यान में पहले के जैसी अच्छी सुविधाएँ मौजूद होंगी और पॉवर बैकअप होता ही है, तो बहुत दिनों से छूटे हुए ब्लॉग पोस्ट पढ़ लिये जायेंगे । पहले तो हमने अपना जरूरी काम किया तो अपने लेपटॉप की बैटरी नमस्ते हो ली, अब चाहिये था बैटरी चार्ज करने के लिये पॉवर, बस यहीं से हमारा दुख शुरु हो गया। १० मिनिट बाद ही पॉवर गायब हो गया, तो इलेक्ट्रीशियन को पकड़ा गया उसने वापस से रिसेट किया परंतु फ़िर वही कहानी १० मिनिट मॆं फ़िर पॉवर गायब हो गया। उसके बाद जब हम फ़िर से इलेक्ट्रीशियन को ढूँढ़ते हुए पहुँचे तो हमें बताया गया कि इससे आप लेपटॉप नहीं चला पायेंगे केवल मोबाईल रिचार्ज कर पायेंगे। लोड ज्यादा होने पर डिप मार जाती है। कोच नया सा लग रहा था तो पता चला कि रेल्वे ने पुराने कोच को ही नया बनाकर लगा दिया है। खैर यह समस्या हमने मालवा एक्सप्रेस में भी देखी परंतु आते समय राजधानी एक्सप्रेस में यह समस्या नहीं थी। अब क्या समस्या है यह तो रेल्वे विभाग ही जाने। परंतु लंबी दूरी की गाड़ियों में यह सुविधा तो होनी ही चाहिये, आजकल सबके पास लेपटॉप होते हैं और सभी बेतार सुविधा का लाभ लेते हुए अपना काम करते रहते हैं।

    द्वितिय वातानुकुलन यान की खासियत हमें यह अच्छी लगती है कि केबिन में सीटें अच्छी चौड़ी होती हैं, परंतु इस बार देखा तो पता चला कि सीटें साधारण चौडाई की थीं। और यह हमने तीनों गाड़ियों में देखा।

    जब आगरा में थकेहारे रेल्वे स्टेशन पर पहुँचे तो गर्मी अपने पूरे शबाब पर थी, और ट्रेन आने में लगभग १ घंटा बाकी था, हमने वहाँ उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय ढ़ूँढ़ा तो मिल भी गया और ऊपर से सबसे बड़ी खुशी की बात कि ए.सी. भी चल रहे थे, मन प्रसन्न था कि चलो रेल्वे अपने यात्रियों को कुछ सुविधा तो देता है। बस सोफ़े नहीं थे उनकी जगह स्टील की बैंचे डाल रखी थीं जिस पर यात्री ज्यादा देर तक तो बैठकर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आते समय भोपाल में भी हमने रात को ४ घंटे प्रतीक्षालय में बिताये वहाँ पर भी सुविधा अच्छी थी।

    जाते समय कर्नाटक एक्सप्रेस का खाना निहायत ही खराब था, केवल खाना था इसलिये खाया, ऐसा लग रहा था जैसे कि रूपये देकर जेल में मिलने वाला खाना खरीद कर खा रहे हैं (वैसे अभी तक जेल का खाना चखा नहीं है), वैसे हमें ऐसा लग रहा था तो हम अपने साथ बहुत सारा माल मत्ता अपने साथ लेकर ही चले थे, तो सब ठीक था। आते समय राजधानी एक्स. का खाना भी कोई बहुत अच्छा नहीं था, पहले जो क्वालिटी खाने की राजधानी एक्स. में मिलती थी अब नहीं मिलती। आते समय तो दाल कम पड़ गई होगी तो उसमें ठंडा पानी मिलाकर परोस दिया गया, लगभग सभी यात्रियों ने इसकी शिकायत की, टी.सी. को बोलो तो वो कहते हैं यह अपनी जिम्मेदारी नहीं और पूछो कि किसकी जिम्मेदारी है तो बस बगलें झांकते नजर आते ।

    खैर अब सभी चीजें तो अच्छी नहीं मिल सकतीं, पर कुल मिलाकर सफ़र अच्छा रहा और अब आगे रेल्वे की सुविधा का उपयोग केवल मजबूरी में ही किया जा सकेगा क्योंकि एक तो ३६-३९ घंटे की यात्रा थकावट से भरपूर होती है और उतना समय घर पर रहने के लिय भी कम हो जाता है। अगर रेल्वे थोड़े सी इन जरूरी चीजों पर ध्यान दे तो यात्रियों को बहुत सुविधा होगी।

    अगर पाठकों को पता हो कि इन खामियों की शिकायत कहाँ की जाये, जहाँ कम से कम सुनवाई तो हो, तो बताने का कष्ट करें।

बैंगलोर की वोल्वो परिवहन व्यवस्था (Bangalore’s Volvo Bus Transportation Facility)

    रोज सुबह ऑफ़िस जाना और वापिस आना, सब अपने सुविधानुसार करते हैं। वैसे ही हम भी सरकार की वोल्वो बस का उपयोग करते हैं, बैंगलोर में सरकार ने वोल्वो की बस सुविधा इतनी अच्छी है कि अपनी गाड़ी लेने का मन ही नहीं करता है। यहाँ वोल्वो का नाम “वज्र” दे रखा है। चूँकि हम मुंबई में लंबे समय रह चुके हैं तो २०-२५ मिनिट चलना अपने लिये कोई बड़ी बात नहीं और वह भी मुंबईया रफ़्तार से, इसलिये कहीं भी आने जाने के लिये वोल्वो का ही उपयोग करते हैं।

    वोल्वो बसों की निरंतरता भी अच्छी है लगभग हर ५-१० मिनिट में व्यस्त रूट की वोल्वो बस उपलब्ध है, कुछ रूट ऐसे भी हैं जहाँ निरंतरता ३० मिनिट से १ घंटे तक की है। टिकट की कीमत भी कम से कम १० रूपये और अधिकतम ४५ रूपये है, यदि दिन भर में ज्यादा यात्रा करनी है तो ८५ रुपये का दिन भर का पास खरीद सकते हैं, जिसमें वोल्वो समेत लगभग सभी बैंगलोर लोकल वाली बसों में यात्रा कर सकते हैं। इस पास से केवल वायु वज्र और बैंगलोर राऊँड बसों में यात्रा नहीं कर सकते हैं। पूरे महीने का पास भी है, जो कि बहुत ही सस्ता पड़ता है, लगभग १३५० रूपयों का, जिसमें किसी भी रूट पर कितनी भी बार पूरे महीने में यात्रा की जा सकती है।

    आरामदायक सीट होने के साथ ही वातानुकुलित होना इस वोल्वो बस की विशेषता है, और अगर आप अपने साथ अपना सूटकेस या बैग भी ले जा रहे हैं तो उसके लिये अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जाता है। इसमें दोनों दरवाजों पर चालक का नियंत्रण रहता है, टिकट देने के लिये कुछ कंडक्टरों के पास हैंडहैल्ड मशीन होती है, जिस पर टिकट कहाँ से कहाँ तक के लिये दिया जा रहा है और उसका शुल्क टंकित रहता है। ज्यादातर चालक परंपरागत टिकट देते हैं, वोल्वो के स्टॉप कम होते हैं, और बहुत ही कम समय में अधिक गति पकड़ना इसकी विशेषता है। सड़कें अच्छी होने की वजह से झटके नहीं लगते और अगर कहीं सड़क ठीक ना भी हो तो भी इसके शॉक अप अच्छॆ हैं, झटके नहीं लगते हैं।

    गंतव्य बोर्ड पर लिखा होता है जो कि इलेक्ट्रॉनिक होता है, जिस पर बस का नंबर और स्थान लिखा होता है, यह कन्न्ड़ और आंग्ल भाषा मॆं होता है। वोल्वो में एक चौंकाने वाली बात हमॆं पता चली कि इसमॆं गियर आटोमेटिक होते हैं, केवल एक्सीलेटर और ब्रेक होता है। बिल्कुल बड़ी लेडीज टूव्हीलर जैसी, बस यह चार पहियों की होती है। इसलिये जब चालक ब्रेक मारता है तो जोर का झटका लगता है, जो कि गियर वाली गाड़ियों में बहुत कम लगता है।

    वैसे वोल्वो बस चालक कहीं पर भी रोक लेते हैं, अगर यात्री चढ़ाने होते हैं पर उतारने के लिये केवल बस स्टॉप पर ही रोकते हैं। सबसे अच्छी बात कि इन बसों में सीटों के लिये कोई आरक्षण नहीं होता। वोल्वो बस से जितनी ज्यादा कमाई होगी उतना ही ज्यादा कमीशन कंडक्टर और चालक को मिलता है, इसलिये चालक और कंडक्टर दोनों ही ज्यादा यात्रियों को लेने के चक्कर में रहते हैं। जिससे बेहतरीन सेवा तो मिलती ही है अपितु यात्री अपने गंतव्य पर जल्दी पहुँच जाते हैं।

    ऐसे ही हवाईअड्डा बैंगलोर से लगभग ४५ कि.मी. दूर स्थित है, और वायुवज्र वोल्वो सेवा लगभग बैंगलोर के हर हिस्से को जोड़ती है और इसका अधिकतम किराया १८० रुपये है, समान रखने के लिये अलग से स्टैंड बनाये गये हैं, इन बसों की निरंतरता कम है और लगभग हर रूट पर १ घंटे का अंतराल है। हवाई अड्डे से बैंगलोर आने के लिये टैक्सियों की सुविधा भी है, जो कि १५ रुपये कि.मी. से मीटर से चलती हैं, इनमें रात्रि के लिये कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जाता है। अगर बस टर्मिनल तक आयें तो कुछ टैक्सियाँ जो कि बैंगलोर जा रही होती हैं, उनसे मोलभाव किया जा सकता है और अधिकतम ३५० रूपये में बैंगलोर पहुँचा जा सकता है, जबकि मीटर वाली टैक्सी मॆं मीटर से किराया देना होता है जो कि दूरी पर निर्भर करता है अगर आप ४५ कि.मी. जा रहे हैं तो लगभग ७५० रूपयों का मीटर बनता है।

    ऑफ़िस जाने के लिये बहुत सारी कंपनियों में कैब / बस की सुविधा भी रहती है, और अगर आपको कहीं जाना है तो कंपनी की कैब / बस को हाथ देने में बुराई नहीं है वे लंबी दूरी के भी केवल १० रूपये लेती हैं, क्योंकि वे अपने कंपनी के कर्मियों को छोड़कर वापिस जा रही होती हैं।

    बैंगलोर के यातायात परिवहन के बारे में इतनी जानकारी शायद बहुत है। एक बात और गूगल मैप पर जब आप Get Direction by Public Transport ढूँढ़ते हैं तो यह वज्र और वायु वज्र बसों की जानकारी देती है, जिससे आपको पता चलता है कि उस रूट पर कौन सी बस से आप सफ़र कर सकते हैं। बैंगलोर की सभी बसों के बारे में अधिक जानकारी www.bmtcinfo.com पर Route Search से भी ले सकते हैं।

किसी भी कार्य को शुरु करने के पहले अपने अवयवों की ऊर्जा को एकत्रित करना होता है।

   मानव ऊर्जा हम जब भी कोई नया कार्य शुरु करते हैं, तो उसके बारे में अच्छे और बुरे दोनों विचार हमारे जहन में कौंधते रहते हैं, हम उस कार्य को किस स्तर पर करने जा रहे हैं और उस कार्य में हमारी कितनी रुचि है, इस बात पर बहुत निर्भर करता है। सोते जागते उठते बैठते कई बार केवल कार्य के बारे में ही सोचना उस कार्य के प्रति रुचि दर्शाता है।

     नया कार्य शुरु करने के पहले अपने सारे अवयवों की ऊर्जा एकत्रित करना पड़ती है, और फ़िर कार्य के प्रति ईमानदार होते हुए उस कार्य से जुड़े सारे लोगों के बारे में और उसके प्रभावों के बारे में निर्णय लेकर कार्य को शुरु करना चाहिये।

    हरेक कार्य के सामाजिक प्रभाव होते हैं, और हरेक कार्य के तकनीकी पहलू होते हैं जो कि मानव जीवन पर बहुत गहन प्रभाव डालते हैं।

    पर सबसे जरुरी चीज है अपने अवयवों की संपूर्ण ऊर्जा एकत्रित करके कार्य की शुरुआत अच्छे से की जाये और उसके अंजाम तक पहुँचाने के लिये भी अपनी संपूर्ण ऊर्जा का उपयोग करना चाहिये।

दिल और मन का विश्लेषण, आपके ऊपर क्या हावी रहता है, दिल या मन। दिल तो पागल है दिल दीवाना है / मन तो पागल है मन दीवाना है… (An Analysis of your Internal thoughts..)

    दिल जो केवल वही बात मानने को तैयार होता है जो कि व्यक्ति आत्मिक रुप से ग्रहण कर सकता हो, और उससे किसी को दुख नहीं पहुंचता हो, जो दिल चाहता है वह अगर उसे नहीं मिलता हो तो भी वह संतुष्ट रहता है कि चलो शायद अपना नहीं था।

     मन जो केवल वही बात मानता है जिसे मन चाहता है, जो कि व्यक्ति बाहरी रुप से ग्रहण करता है, फ़िर उससे किसी को कितनी भी चोट लगती हो उससे मन को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है, अगर चाही वस्तु मन को नहीं मिली तो हमें बहुत बुरा लगता है और असंतुष्ट असहज रहता है। मन जो चाहता है हासिल करना चाहता है, फ़िर चाहे वह बुरा हो या भला, इससे मन को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।

    जब हम कहते हैं कि अपने दिल के बात बताऊँ तो वह एक सच्ची बात होती है, परंतु जब हम मन की बात करते हैं तो वह हमारे ऊपरी आवरण के अहम को संतुष्ट को करने वाली बात करते हैं।

    अगर दिल की बात पूरी नहीं होती है तो हमें बुरा नहीं लगता है, कि चलो कोई बात नहीं कहकर अपना दिल बहला लेते हैं। परंतु अगर मन की बात पूरी नहीं होती है तो गहरी टीस हमेशा मन के किसी कोने में पलती रहती है और धीरे धीरे अहम के रुप में परिवर्तित होती जाती है।

    दिल और मन कहने को हम एक रुप में ही कहते हैं, परंतु दोनों के कर्म और सोच बिल्कुल अलग हैं, दिल अगर साधु प्रकृति का है तो मन दुष्ट प्रकृति का है।

    दिल और मन का विश्लेषण कैसा लगा, आपके ऊपर क्या हावी रहता है, दिल से बताईयेगा मन से नहीं।

    तभी तो मैं कहता हूँ कि दिल तो पागल है दिल दीवाना है / मन तो पागल है मन दीवाना है…

हमारी रेल संस्कृति

हमारे देश भारत में रेल का महत्व सर्वविदित है, नीचे दर्जे के अफसर से लेकर मंत्रियों संतरियों तक पद की मारामारी होती है अपने प्रभाव के लिये नहीं, उनका उद्देश्य तो सिर्फ धन कमाना है फिर भले ही वह रेलवे पुलिस का अदना सा सिपाही हो या टिकिट चेकर, कलेक्टर हो या फिर कोई बाबू हो या ऊपर ……… कहने की जरुरत नहीं आप खुद ही समझ जाइये आज भी मध्यमवर्गीय समाज इतना सक्षम नहीं हुआ है कि वातानुकुलित कोच में यात्रा कर सके वह तो सामान्य शयनयान में ही यात्रा करता है, फिर भले ही लालूजी ने “गरीब रथ” चला दिये हों, पर फिर भी मध्यमवर्गीय समाज की सोच वही रहेगी, वह भी सोचेगा क्यों आदत बिगाडें भले ही आप आरक्षण करवा लें परंतु आज भी कुछ मार्गों पर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिती है कि कोई और ही आपकी सीट पर कब्जा किये मिलेगा, बेचारे टी.सी. का चेहरा देखकर ऐसा लगेगा कि यह तो उसके लिये भी चुनौती है उसके पास अधिकार तो कहने मात्र के लिये हैं टी.सी. की मेहनत और कर्त्तव्यता किसी को नहीं दिखती बस सभी लोग उसकी कमाई को देखते हैं तो अरे भैया कुछ पाने के लिये कुछ खोना तो पडता ही है भ्रष्टाचार व कार्य में अनियमितता तो सरकारी तंत्र का पर्याय बन गई है, और हमारी रेल भी तो सरकारी है रेल विभाग में भ्रष्टाचार के सामान्य दैनिक उदाहरण जो कि लगभग सभी के साथ बीतते हैं …
१. R.P.F. के सिपाही ने एक व्यक्ति को पटरी पार करने के जुर्म में पकडा और कहा मजिस्ट्रेट सजा सुनायेंगे, पर ये क्या सिपाही थाने पहुँचा तो अकेला, क्योंकि वह व्यक्ति तो इनकी जेब गर्म करके जा चुका था
२. रेल विभाग की खानपान सेवा चाय लीजिये ५ रु., खाना ३५ रु., चिप्स १२ रु., कोल्डड्रिंक २२ रु., की और टैरिफ कार्ड मंगाओ तो पता चलता है कि पेंट्री मैनेजर आता है और कहता है साब बच्चे से गलती हो गई क्योंकि सभी में २‍ या ३ रु. तक ज्यादा ले रहे हैं अच्छी कमाई करते हैं ये खानपान वाले भी
३. शादी का सीजन है और आरक्षण उपलब्ध नहीं है, वैसे तो आफ सीजन में भी नहीं मिलता, अगर हम आरक्षण खिडकी पर पूछेंगे तो जबाब मिलेगा वेटिंग है और वहीं खडे एजेन्ट से कहेंगे तो वह नजरों में आपको तोलकर आपकी कीमत बता देगा जो कि १०० से ८०० रु. तक होती है पर ३०० रुपये शायद सबका फिक्स रेट है और आपको आरक्षित सीट का टिकट मिल जायेगा भगवान जाने रेल विभाग ने कैसा साफ्टवेयर बनवाया है कि उसमें भी सेटिंग है
४. रेल का जनरल टिकट ले लिया और फिर पहुँच गये सीधे रेल पर तो आरक्षण के लिये मिलिये टी.सी. महोदय से, वो कहेंगे सीजन चल रहा है, सेवा पानी करना पड़ेगी और बेचारे वेटिंग वाले वेट करते रह जाते हैं अगला आदमी सेवापानी करके सीट पर काबिज हो जाता है
यह तो महज कुछ ही उदाहरण हैं, हमारी रेल अगर समय पर आ जाये तो गजब हो जाये, आती है हमेशा लेट और अब तो आदर हो गई है, और तो और खुद रेल विभाग को नहीं पता होता कि कितनी लेट है २० मिनिट कहते हैं आती है २घंटे में
हे भगवान मैं थक गया लिखते लिखते पर रेल की महिमा ऐसी है कि खत्म ही नहीं होती, यही तो है हमारी रेल संस्कृति …….