Category Archives: अनुभव

फुरसती आदमी

बेटेलाल से अक्सर बहुत सी बातें होती रहती हैं, और वे खुलकर अपने विचार लगभग हर मुद्दे पर रखते हैं, हाँ अभी परिपक्वता नहीं है, पर समय के साथ वह भी आ ही जायेगी, परंतु इतना तो सीख ही लिया है कि अपनी राय किस तरह बनाना चाहिये व अपनी बात को दमदार तरीक़े से कैसे रखा जाये। यही आज के दौर में ही नहीं हमेशा ही ज़रूरी रहा है। हर चीज में नैसर्गिक प्रतिभा हो ज़रूरी नहीं, परंतु कुछ प्रतिभा तो हर किसी में होती हैं, बस हमें उन्हें ढूँढना होता है और फिर निखारना होता है। कई विषयों पर बात हो सकती है, कुछ ऐसे भी विषयों पर बात होती है जिसके बारे में हमें पता नहीं होता, तो हम उनकी बात सुनते रहते हैं और जब सवाल पूछते हैं तो बेटेलाल इधर उधर देखने लगते हैं। अधिकतर बार उनके पास जबाब नहीं होता, तो अगली बार ज़्यादा तैयारी के साथ आते हैं।
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ऐसे ही खाना पकाने पर बेटेलाल के साथ बात चल रही थी, कि किस तरह से खाने में बेहतर स्वाद लाया जा सकता है। जब से लॉकडाऊन लगा है तब से बेटेलाल पाककला में रूचि लेने लगे थे, क्योंकि बाहर से तो कुछ आ नहीं सकता है, खैर हमने तो अब तक बाहर से खाना नहीं मँगवाया, तो घर में ही पिज़्ज़ा, बर्गर, पास्ता और भी जाने क्या क्या बनाने लगे, अब हालत यह है कि वे कहते हैं कि रेस्टोरेंट से अच्छा खाना तो मैं घर में बना लेता हूँ, अब क्यों बाहर जाकर खाना खाना, या बाहर से मँगवाकर खाना, अब तो हम ही पकायेंगे। पर समस्या यह है कि अभी पढ़ाई में भी बहुत समय देना होता है, क्योंकि यही एक दो वर्ष जीवन की दशा दिशा तय करेंगे, तो अब उनको खाना बनाने के लिये हम मना करते हैं, कि तुम पढ़ाई कर लो, खाना बनाने का शौक़ बाद में पूरा कर लेना।
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बात करते करते अचानक ही बेटेलाल बोल पड़े, कौन इतना फुरसती आदमी रहा होगा, जिसने पहले गेहूँ दाल चावल ढूंढें होंगे, फिर पकाने का तरीका, फिर सब्जी मसाला, मतलब कि कच्चा ही खा लेते। उदाहरण के तौर पर रोटी के लिये बोले, पहले गेहूँ उगाओ फिर उसके दाने निकालो, फिर पीसकर आटा बनाओ, फिर पानी मिलाकर आटा गूंथो, फिर बेलकर रोटी बनाओ फिर आग पर पकाओ, इतनी लंबी प्रोसेस बनाने या ढूँढने में कितना लंबा समय लगा होगा।
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ऐसे ही मटर पसन्द नहीं हैं तो कहते हैं कि कौन फुरसती आदमी था जिसने फली छीलकर खाई होगी, और फिर पकाकर भी खाई होगी, अगर वो छीलकर न खाई होती तो ये जंगली फली ही रहती।

क्या आप घर में किताबें पढ़कर सुनाते हैं

यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है कि क्या आप घर में किताबें पढ़कर सुनाते हैं, हालाँकि मैं यह भी जानता हूँ कि कई घरों में तो किताबों का नामोनिशान नहीं मिलता है क्योंकि धीरे धीरे किताब पढ़ने की आदत ख़त्म होती जा रही है। किताब पढ़ने की आदत किसी को परिवार से मिलती है तो किसी को दोस्तों से तो किसी को किसी ओर को देखकर मिलती है। कोई बोर होता है तो किताब पढ़ना शुरू करता है, तो कोई किसी एक किताब को पढ़ना शुरू करता है तो फिर वहाँ उद्घृत किसी ओर किताब को भी उत्सुकतावश पढ़ने लगता है, किताब पढ़ने के दौर कई प्रकार से शुरू होते हैं।

मेरी किताब पढ़ने का दौर सरकारी वाचनालय से लाई गई किताबों से शुरू हुआ था, कई किताबें अपने कोर्स में पढ़ीं, कई दोस्तों ने बताईं, कई नाटक, एकांकी, कविताओं को सीखने के चक्कर में पढ़ीं, बस इस तरह कब यह पढ़ने के शौक़ लग गया पता ही नहीं चला। फिर धीरे धीरे जब कविताओं को पढ़ना शुरू किया तो पहले किताब ख़रीदने के लिेये पैसे नहीं होते थे, तो अपने पास एक रजिस्टर रखता था, उस पर जो कवितायें पसंद आती थीं, उन्हें लिख लेता था, अब खैर वह रजिस्टर मेरे पास नहीं है, शायद उज्जैन में घर पर हो या फिर रद्दी में बेच दिया गया हो।

जब बेचा थोड़ा बड़ा हुआ तब मैं बहुत सी किताबें पढ़ता रहता था, फिर एक बार किताब पढ़ रहा था तो बेटेलाल ने कहा कि जरा हमें भी पढ़कर सुनाओ कि ऐसा क्या इस किताब में लिखा है, जो इतना मगन होकर पढ़ रहे हो। फिर हमने ऐसी कई किताबें पढ़ीं और सुनाईं। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ कृत शेखर एक जीवनी के दोनों किताबें जब हमने पढ़कर सुनाईं जो कि तक़रीबन १९४१ व १९४४ याने कि ७० -७५ वर्ष पहले लिखी गई थीं, परंतु आज भी उनकी बातें मानस पर वैसी ही अंकित होती हैं जैसी उस समय होती होंगी, मानवीय प्रतिक्रिया, बालपन की प्रतिक्रिया में आज भी कोई अंतर नहीं हुआ।

किताबें पढ़कर सुनाने का एक फ़ायदा यह हुआ कि हमें पढ़कर सुनाने को मिलता था तो हमारा उच्चारण अच्छा हुआ, बोलना धाराप्रवाह हुआ, परिवार को सुनने का यह फ़ायदा हुआ कि जब वे सुनते थे तो कई बार हमें बीच में रोककर पूछते थे कि इस शब्द का या वाक्य का क्या अर्थ हुआ, या फिर वे भी उस बात पर अपने क़िस्से सुनाने लगते थे, या फिर कभी हमसे ही पूछा जाता था, कि डैडी कभी आपके साथ भी ऐसा हुआ है क्या। इस प्रकार हम लोग जाने अनजाने अपने कई अनुभव एक दूसरे के साथ शेयर करते रहते थे, जो कि हमेशा ही हमारी यादों में अंकित रहेगा। वे पल जो हमने साथ में बिताये, कभी हम एक दूसरे के हाथों में हाथ लिये, कभी किसी के पैर को तकिया बनाये, कभी किसी रोमांचक मोड़ पर कोई बिस्तर पर ही ज़ोर से उचक लेता, इस प्रकार के कई पल हमने साथ में बिताये। यहाँ तक कि कई बार तो कोई पैराग्राफ़ इतना अच्छा लगा कि उसे दोबारा पढ़ने की फरमाईश होती। इस सबसे जो हमें मिला वह मिला अपने परिवार के साथ अमूल्य वक़्त जो हमने कई वर्ष ऐसे ही साथ में बिताया।

क्या आपने भी कभी अपने परिवार के साथ ऐसे वक़्त बिताया है, या फिर अब बिताना चाहेंगे, ज़रूर बताइयेगा।

 

कठिन कार्यों को सीखने की कला

बहुत से काम कठिन होते हैं, परंतु सीखने और फिर रोज उसे अभ्यास करने से वे काम कब कठिन से बेहद सरल हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। बस हमारे अंदर सीखने की आकांक्षा और रोज अभ्यास करने का बल होना चाहिये। यही कठिन कार्यों को सीखने की कला है।

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सबसे पहला उदाहरण साईकिल है, साईकिल 2 चक्कों पर चलने वाला वाहन है और जिसने कभी चलाया नहीं, वह व्यक्ति साईकिल चला रहे लोगों को अजूबों की तरह देखता है, क्योंकि उसे बैलेन्स बनाना नहीं आता, परंतु जो साईकिल चला रहे होते हैं, अब उनके लिये यह रोजमर्रा का काम हो गया होता है। जब साईकिल सीखते हैं, तो लगता है कि कितने सारे काम एक साथ करना होते हैं, बैलेन्स बनाना होता है, साईकिल का हैंडल सही तरीके से पकड़ना होगा और कंट्रोल नहीं छोड़ना होगा, पैडल भी मारने होंगे, ब्रेक भी लगाना होगा, तो इन सबका सामंजस्य बैठाने में शुरू में बहुत समस्या होती है।
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ऐसे ही जब मैंने कार सीखना शुरू की थी, तो लगा था कि सबसे पहले तो कार को सही तरीके से चलाने का जजमेंट आना चाहिये, क्योंकि कार इतनी बड़ी है और आप एक तरफ कोने वाली सीट पर बैठकर चला रहे होते हैं, किसी कार में बोनट दिखता है, किसी में नहीं, इसलिये कई कारों में आपने देखा होगा कि बोनट के आगे एक डंडा लोहे का लोग लगा लेते हैं, वैसे ही पीछे की और भी लगा लेते हैं, यह कोई शौक नहीं होता, बल्कि सही जजमेंट के लिये लगा लिया जाता है।
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जब पहले दिन कार चलाना सीखना शुरू किया तो ड्राईविंग स्कूल का ड्राईवर जो सिखाता था, बहुत ही गंदी तरीके से बात करता था, और कहता भी था, कि आप बुरा मत मानना, परंतु अगर जब तक मैं इस तरह से बोलूँगा नहीं आपको याद ही नहीं रहेगी और अगली बार फिर से वही गलती करने से आप खुद ही बचोगे, आज भी जब मैं कोई गलती कर लेता हूँ, तो जहन में उसी की आवाज गूँज जाती है।
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पहले दिन केवल स्टेयरिंग हाथ में पकड़ाया और कहा कि केवल स्टेयरिंग पर ध्यान दो, गढ्ढे में गाड़ी को मत जाने दो, फिर धीरे धीरे कुछ दिनों में क्लच, एक्सीलरेटर और गियर के साथ सब कुछ सिखा दिया, पहले 15 दिन तो मेरी जान ही निकली रहती थी कि इतनी सारी चीजों के सामंजस्य के साथ कैसे लोग कार चला लेते हैं। परंतु अब इतने वर्ष हो गये चलाते चलाते तो ये सब बहुत आसान हो गया, अब तो कार चलाते चलाते बहुत से काम भी कर लिये जाते हैं।
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दोहा याद आ जाता है –
करत करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान
रसरी आवत जात ते  सिल पर पड़त निसान
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यह सामंजस्य बैठाने का खेल सबके साथ होता है, आप बताईये कि आपको क्या सीखने में सबसे ज्याादा कठिनाई महसूस हुई और फिर वही काम बहुत आसान हो गया।

दिल का दौरा

सौरव गाँगुली को दिल का दौरा 2 जनवरी 2021 को पड़ा, और उन्हें तत्काल ही अस्पताल में ले जाया गया, तथा अब एन्जियोप्लास्टी भी की गई है, हमने यह अखबारों में व सोशल मीडिया में पढ़ा। दादा जल्दी स्वस्थ हों, हमारी शुभकामनायें उनके साथ हैं।

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सब जगह यही बात चल रही थी कि खिलाड़ी को कैसे दिल का दौरा पड़ सकता है, खिलाड़ी तो इतना दौड़ते भागते हैं, फिर भी उन्हें दिल का दौरा कैसे पड़ सकता है। दरअसल खिलाड़ी होने से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि दिल का दौरा मतलब कि हमारे ह्रदय में ब्लॉकेज हो जाना, वो कोलोस्ट्रोल व ट्राईग्लिसराईड से होता है।
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कोलोस्ट्रोल याने कि कोई भी डेयरी उत्पाद जैसे कि दूध, घी, अंडा, पनीर, मांसाहार कुछ भी, वहीं दूसरी चीज है ट्राईग्लिसराईड तो यह मिलता है तेल में, भले कोई तेल हो, बादाम में सबसे ज्यादा होता है, नारियल में भी। तेल कोई हो वह आपको ट्राईग्लिसराईड देगा ही। एक बात और बता दें यहाँ कि तेल को अगर ज्यादा बार उपयोग किया जाता है तो उसमें ट्रांसफैट भी होता है, जो कि बहुत ही ज्यादा हानिकारक है, तेल को मात्र एक बार ही उपयोग करना चाहिये, उसके बाद उसमें ट्रांसफैट बनने लगता है, पर हम भारतीय लोग तेल को जाने कितनी बार उपयोग कर लेते हैं।
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तो होता यह है कि 18 वर्ष की उम्र तक शरीर की ग्रोथ होती रहती है और उसके बाद लंबाई बढ़ना बंद हो जाती है, पर खानपान में कोई सुधार नहीं होता, तो लंबाई की जगह मोटाई बढ़ने लगती है। जितना ज्यादा आप कोलोस्ट्रोल वाली चीजों का उपयोग करेंगे, उतनी ही जल्दी ह्रदयाघात की समस्या होगी। विस्तार से इस पर एक ओर पोस्ट लिख दी जायेगी।
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तो  कोलोस्ट्रोल व ट्राईग्लिसराईड डैडली कॉम्बो हैं, और उच्च रक्ताचाप तो सोने पर सुहागा है। हम यही कहेंगे कि डेयरी उत्पादों, मांसाहार, धूम्रपान, मद्यपान व तेल सबसे ज्यादा हानिकारक है। न उपयोग करें, उतना अच्छा। दादा तो बड़ी हस्ती हैं, प्रधानमंत्री जी फोन करके उनसे हालचाल पूछते हैं, व उनके लिये भारत के बेस्ट ह्रदय रोग विशेषज्ञों की तत्काल ही समिति बना दी गई, पर हम साधारण लोग हैं, हमारे लिये तो सामान्य सा डॉक्टर भी हमें लाईन में बिठायेगा। अपना व परिवार की सेहत का ध्यान हमें ही रखना है।

परिवार ही प्राथमिकता

आज सुबह मित्र से बात हो रही थी, तो उन्होंने उनके दो सहकर्मियों के लिये बात करी, जिन्हें मदद की दरकार है –

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पहला बंदा मिडिल ईस्ट में काम कर रहा था, पर उसकी मम्मी की तबियत खराब थी, और अकेला वही देखभाल करने वाला था, कंपनी से छुट्टी माँगी तो नहीं मिली, वह नौकरी छोड़कर घर आ गया और अब 6 महीने की देखभाल के बाद उसकी मम्मी स्वस्थ हैं।
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दूसरा बंदा उसका बॉस उसे बहुत परेशान कर रहा था, गालियों से बात कर रहा था, यहाँ तक कि अगर परिवार में कोई बीमार हो तो अस्पताल तक ले जाने के लिये छुट्टी नहीं देता था, कहता था कि सबसे पहले मेरा काम, परिवार बाद में, उस बंदे को यह बात नागवर गुजरी और बस नमस्ते कर दिया उस कंपनी को, क्योंकि उसके लिये पहले उसका परिवार बाद में कुछ और।
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दोनों ही मामलों मे देखा कि परिवार ही सर्वप्रथम अपनी प्राथमिकता में होना चाहिये, न कि कुछ और, अगर सब कुछ पैसा होता है, ओर पैसा कमाने के बाद अगर खुशी बाँटने को परिवार ही साथ न हो तो, ऐसे पैसे का भी क्या मतलब।
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हम भी उनकी मदद करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।

मानसिक परेशानी

कुछ बातें जो हमें परेशान करती हैं, हमेशा ही दिमाग में घूमती ही रहती हैं। और हम उनके अपने दिमाग में घूमते रहने से ओर ज्यादा परेशान हो जाते हैं। दिन हो या रात हो, जाग रहे हों या सो रहे हों, बस वही बातें दिमाग में कहीं न कहीं घूमती रहती हैं। कई बार यह बड़ी मानसिक परेशानी की वजह हो जाती है। हम चाहे कुछ भी कर रहे हों, पर हमेशा ही वह परेशानी हमारे दिमाग में घूमती ही रहती है। दिमाग शांत नहीं रहता, हमेशा ही अशांत रहता है। दिमाग में जैसे कोई फितूर घुस गया हो।

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कई बार तो लगता है कि व्यक्ति साईको हो जाता है, हम कहीं भी कितना भी भाग लें, पर उन डर के विचारों से पीछा नहीं छुड़ा पाते हैं, और जब तक कि वह परेशानी सुलझ नहीं जाती, तब तक हम किसी भी बात को सही तरीके से कर ही नहीं पाते, अपना कोई भी मनपसंदीदा काम हो, कोई फिल्म ही क्यों न हो, या फिर आपका कोई प्रिय लेखक ही क्यों न हो। भले घर में मनसपंदीदा व्यंजन बना हो, पर जब इस प्रकार की परेशानी से जूझ रहे होते हैं तो वह भी अच्छा नहीं लगता।
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कहना आसान  है कि अपना ध्यान भटकाओ, उसके बारे में मत सोचो, कुछ ओर कर लो, कहीं घूम आओ, पर दरअसल परेशानी हमें छोड़ती ही नहीं, इसका एक कारण मुझे समझ आता है कि हम अपना आत्मविश्वास कमजोर कर चुके होते हैं और उसे हम अपने दैनिक जीवन की बहुत सी आदतों में प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं, कई बार अकेले में बैठकर रोने का मन करता है, कई बार कोने में घुटनों में छुपकर रहना चाहते हैं, तो कई बार हाथ पैर काँपने लगते हैं। यह सब बहुत ज्यादा नेगेटिव वातावरण ओर ज्यादा तकलीफदेह होता है।
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समस्या का समाधान बहुत सीधा नहीं है, क्योंकि किसी पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता है, और न ही किसी को मन की पीड़ा बताई जा सकती है। कई बार छोटी परेशानी भी हम बड़ी समझ लेते हैं ओर परेशान होते रहते हैं। ऐसे समय जितना हो सके अपने आपको अच्छे लोगों के सान्निध्य में रखने की कोशिश करें, नेगेटिविटी कम करें। ध्यान करें, सुबह शाम टहलने जायें, प्रकृति के बीच रहें। छोटी छोटी चीजों में अपनी खुशियाँ ढूँढ़ें। आपने जो उपलब्धियाँ अभी तक पाई हैं, उन्हें याद करें और उनसे पॉजीटिव ऊर्जा लें।
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क्या और भी कोई तरीका है, इन परेशानियों से छुटकारा पाने का, तो बताईये?

गुस्सा, क्रोध व गालियों का शिकार

क्या आपने कभी सोचा है कि समाज में अधिकतर लोग गुस्सा, क्रोध व गालियों का शिकार क्यों होते हैं, कोई भी बचपन से गुस्सा, क्रोध या गालियों का आदतन नहीं होता है। यह हमारे आसपास की सामाजिक व्यवस्था के कारण हम सीख जाते हैं। गुस्सा, क्रोध व गालियों में बहुत आत्मनिर्भरता है, जब गुस्सा क्रोध आयेगा तभी आपके मुँह से गालियों की बरसात होगी। गुस्सा आना न आना केवल और केवल आपके ऊपर निर्भर करता है।

गुस्सा हम कब करते हैं, अगर ध्यान से देखा जाये, तो उसके अपने कुछ पहलू होते हैं, पर मुख्य पहलू होता है कि हम किसी काम से खुश न होने पर गुस्सा होते हैं, गुस्सा क्रोध कई लोगों का भयंकर रूप से फूट पड़ता है तो कई लोग उस गुस्से को बेहतरीन तरीके से सीख लेते हुए निगल लेते हैं, परंतु यहाँ मुख्यत: बात यही है कि हमारी कोई बात पूरी नहीं होती है या फिर कोई काम हमारे मनचाहे तरीके से नहीं होता है, हम जैसा चाहते हैं वैसा नहीं होता है, तो गुस्सा अभिव्यक्ति के रूप में निकल आता है।
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गालियों का अपना गणित है, जब गुस्सा क्रोध की अभिव्यक्ति में व्यक्ति गुस्सैल होता है तो उसे अभिव्यक्त करने के लिये कठोर शब्द चाहिये होते हैं जिससे सामने वाला याने कि जिस पर गुस्सा किया जा रहा है, वह आहत हो, इसलिये गालियों का सहारा लिया जाता है, कई बार साधारण सी गालियों से ही काम चल जाता है और कई बार गुस्से से उस व्यक्ति के परिवार की महिलाओं को भी लपेट लिया जाता है। और इस गाली गलौच के चक्कर में कई बार बात इतनी बढ़ जाती है कि वह घटना अपराध का रूप ले लेती है।
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मैंने ऐसे भी वाकये देखे हैं जहाँ बरसों बरस की मित्रता केवल गाली गलौच के कारण खत्म होती देखी है। कई बार हम खुशी में गाली गलौच कर लेते हैं, परंतु ऐसे वाकये कम ही होते हैं, और यह उस परिवार या समाज पर भी निर्भर करता है, जहाँ हमारा उठना बैठना है। गाली गलौच दोस्तों में होना आम बात है, कहा जाता है कि जब तक गाली गलौच न हो तब तक दोस्ती पक्की नहीं होती है।
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आप बताईये क्या आप भी गालियों का सहारा लेते हैं जब आपको गुस्सा क्रोध आता है?

ब्लॉग के लिये विषय ही याद न रहना

मैं जब ब्लॉग लिखता हूँ तो ब्लॉग के लिये विषय कभी ढूँढ़ता नहीं, बल्कि उस समय जो भी मेरे मन मस्तिष्क में चल रहा होता है, उसी विचार पर ब्लॉग लिख देता हूँ। कई बार ऐसा भी होता है कि हम किसी विषय पर चिंतन कर रहे होते हैं और उससे निकलने के लिये हमें कई बार लिखना होता है तो वह खुद के विचार ब्लॉग के रूप में प्रकट होते हैं।

आज सुबह ऐसा हुआ कि मैं ध्यान में था, और विषय मेरे सामने से निकलने लगा, सोचा था कि उसी पर ब्लॉग लिखूँगा, परंतु हुआ यह कि जब ध्यान से उठा तब तक मैं उस विषय को ही भुला बैठा, तो ऐसा कई बार हो जाता है, कोई सामान्य सी बात भी याद नहीं आती है। मेरे साथ ऐसा कई बार हो चुका है, जैसे कि कुछ चीजें होती हैं जो हम कहीं लिखकर नहीं रखते, वह गोपनीय होती हैं, परंतु हमेशा ही हमारे जहन में रहती हैं, जैसे कि बैंक का लॉगिन आई डी, पासवर्ड, मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ कि लॉगिन आईडी याद ही नहीं आता, फिर उस काम को मुझे टालना होता और थोड़ी देर बाद अपने आप ही याद आ जाता है, फिर उस काम को आगे कर पाता हूँ।
मुझे लगता है कि यह सामान्य प्रक्रिया है, और शायद सबके साथ होता है, जैसे कि कई बार मैं फोन या हैंड्सफ्री अपने आसपास ही कहीं रख देता हूँ, ढ़ूँढ़ता हूँ तो नहीं मिलते हैं, फिर परेशान होकर घर में भी सबसे पूछता हूँ, अंतत: पता चलता है कि मैं अपने पास रखा हुआ हूँ और बस वहीं न देखकर सारे घर में ढ़ूँढ़ रहा हूँ। यही जीवन में भी होता है, कई बार हममें ऐसे बहुत से अच्छे गुण होते हैं, या बातें होती हैं, जिन्हें हम जानते नहीं, परंतु हम उन्हें सीखने या पढ़ने के लिये बेताब होते हैं।
विषय की यात्रा की भी अपनी ही एक कहानी है, जैसे कि आप ब्लॉग के लिये विषय ही याद न रहना पर ही यह ब्लॉग लिख दिया।  मन में कई बातें कई बार एक साथ, तो कई बार एक के बाद एक अपने आप चुपके से आने लगती हैं, और उन पर हमारा कोई वश नहीं होता। कई बार हमें सामान्य घटना में भी कोई अच्छा भाव मिल जाता है और कई बार हम उस पर गौर ही नहीं करते। इस मन की राह बहुत कठिन है।
बताईयेगा कि आपके साथ भी कभी ऐसा हुआ है, या होता है, या होता ही रहता है।

नीरस जीवन, दार्शनिकता और लालसा का अंत

कई बार मुझे लगता है कि मैं कुछ ज्यादा ही दार्शनिक हो जाता हूँ। दार्शनिक मतलब कि दर्शन की बात करने वाला, और कई बार ऐसा होता है कि मुझे खुद ही दर्शन समझ नहीं आता या फिर मैं दार्शनिकों से भागने की कोशिश करता हूँ, शायद यह मूड पर निर्भर करता है। मैं दार्शनिक प्रोफेशनल से नहीं हूँ तो यह मेरा शौकिया शगल भी हो सकता है। Continue reading नीरस जीवन, दार्शनिकता और लालसा का अंत

सफलता और असफलता घबराना क्यों

सफलता और असफलता घबराना क्यों
इंसान असफलता से घबराता है, क्योंकि इस प्राणी का सफलता का प्रतिशत ज्यादा होता है। पर क्या आपको पता है शेर जो कि जंगल का राजा होता है, जिससे सब डरते हैं उसके शिकार की सफलता का प्रतिशत मात्र 25% होता है और 75% बार उसे असफलता मिलती है, मतलब उसे 4 बार शिकार करने पर मात्र 1 बार ही शिकार होने की संभावना होती है। पर शेर शिकार करना छोड़कर घास, फूल पत्ती नहीं खाने लगता, क्योंकि प्रकृति का अपना नियम है, सबके खानपान निश्चित हैं। असफलता से दुखी न होकर अपनी प्रकृति पहचानें व सफलता की ओर अग्रसर हों, शेर बनने की जरूरत नहीं पड़ेगी, उससे पहले ही सफलता मिलनी निश्चित है, पर आपको उतनी ही लगन से व एकाग्रचित्त होकर सफलता के लिये प्रयासरत होना होगा।
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एंटरप्रेन्योरशिप के लिये आइडिया

अपने आइडिया लिखने आने चाहिये, अच्छी तरह से उन्हें प्रस्तुत भी करना आना चाहिये, पर एंटरप्रेन्योरशिप में आइडिया अगर केवल 1 पेज का भी हो, तो भी बहुत कुछ हो जाता है। इसी को फॉलो करते हुए कल बेटेलाल ने एक आइडिया जनरेशन किया, शुरुआत है, आगे बात तो बननी ही है, किसी न किसी आइडिया को हिट तो होना ही है, बस उसके पहले बहुत सारे आइडिया सोचने होंगे, लिखने होंगे, तभी तो अनुभव आयेगा।


कोरोना से बचकर रहना होगा

लोगों को जो लगता है वह लगता रहे, मुझे लगता है कि वैक्सीन का हो हल्ला है, दूर दूर तक इसके अते पते नहीं हैं, आज की दुनिया स्वार्थी व महाबेईमानी है वे बस ऐसे ही सपने बेचते रहेंगे। लगता कि कम से कम अगले 5 से 6 वर्ष तो घर के अंदर ही गुजारने होंगे, नहीं तो बाहर राक्षस हवा में बैठा इंतजार कर ही रहा है। बाहर जाने से बचें, बस यही एकमात्र उपाय है।
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ज्यादा रिश्ते बनाने से ओर उनको निभाने से हम कमजोर व दुखी होते हैं। अंतरतम में झाँकें, व सुखी रहें, यही एक कुँजी है।