Tag Archives: मेरा जीवन

पूर्वाग्रह होना अच्छा या बुरा

पूर्वाग्रह होना अच्छा या बुरा कैसा होता है, यह सभी लोग सोचते हैं क्योंकि यह एक बहुत अच्छी आदत नहीं, बल्कि बुरी आदत है। पहले अगर यह समझ लें कि पूर्वाग्रह क्या होता है तो बेहतर होगा, हम किसी के बारे में पहले से ही उसके आचरण, व्यवहार या कार्य के प्रति कोई भावना बना लें, वह पूर्वाग्रह कहलाता है। कई बार हम बिना मिले ही किसी के बारे में पढ़कर उसके बारे में सोच समझ लेते हैं, परंतु जब हम बात करते हैं, या मिलते हैं तो पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं और कई बार हमारा पूर्वाग्रह गलत साबित होता है।

पूर्वाग्रह को हम घर में ही देख सकते हैं, अगर घर में दो बच्चे हैं एक अगर जल्दी समझ जाता है और ढंग से काम भी कर लेता है तो हम उसे होशियार की उपाधि दे देते हैं वहीं दूसरा बच्चा अगर उसी कार्य को देरी से समझकर करता है तो हमें उसे बेवकूफ या देर से समझनेवाले की उपाधि दे देते हैं। अगली बार कोई भी कार्य हो तो हम पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर पहले बच्चे को ही कहेंगे, जबकि हर व्यक्ति की अपनी विशेषता होती है, हो सकता है कि वह दूसरा बच्चा किसी ओर चीज में अच्छा हो जहाँ पहला बच्चा अच्छा न कर पाये।

पूर्वाग्रह हम लगभग हर रिश्ते में देख सकते हैं अपनी प्रोफेशनल लाईफ़ में भी देख सकते हैं, कई बार पूर्वाग्रह हम किसी की एक बात को पकड़कर बैठ जाते हैं और उसके आधार पर हम किसी भी व्यक्ति के साथ एक अजीब तरह का व्यवहार करने लगते हैं। यह भी तो हो सकता है कि जो आपको पूर्वाग्रह हो वह सही न हो, और उस व्यक्ति ने कार्य सीख लिया हो या फिर अपना व्यवहार ठीक कर लिया हो। परंतु हम मौक़ा ही नहीं देते, और हमेशा इस तरह के संवाद सुनने को मिलते हैं –

“मैंने तो पहले ही कहा था कि इसके बस की बात नहीं”

“मैंने तो पहले ही कहा था कि ये कुछ कर ही नहीं सकता”

“मुझे लगा ही था कि ये कुछ गड़बड़ कर सकता है”

“सोच ही रहा था कि अगर यह कार्य उसको देता तो सही प्रकार से हो जाता”

“काम देने के पहले ही लग रहा था कि तुम बहुत ढीले हो”

“तुम तो बेवकूफ हो बेवकूफ ही रहोगे, पता नहीं कब काम करना सीखोगे”

और भी पता नहीं क्या क्या संवाद हम अपने दैनिक जीवन में सुनते ही रहते हैं, कुछ संवाद शायद आपको अपनी याददाश्त में भी आ जायें और आप अपनी यादों में खो जायें।

कहने का मतलब केवल इतना ही है कि पूर्वाग्रह से ग्रसित न होकर हम एक बार ग़लत करने पर, उन्हें समझायें कि कैसे इस कार्य को अच्छे से कर सकते थे, या क्या गलती कर दी। और हमेशा ही दूसरा, तीसरा, चौथा …. मौक़ा देते रहें। नहीं तो सभी लोग वह कार्य कर ही नहीं पायेंगे, भले यह निजी जीवन की बात हो या प्रोफेशनल जीवन की।

आप भी टिप्पणी करके अपने विचार रखिये।

दुनिया ही ख़त्म हो गई तो क्या होगा

मन में हमेशा ही ऐसा कुछ चलता रहता है कि वैसे भी किसी के होने या न होने का बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता, बस जब तक कोई हमारे आसपास है, तब तक सब ठीक है, परंतु जब वह व्यक्ति हमारे जीवन में नहीं है तो हम उसके बिना रहना सीख लेते हैं। धीरे धीरे हमें आदत पड़ जाती है, और दरअसल होता भी इसलिये है कि जब तक वह व्यक्ति हमारे आसपास रहता है, हमें उसकी अहमियत पता नहीं होती, न ही उस व्यक्ति का महत्व पता लगता है। परंतु अचानक ही अगर वह व्यक्ति हमेशा के लिये हमारे से दूर हो जाये तो बहुत तकलीफ़ होती है, क्योंकि तब हमें अचानक ही लगता है, कि अब बहुत से कार्य जो बन जाते थे, वे अब बहुत मुश्किल होंगे। साथ रहने से हमारे मन में जुड़ाव तो रहता ही है।

कई बार सोचता हूँ कि अगर मान लो कि दुनिया ही ख़त्म हो गई तो क्या होगा, और ख़ासकर तब क्या होगा जब सब ख़त्म हो जायें और कोई 1-2 लोग ही इस पृथ्वी पर जीवित बचें, तो वे लोग कैसे अपना भरण पोषण करेंगे, क्योंकि इस धरती पर जो कुछ था, सब कुछ ख़त्म, याने कि बिजली, इंटरनेट, घर कुछ भी नहीं। जरा दो मिनिट सोचकर देखिये जहाँ आप अभी यह पोस्ट पढ़ रहे हैं, तो या तो आप सोफ़े पर हैं, या बिस्तर पर या कहीं बैठे हुए हैं, कुल मिलाकर मतलब आराम में हैं, वहीं एकदम से आप कहीं जंगल या पहाड़ या मैदान में अकेले हैं, दूर दूर तक दुनिया में कोई नहीं है। तब कैसे अपने महत्वपूर्ण कार्य भी कर पायेंगे।

आग कैसे लगायेंगे, खाना कैसे बनायेंगे, पॉटी कहाँ जायेंगे, कैसे नहायेंगे, न आपको पास गूगल होगा ढूँढने के लिये न यूट्यूब होगा वीडियो देखकर सीखने के लिये, न कोई कार होगी कहीं जाने के लिये, न कोई रेस्टोरेंट होगा। यह दुनिया अचानक ही भयावह लगने लगेगी, आपको बस ऐसा लगेगा कि यह दुःस्वप्न जितना जल्दी ख़त्म हो, उतना अच्छा है, बस सोचकर देखिये और बस अपने रोंगटे न खड़े होने दें।

जीवन बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिये हर चीज, हर व्यक्ति को सम्मान दें, भले आपको चीजें पसंद हो या नापसंद परंतु आपके कहना का ढंग सलीके भरा होना चाहिये। कई मुश्किल बातें केवल अपने व्यवहार के कारण बहुत ही आसान हो जाती हैं। यह सोचकर इस धरती पर न रहें, कि आप अहसान कर रहे हैं, बल्कि यह धरती आप पर अहसान कर रही है, ऐसा सोचेंगे तो यह आपके फ़ायदे के लिये ही होगा।

स्वभाव परिवर्तन

स्वभाव परिवर्तन क्यों होता है, यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, और यह निर्भर करता है हमारे भाव पर, कि हम उस समय किस भाव में जी रहे हैं, ग़ुस्से में हैं या प्यार में हैं या अनमने हैं। हम इन भावों पर नियंत्रण भी तभी सीखते हैं जब हम दोस्तों, परिवार और समाज के बीच रहते हैं। हमें अपने भाव पर नियंत्रण रखना होता है, भले कोई परिस्थिती हो। कुछ लोग बहुत ही ज़्यादा मारपीट या ऊँची आवाज़ में बात करने लगते हैं या एक ही परिस्थिती में रहकर, उनका मूल स्वभाव ही बदल जाता है।

दरअसल बहुत से लोग परिवर्तन स्वीकार ही नहीं कर पाते, स्वभाव हमेशा ही भाव से बनता है, अगर हम वातावरण को देखकर अपने आपको उसके अनुकूल बना लें तो शायद जीवन बहुत आसान होता है, परंतु अगर हम प्रतिकूल परिस्थितियों में ही रहने की आदत डाल लेते हैं, और हमेशा ही अपने दिमाग़ को विषम परिस्थितियों में रखते हैं तो हम अपने मूल स्वभाव को बदल नहीं सकते।स्वभाव हमेशा ही ध्यान रखें कि आपकी मानसिक मूल भावनाओं को प्रदर्शित करते हैं। जिससे कोई भी एकदम पता लगा सकता है कि ये किन परिस्थितियों में रह रहे हैं।

हर व्यक्ति में हमेशा ही कई तरह के स्वभाव होते हैं, जैसे कि मूल स्वभाव और एक दिखाने वाला स्वभाव। मूल स्वभाव की बात करें तो वह कहीं बदलता ही नहीं, हमेशा आप उसी भाव से प्रक्रिया देते हैं, यदि ग़ुस्से वाला स्वभाव है तो हमेशा ही आपका ग़ुस्से वाला रूप ही दिखेगा, वहीं अगर आपका मूल स्वभाव ही प्यार का है, तो भी आप चाहकर भी बहुत ग़ुस्से में भी अपने प्यार वाले स्वभाव को बदल नहीं पायेंगे, आपने कई लोगों को देखा होगा कि बहुत ग़ुस्से में भी चाहकर भी ग़ुस्सा नहीं कर पाते, और बातों को सहज ढंग से रखते हैं, वहीं कुछ लोग छोटी सी बात पर भी सबकुछ बिगाड़ लेते हैं, बहुत ग़ुस्सा करते हैं।दिखाने वाला स्वभाव वह है जब आपको वाक़ई किसी को कोई ओर रूप दिखाना है तो आपको एक नया चेहरा ओढ़कर अपना ग़ुस्सा या प्यार दिखाना पड़ता है, यह केवल समाज के लिये होता है, परिवार में हमेशा ही आप व्यक्ति के मूल स्वभाव को देखेंगे, अगर किसी का मूल स्वभाव पता करना हो तो, उसका पारिवारिक रूप देखना चाहिये।

मूल स्वभाव के उलट व्यक्ति बहुत दिनों तक अपने नये चेहरे वाले स्वभाव को ओढ़कर नहीं रख सकता, क्योंकि वह स्वभाव उसका है ही नहीं।

स्वभाव कैसे बदलें –

अपने स्वभाव पर ध्यान दें, अपने आपको तोलें और पूछें कि क्या मेरा कहने का भाव या व्यवहार दूसरों के प्रति सही है, अगर न समझ आये तो सोचिये कि अगर जैसा आपका मूल स्वभाव है, वही दूसरों का आपके प्रति हो तो आपको कैसा लगेगा, मेहनत का काम है, परंतु इसी प्रकार से आप अपने अंदर प्रगति ला सकते हैं। स्वभाव को बदलना बेहद दुश्कर कार्य है, क्योंकि यह आपकी मूल पहचान छीन लेगा।

मानव प्रजाति के लिये शताब्दी का सबसे कठिन समय है

मार्च 2020 से मानव प्रजाति के लिये शताब्दी का सबसे कठिन समय है, यह कोरोना आया था लगभग नवंबर 2019 में और अब जून 2021 भी लगभग ख़त्म ही होने को आया है। यह डेढ़ साल सदियों के जैसा बीता है, शुरू में तो बहुत मज़ा आया, कि घर पर ही रहना है कहीं नहीं जाना है। पर धीरे धीरे यह भी कठिन होता गया। सब अपने आप में सिमट गये, नहीं यह कहना ठीक नहीं होगा कि सिमट गये, दरअसल समाज की भी यह अपनी मजबूरी थी अपने आपको सिमटने की। नहीं तो सभी को कोई न कोई नुक़सान हो सकता था।

सिमटने के चक्कर में हमारे मानसिक अवस्था पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा, मुझे लगता नहीं कि कोई भी इन प्रभावों से बच पाया होगा। जो निडर बनकर घूमते रहे कि हम स्वस्थ हैं हमें कोरोना नहीं होगा, सबसे पहले कोरोना ने उन्हें ही शिकार बनाया। फिर मौतें कम होने लगीं तो लोग बिना किसी डर के फिर से घूमने लगे और हमने अपने कई दोस्तों, परिचितों और रिश्तेदारों को मौत के मुँह में जाते देखा, पता नहीं इस वर्ष तो मैं कितनी बार और कितनी देर तक कई बार रोया हूँ, आज भी उनके चेहरे यकायक ही आँखों के सामने आ जाते हैं, और वे मुझसे अपनी ही आवाज़ों में बात करने लगते हैं, कभी कभी लगता है कि मैं पागल हो गया हूँ, परंतु ऐसा नहीं है, पता नहीं भाग्य को यही मंज़ूर था या उनकी थोड़ी सी लापरवाही से ऐसा हुआ।

कई मित्र ऐसे थे, जिनके लिये कार्य ही सर्वोपरि था, वे रोज़ ही अपने कार्यस्थल जाने में कोई देरी नहीं करते थे, परंतु कभी उन्होंने अपने परिवार के बारे में नहीं सोचा, यह दुख होता है। वे लोग बड़े स्वार्थी थे, हमारी इतनी बातें होती थीं, मिलकर, कॉ़ल पर, व्हाट्सऐप पर, ऐसा कुछ बचा नहीं जहाँ, अपने लोगों से बात नहीं होती थी, मैं बस अपने लोगों से यही कहता था, यहाँ तक कि जब मौक़ा मिलता जो अपरिचित थे, उनको भी कहने से नहीं चूकता था, कि परिवार अंततः आपके साथ रहेगा, अगर आपको कुछ हो गया तो कार्यस्थल पर तो सारे काम कोई ओर सँभाल लेगा, परंतु आपकी कमी परिवार में कोई पूरी नहीं कर पायेगा। जिस परिवार को आप सबसे आख़िरी प्राथमिकता पर रखते हो, वही हमेशा आपके काम आयेगा। कुछ दोस्तों को जब वे अपने अंतिम समय में अस्पताल में साँसों के लिये लड़ रहे थे, शायद बात समझ में भी आई, परंतु बस वह वक़्त समझने का नहीं था।

अंतिम वक़्त में कोई कितना भी समझ ले, अच्छा बुरा सब समझ ले, परंतु जो जीवन में खो गया वह खो गया। इतने लोगों के जाने के बाद अब मैं आत्मा को ढूँढने लगा हूँ, कई फ़िल्म, डाक्यूमेंट्री देखीं, किताबें पढ़ीं, और भी पढ़ रहा हूँ, कई बार लगता है कि यह सब बस कहने की बात है, अगर इस दुनिया में सभी तरह के लोग हैं ओर कोई बुरा है कोई अच्छा है, तो क्या वाक़ई कहीं इस सबका इंसाफ़ भी होता होगा। धरती पर इतनी जनसंख्या हो गई, भगवान भी इतनी आत्माओं का प्रोडक्शन करने में थक गये होंगे, शायद उनके यहाँ भी अब जगह न होगी। सब जगह किसी एक निश्चित संख्या में ही लोग रह सकते हैं। क्या वाक़ई मरने के बाद भी कोई दुनिया होती है, क्यों हम इतने सीधा सादा जीवन अपने किसी न किसी उसूल पर बिता देते हैं, क्यों कोई ग़लत कार्य करने के बाद अपने मन और दिमाग़ पर बोझ बना लेते हैं, इसका जवाब तो खैर मेरे पास नहीं। आत्मा और परमात्मा को कोई साफ़ उत्तर कहीं नहीं है, बस एक ही चीज मिली कि ख़ुद को ढूँढे पर सही तरीक़ा बताने वाला कोई है नहीं।

इस लंबे समय में घर के दौरान यह समझ में आया कि हम सामाजिक हैं अगर हमें अकेले ही रहने को लिये छोड़ दिया जाये तो हम पागल हो जायेंगे, हमें अपने आसपास लोग चाहिये, उनका अहसास चाहिये, हमारे जीवन में हर तरह का रस होना चाहिये। जीवन जीने के लिये अपना नहीं, साथ रहने वाले और साथ चलने वाले लोगों का खुश होना ज़रूरी है।

इस लंबे समय में कई नये कार्य हाथ में लिये, पर शायद ही कोई कार्य लगातार कर पा रहा हूँ, ऐसा लगता है कि करना तो सब कुछ चाहता हूँ परंतु क्यों करूँ? इसका उत्तर नहीं मिल रहा। दिमाग़ चलने बंद हो गया, मैं लोगों को किसी काम के लिये हाँ कह देता हूँ, यह भी कह देता हूँ कि मैं बहुत आलसी हूँ, परंतु सही बात तो यह है कि मैं आलसी नहीं हूँ अगर गोया आलसी होता तो इतना लंबा हिन्दी में यह बकवास या क़िस्सा लिख नहीं रहा होता, मैं कहीं कुछ ढूँढने में व्यस्त हूँ, जो मुझे मिलने से बहुत दूर है। मैं क्या ढूँढ रहा हूँ वह मुझे साफ़ है, पर कैसे और कहाँ से मिलेगा यह मुझे पता नहीं, न ही मैं लोगों से पूछना चाहता हूँ और न इस बारे में बताने चाहता हूँ।

प्रेम अपनी जगह है और संसार की व्यवहारिकता अपनी जगह है, कहते हैं कि मरने के बाद लोगों की बुराई नहीं करनी चाहिये, मैं बरसों से लोगों को समझा रहा हूँ कि हमेशा अपने परिवार के बारे में सोचो, वे ही हैं तुम्हारे पीछे, वे तुमसे किसी टार्गेट की उम्मीद नहीं करते, अगर किसी दिन बिना रोटी लिये घर आओगे न तो वे तुमसे उस दिन की रोटी नहीं माँगेंगे, वे बिना रोटी के भूख सहन करके सो जायेंगे, वे आपको ओर परेशान नहीं करेंगे, क्योंकि आप पहले से परेशान हैं, परंतु क्या वाक़ई आप अपने परिवार को मन से दिल से अपना पाये, या यह सब सोच पाये, नहीं तो कृप्या सोचिये।

मैं कोई नहीं होता किसी पर दबाव डालने वाला, बस विनती ही कर सकता हूँ, क्योंकि यह सदी का सबसे कठिन समय है, कब यह काल विकराल का रूप धर लेगा, किसी को पता नहीं।

सोनू सूद

काश हमारा हर अभिनेता सोनू सूद होता

हम लोग बचपन से फ़िल्में देखकर बड़े हुए, फिर टीवी के धारावाहिक देखे, फ़िल्मों और धारावाहिकों से हमारे मन और व्यवहार पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इतने अभिेनेता अभिनेत्री हमारे फ़िल्म जगत में हैं, टीवी जगत में हैं, उनसे कई बार हम लोग इतनी चीजें सीखे। परंतु असल ज़िंदगी में वे लोग हमें सिखाने में असफल रहे। काश कि हमारा हर अभिनेता अभिनेत्री सोनू सूद जैसा बल रखता, मदद करने की इच्छा अंदर से होती है। अगर अभिनेता लोग अपने सेलिब्रिटी स्टेटस का उपयोग करते हैं तो बहुत से संसाधनों को जुटाना बहुत आसान हो जाता है।

दरअसल एक बात ओर है कि मदद करने की इच्छा सभी की नहीं होती, पर बस केवल एक ही अभिनेता सोनू सूद ही क्यों आगे आया, यह समझ से परे है, अभिनेता जो कि फ़िल्म स्क्रीन पर विलेन की भूमिका निभाता है, विलेन जो कि हमारे जीवन में बुरा कार्य करते हैं, पर असल जीवन में वही विलेन वाक़ई हीरो है, और बाक़ी के सारे हीरो, हीरोईन असल ज़िंदगी में विलेन लगने लगे हैं।

ये जो पर्दे के हीरो हैं वे केवल सरकार के पक्ष में ही हमेशा ट्विटर हो या समाचार का माध्यम हो, बोलते हैं। आज जब जनता के लिये बात करोगे तभी जनता को ख़ुशी होगी, केवल सरकार का पक्ष हमेशा रखने से तो किसी समस्या का समाधान नहीं होने वाला, इस तरह से असल में आप हीरो हीरोईन लोग विलेन का रोल अदा कर रहे हैं। देखते हुए लग रहा है कि आप जनता को प्यार नहीं करते, अपने चाहने वालों को नहीं चाहते, आपके लिये केवल पॉवर और पैसा ही सबकुछ है। आपके पास जो कुछ है वह चला न जाये उससे डरते हैं।

बस यही चाहत थी कि काश हमारा हर अभिनेता सोनू सूद होता, वह तो किसी फ़िल्मी ख़ानदान से भी नहीं है, अपने दम पर फ़िल्मों में अपना कैरियर बनाया, शायद सोनू सूद ही खरा सोना है। काश कि हमारे भारत में ऐसी आपदा के समय में हर क्षैत्र से सोनू सूद आते और सरकार की इस कमी को पूरा करते।

सोनू सूद के ट्वीट छोटे होते हैं परंतु ऊर्जा से भरे होते हैं, जिस तरह से वे लोगों की मदद करते हैं, उससे बहुत आशा बंधती है –

कुछ ट्वीट यहाँ बताता हूँ –

sonu sood@SonuSood·दिल टूटा है .. हौंसला नहीं।

Can’t sleep.. In the middle of night when my phone rings, all I can hear is a desperate voice pleading to save his/her loved ones. We are living in tough times but tomorrow is going to be better, just hold your reigns tight. Together we will win. Just we need some more hands.

Will be done. Your baby is our responsibility. – इस तरह की ट्वीट से विश्वास ओर बढ़ता है।

15 अगस्त को देशभक्ति दिखाने वालों के लिए संदेश ; देश के लिए कुछ करने और देशभक्ति दिखाने का इससे ज़रूरी समय कभी नहीं आएगा

सिनेमा हाल में टिकट्स की ब्लैक होते हुए देखा था। अब जान बचाने के लिए दवाइयों और ऑक्सीजन की ब्लैक होते देख रहा हूं।

मुट्ठी खोल के तो देख.. शायद तेरी हाथ की लकीरों में किसी की जान बचाना लिखा हो।

प्लेटफार्म पर राजनीति होती है। और जमीन पर काम

समय बहुत भयावह है, संयम रखें, ज़बान और दिमाग़ पर भी

समय बहुत भयावह है, संयम रखें। सबका नंबर आयेगा, अगर अब भी न सुधरे तो। कुछ दिन अपनी ज़बान पर लगाम दो, अपने फेफड़ों को मज़बूत करो, ठंडी चीजें मत खाओ पियो, ज़बान का स्वाद यह गर्मी के लिये रोक लो, इस गर्मी अपने शरीर को थोड़ा कष्ट दे लो। आप जितनी ज़्यादती अपने फेफड़ों के साथ करोगे, ऐन वक़्त पर फेफड़े आपको दगा दे जायेंगे। कोशिश करें कि साधारण तापमान का ही पानी पियें, ठंडे पानी को, बर्फीले शर्बत को न पियें। फेफड़ों को ज़्यादा तकलीफ़ न दें।

केवल फेफड़े ही नहीं, जितनी ज़्यादा काम आप अपने शरीर के अंगों से करवायेंगे, उतना ही ज़्यादा समस्या है। कुछ लोग इस बात को हँसी में लेंगे, पर दरअसल उन्हें पता ही नहीं कि हम प्लेट प्लेट भर खाना खाने वाले इंसानों को मुठ्ठीभर खाना ही ऊर्जा के लिये काफ़ी होता है। खाने में ऊर्जा नहीं होती, यह हमारे मन का वहम है। जैसे सुबह हम कहते हैं कि नाश्ता नहीं किया तो ऊर्जा कहाँ से आयेगी, पर वहीं दिन का खाना या रात का खाना खाने के बाद आप शिथिल क्यों हो जाते हो। जब भी कुछ खाओ तो उस हिसाब से तो हमेशा ही ऊर्जा रहनी चाहिये। पर यह तर्क भी लोगों को समझ में नहीं आता।

जब भूख लगे तभी खाओ, यह नियम ज़िंदगी में बना लेंगे तो हमेशा खुश रहेंगे। हम क्या करते हैं कि खाने के समय बाँध लेते हैं, सुबह ८ बजे नाश्ता करेंगे, ११ बजे फल खायेंगे फिर १ बजे दोपहर का भोजन करेंगे, ४ बजे शाम का नाश्ता करेंगे, ७ बजे खाना खायेंगे। कुछ लोग तो शाम को दो बार भी नाश्ता कर लेते हैं और फिर कहते हैं आज तो कुछ खाया नहीं फिर भी पेट भरा हुआ है, अब रात का खाना थोड़ा ओर देर से करेंगे। इस तरह हमने अपना हाज़मा भी बिगाड़ रखा है, और अपनी जीवनशक्ति के साथ हम खिलवाड़ करते हैं।

मुझे जब भी भूख लगती है, तो सबसे पहले मैं बहुत सारा पानी पीकर चेक करता हूँ कि वाक़ई मुझे भूख लग रही है या फिर दिमाग़ खाने का झूठा सिग्नल भेज रहा है, क्योंकि दिमाग़ को तो ज़बान ने कह दिया कि कुछ खाने का इंतज़ाम करो बढ़िया सा, जिसमें बढ़िया स्वाद हो, ताकि यह समय बहुत अच्छा निकले, तो दिमाग़ को खाने का झूठा सिग्नल भेजा जाता है, परंतु अगर मन अपना वश में रखें और स्वादग्रंथियों को पानी का एक लीटर स्वाद चखने को मिल जाये, फिर पेट भी सिग्नल भेजता है, कि अब कुछ ओर रखने के लिये जगह नहीं है, यहाँ मामला फ़ुल है। तो बस ज़बान निराश हो जाती है और चुपचाप रहकर कुछ ओर समय का इंतज़ार करती है। उस समय ज़बान फिर नाटक करेगी, ज़बान कसैली या स्वादहीन हो जायेगी, जिससे आर्टीफीशियली दिमाग़ को लगेगा, इससे शरीर को तकलीफ़ हो सकती है तो दिमाग़ भी सिग्नल देगा, कुछ तो खा लो, भले चुटकी भर कोई चूरण खा लो, ये ज़बान बहुत परेशान कर रही है।

पूरी प्रक्रिया यही है, लिखने को तो बहुत कुछ है, परंतु अब अगले ब्लॉग में, अगर इन स्वाद ग्रंथियों ओर शरीर के इन अवयवों पर कंट्रोल कर लिया तो हम ज़्यादा सुरक्षित हैं। हालाँकि इसके लिये दिमाग़ को वैसा ही पढ़ने लिखने के लिये साहित्य भी देना होगा, साथ ही अपने आसपास का वातावरण भी ऐसा हो सुनिश्चित करना होगा।

भैया का जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति है

कोरोना में बहुत से अपने जा रहे हैं, कभी कोई बहुत करीबी तो कभी कोई जान पहचान वाला, तो कभी किसी दोस्त की जान पहचान वाला, दुख यही है कि सब जा रहे हैं। जाने से कोई रोक भी नहीं सकता, क्योंकि यह बीमारी है ही ऐसी ख़तरनाक, लोग फिर भी जान से क़ीमती कुछ ओर समझ रहे हैं, अपना ध्यान न रखकर खुलेआम बाज़ार में घूम रहे हैं, काश कि सभी लोग इस गंभीरता को समझें। कल अपने मित्र के व्हाट्सएप के स्टेटस से पता चला कि भैया अचानक ही कोरोना का ग्रास बन गये।

हालाँकि यादें धुँधली हैं, परंतु फिर भी मुझे याद आता है कि भैया से पहले मुलाक़ात धार में एकलव्य में हुई थी, और हम लोग वहाँ उनके एकलव्य के ऑफिस में जाकर कभी किताबें पढ़ा करते थे तो कभी कोई विज्ञान का कोई प्रयोग सीखा करते थे, बहुत सी बातें वहाँ से सीखीं, पर एक बात ओर पता चली कि व्यवहारिक विज्ञान सीखने में बहुत से लोगों की रुचि नहीं थी। हमें एकलव्य केवल इसलिये अच्छा लगता था कि वहाँ वैज्ञानिक गतिविधियों के साथ ही कुछ किताबें भी पढ़ने को मिलती थीं।उन्होंने ही बर्ड वाचिंग के बारे में बताया, कई बार उनके साथ गया और पक्षियों को जाना, तब पता चल कि बर्ड वाचिंग भी एक शौक़, एक विधा होती है।

जो किताबें वहाँ पढ़ने को मिलती थीं, उस तरह की किताबें बाज़ार में कहीं भी पढ़ने के लिये उपलब्ध नहीं थीं, ख़ासकर चकमक जिसमें हर तरह की विधा का समावेश हुआ करता था, भैया का छोटा भाई विष्णु मेरा अच्छा मित्र रहा और है, इस कारण उनसे पारिवारिक संबंध भी रहे, जब हम धार से झाबुआ चले गये तो यह बातचीत का दौर लगभग ख़त्म सा हुआ था, परंतु बीच बीच में उज्जैन आना जाना लगा रहता था, तब भैया उज्जैन में ही रहने आ गये थे, तब मैं कई बार उनसे मिलने उनके घर चला जाता था, वे तथा उनका परिवार बहुत ही आत्मीय थे, हैं। भैया का जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति है, जिसे भरा नहीं जा सकता। यह आघात सहने का उनके परिवार को असीम बल मिले, और आत्मा को शांति मिले, यही प्रार्थना है।

लिखने में बहुत तकलीफ़ होती है, लिखते नहीं बनता, जब कोई बहुत आत्मीय चला जाता है, परंतु अब दौर इस प्रकार का आ गया है, कि हम जाने वाले के लिये कुछ कर नहीं सकते, जो लोग जीवित हैं, उनका बचाया जाना जरुरी है, ख़ुद को बचाना ही आज की सबसे बड़ी मानवता है, अगर आपने ख़ुद को बचा लिया तो यह समझ लीजिये कि आपने समाज के कम से कम 50 लोगों को बचा लिया।घर में रहिये सुरक्षित रहिये, बाहर जाना भी पड़े तो सुरक्षा के सारे उपाय जरुर अपनायें।