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मेरे स्वप्न में, वही नदी क्यों आती है…. मेरी कविता …. विवेक रस्तोगी

बारबार मेरे स्वप्न में

वही नदी क्यों आती है

जो मुझे बुलाती है

कहती है कि आओ जैसे तुम पहले

मेरे पास आकर बैठते थे

वैसे ही पाँव डालकर बैठो,

अब तो तुम

समुंदर के पास हो

है बहुत विशाल

पर मुझे बताओ

कि कितनी बार उसने तुम्हें

अपने पास बैठने दिया

जैसे मैंने ??

क्योंकि शब्दों से मेरा जीवन जीवन्त है …. मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

शब्दों से मेरा जीवन जीवन्त है

नहीं तो सुनसान रात्रि के

शमशान की सन्नाटे की गूँज है

सन्नाटे की सांय सांय में

जीवन भी कहीं सो चुका है

शमशान जाने को समय है

पूरी जिंदगी मौत से डरते हैं

शमशान जाने से डरते हैं

पर एक दिन मौत के बाद

सबको वहीं उसी सन्नाटे में

जाना होता है,

जहाँ रात को सांय सांय

हवा अपना रुख बदलती है

जहाँ रात को उल्लू भी

डरते हैं,

जहाँ पेड़ों पर भी

नीरवता रहती है

मैं जाता हूँ तो मुझे

मेरे शब्द जीवित कर देते हैं

क्योंकि शब्दों से मेरा जीवन जीवन्त है।

फ़िर भी मेरी सुबह और दिन भागते हुए शुरु होते हैं…..मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

रोज सुबह भागते हुए

दिन शुरु होता है,

पर सुबह तटस्थ रहती है,

सुबह अपनी ठंडी हवा,

पंछियों की चहचहाट,

मंदिर की घंटियाँ,

मेरे खिड़्की के जंगले से आती भीनी भीनी

फ़ूलों की खुश्बु,

सब कुछ तो ताजा होता है

फ़िर भी मेरी सुबह और दिन

भागते हुए शुरु होते हैं।

तुम इतने भयानक क्यों थे..! … मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

सिसकती खिड़्कियाँ

चिल्लाते दरवाजे

विलाप करते रोशनदान

चीखते हुए परदे

सब तुम्हारी याद दिलाते हैं

मेरे अतीत

तुम इतने भयानक क्यों थे !

कुछ है क्या मेरे लिये ? मेरे आने से पहले …… मेरी कविता ….. विवेक रस्तोगी

कुछ है क्या मेरे लिये ?

या सब पहले ही खर्च हो चुका है

मेरे आने से पहले,

कुछ है क्या करने के लिये ?

या सब पहले ही हो चुका है

मेरे आने से पहले,

कुछ है क्या कहने के लिये ?

या सब पहले ही कह चुके हैं

मेरे आने से पहले,

कुछ है क्या सुनने के लिये ?

या सब पहले ही सुन चुके हैं

मेरे आने से से पहले,

हमेशा जिंदगी में सब कुछ,

मेरे आने से पहले ही क्यों हो जाता है,

और जो मैं करता हूँ, वह

बाद मैं सोचता हूँ क्या मैं इसे ऐसा कर सकता था ?

बस सोचता हूँ कि सब पहले ही क्यों हो चुका होता है

मेरे आने से पहले ?

उलझनें जिंदगी की …. मेरी कविता …. विवेक रस्तोगी

उलझनें जिंदगी की

बढ़ती ही जा रही हैं

जैसे इनके बिना जीना

दुश्वार हो

उलझनें हों तभी

प्रेम की कीमत

सुलझन की कीमत

पता चलती है

क्यों

इतने बेकाबू हो जाते हैं

कुछ पल

कुछ क्षण अपनी जिंदगी के

कुछ बेहयाई भी

छा जाती है

पर फ़िर भी इम्तिहान

खत्म नहीं होता

कहीं झुरमुट में दूर

कोई शाख पर छुपकर

बैठकर

देख रहा है

पता ही नहीं है

वो उलझन है

या सुलझन है…

मजबूरी इस मानव मन की… मेरी कविता .. … विवेक रस्तोगी

कई बार
कुछ कहने की
इच्छा नहीं
होती
पर फ़िर भी
कहना पड़ता है,
कोई चेहरा
कभी बिगड़ जाता है
आईना
टूट जाता है,
बिगड़े हुए चेहरे
मैं कब तक देखूँ,
मजबूरी इस मानव मन की
चेहरे देखने की
कहने की
पता नहीं
कब खत्म होंगी
ये मजबूरियाँ
ये मानसिक तुष्टियाँ।

किरण अंधकार सुबह रात …. मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

एक किरण
रोशनी की
कहीं चुपके से
बहुत दूर से
आती हुई,

अंधकार
जो कि अँधेरे से
निकल पाने में
असमर्थ है
घुप्प,

सुबह
रोशन रोशनी
लहराती हुई
नई ताजी हवा
के झोंके
नथूनों में
दर्द जगाती है

रात
घुप्प अंधकार
सन्नाटे में
चीत्कार से
निर्जन झन्न
कहीं
सुकून देती है।

भकभकाती गर्मी में …. मेरी कविता ….. विवेक रस्तोगी

भकभकाती गर्मी में

जल रहे हैं तन मन,

एसी की सर्दी में

इतरा रहा है मन तन,

पारदर्शी काँच के प्रतिबिम्ब

बिम्बित हो रहे हैं,

इस पार सर्दी

उस पार गर्मी,

काश कि अहसास भी

ऐसे ही बिम्बित हो पाते ॥

पिस रहा हूँ मानसिक दबाब के ….. मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

पिस रहा हूँ

मानसिक दबाब के

अनगिनत

पाटों में,

क्या होगा

सहनशीलता का,

गठ्ठर जिंदगी का

भारी होता ही जा रहा है,

अंतहीन सीमाएँ हैं

इस विशाल और विद्रुप

जिंदगी की,

अंतत: भविष्य के

गर्भ में

कुछ है खौफ़नाक

सचेतनता सा,

जिसे मैं

रोक पाने में असमर्थ हूँ !