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सुबह का अलार्म अच्छा लगता है क्या “किर्र किर्र” ? आप भी बताईये अपने अनुभव…. ? हमने तो इस पर विजय प्राप्त कर ली :)

रोज सुबह उठने के लिये अलार्म की आवाज अच्छी लगती है क्या ?
अलार्म की “किर्र किर्र” किसे अच्छी लगती है, जब हमने सुबह घूमने जाने का निर्णय लिया था तब तो अलार्म दुश्मन जैसा जान पड़ता था कि “हाय” अभी तो मीठी नींद चल ही रही थी, अभी तो सोये ही थे और ये मुआ अलार्म बज पड़ा और जैसे ही अलार्म की किर्र किर्र कान में पड़ती, हम उसका टेंटुआ ऐसा दबाते कि जैसे किसी दुश्मन का दबाते हों, पर ये मुआ अलार्म तो रोज ही बजता जाता है। अगर दुश्मन का टेंटुआ दबाते तो वो शायद ही उठ पाते पर ये अलार्म जान पर ही आ पड़ता है।
अब धीरे धीरे अलार्म की जरुरत खत्म हो गयी है, हमारी जैविक घड़ी अब सक्रिय हो गई है। इसलिये अब अलार्म का “किर्र किर्र” करने का भाने या न भाने का संबंध ही खत्म हो गया है।
अब हमारी तो जैविक घड़ी अपनी सक्रियता से चल रही है, और हम तो अलार्म बजने के पहले ही उठ पड़ते हैं।
आप बताईये अपने अनुभव कि कैसा अनुभव है अलार्म का ….?

उच्च रक्ताचाप, चाय बिस्किट, चाय की नाट और पेट पर अत्याचार

    रोज की दिनचर्या बदलती जा रही है सुबह की सैर और दवाईयाँ जीवनचर्या में शामिल हो गई है। बिना मसाले की सब्जियाँ, बिना घी की रोटी, अचार बंद, पापड़ बंद, मिठाईयाँ बंद, नमकीन बंद, तला हुआ बंद सब कुछ बंद, ये डॉक्टर है या क्या, सब कुछ बंद कर दिया, अब न खाने में स्वाद है और न ही खाने की इच्छा होती है, हम भी पक्के हैं कार्य के दिनों में यह सब पालन करते हैं और बाकी के दो दिन जमकर यही सब उड़ा लेते हैं।

    अगर बाकी के दो दिन भी पूरा वही खाना खा लिया तो बस समझो कि अपन तो बहुत ही जल्दी सन्यासी होने वाले हैं, अरे जब कुछ खाना ही नहीं है तो नौकरी किसलिये करनी है, मजा में अपने शहर में जाकर ताजी हवा में रहें, इस महानगरी की दौड़ा दौड़ी से तो निजात मिलेगी।

    दिनभर में चाय ४-५ आ जाती है पर अब हम २ पर टिक गये हैं, और चाय वाले समय अपनी सीट से गायब होने में ही अपनी भलाई समझते हैं। या फ़िर ये है कि आधी चाय ले ली जाये अब आती है तो मना तो करते नहीं बनता ना। क्योंकि चाय की नाट बुरी होती है।

    दोपहर को खाना लेकर जाते हैं, मजे में खाना खाते हैं पर समस्या शुरु होती है ४बजे के बाद, लोगों को भूख लगने लग जाती है और चिप्स, बिस्किट और नमकीनों के पैकेट अपनी डेस्क पर ही खुलने शुरु हो जाते हैं, और हम अपने क्यूबिकल वालों को देखते रहते हैं, सोचते रहते हैं कि ये मुए कितनी कैलोरी खाते हैं, जैसे मेरी बंद हो गई है इन सबकी बंद हो जायेगी एक दिन।

    चिप्स के पैकेट या नमकीन के पैकेट लाकर बिल्कुल हमारे सामने ला देंगे और फ़िर मुस्कराते हुए चिढ़ाते हुए कहेंगे ले लो विवेक एक या दो से कुछ नहीं होगा और अगर गलती से अपना ईमान डोल गया तो बस क्यूबिकल की दूसरी साईड से आवाज आ जायेगी विवेक हाई बी.पी. है क्या कर रहे हो ?सबकी सोची समझी साजिश जैसी लगती है। परंतु क्या करें हम तो बेचारे हो जाते हैं।

    लिखने में ब्रेक हो गया था हमारे पारिवारिक मित्र के यहाँ रात्रिकालीन भोजन पर गये थे जहाँ दबाकर दाल ढ़ोकली और खरबूजे का पना खाया गया। विशेषकर आज बहुत दिनों बाद दो चीजें भोजन में मिली एक तो घी और दूसरी मसाला युक्त भुनी हुई हरी मिर्चें

    फ़िर शाम को ऑफ़िस से निकले तो गेट के बाहर ही कितने ही स्टॉल वाले खड़े रहते हैं, अब नाम हमसे बताया नहीं जायेगा नहीं तो यह पोस्ट पढ़ने के बाद हमारे उपर इल्जाम लगने लग जायेंगे कि खूब ऐश चल रही है और भी बहुत कुछ फ़लाना ढ़िमकाना …। फ़िर भीकाजी फ़ूडजंक्शन पड़ता है और समोसे आलूबड़े और भी गरम व्यंजनों की खुश्बुओं से अप्रभावित हुए बिना हम निकल लेते हैं सिग्नल के पास मूवी टाईम की ओर ऑटो पकड़ने के लिये, परंतु बीच में फ़िर एक सूखी भेलपूरी वाला मिल जाता है तो हम ५ रुपये में एक भेलपूरी ले लेते हैं ये सोचते हुए कि इसमें तो तला गला कुछ है नहीं खाया जा सकता है। कभी कभी उसके आगे भी रुक जाते हैं जहाँ एक पानी बताशे वाला है और इस बात पर तो हमारे एक मित्र ने घर पर शिकायत भी कर दी थी और खूब हंगामा हुआ था, और वह आज भी हमें धमकी दे देता है कि घर पर बोल दूँगा। पर फ़िर भी हम पर कोई असर नहीं है।

    “दाल ढ़ोकलीहमने बहुतायत में खा ली है और हमारा पेटेंट डायलॉग बोल देते हैं कि आज पेट पर अत्याचार कर दिया है, इसलिये यहीं विराम देते हैं। बाकी किसी ओर दिन… जब खाने पर लिखने का मन होगा ।

मुंबई महानगरी में मित्रों के आपसी रिश्तों की गर्मी जो कि मोबाईल और मिलने से भी ज्यादा जरुरी है .. और चोकोलावा केक… यम्मी

    रोज ही जिंदगी दौड़ती जा रही है, अपनी रफ़्तार से । कहने को तो मुंबई में रहते हैं, रफ़्तार जिंदगी की देखते ही बनती है, गर कभी रफ़्तार से छुट्टी मिल जाये तो मानो लॉटरी खुल गयी हो । सप्ताहांत पर पूर्ण विश्राम और अपने पारिवारिक मित्रों के साथ मेलजोल। पर एक बात है मुंबई में सामाजिक दायरा खत्म सा होता दिखता है, हमारे बहुत सारे मित्र हैं, जिसमें सभी श्रेणी के मित्र हैं जिगरी, लंगोटिया, नौकरी के दौरान जिनसे मन मिले इत्यादि।

    अभी २ दिन पहले ही हमने अपने एक मित्र को फ़ोन लगाया तो पता चला कि उनका मोबाईल व्यस्त है और आवाज आ रही है थोड़ा वेड़ानी काल करा। मोबाईल भी करो तो अपना कॉल वेटिंग पर, बात हो जाये वही बहुत है, मिलना तो दूर की बात है, और फ़िर यहाँ की सभ्यता सीख गये हैं कि अगर मोबाईल व्यस्त है तो अपने आप ही काट दिया जाये और फ़िर याद रखकर बाद में वापिस से बात की जाये या फ़िर उसका फ़ोन आ जाये, पर फ़ोन आ जाये तो बहुत ही धन्य हैं आप कि आपके मित्र ने इतनी व्यस्तता के बीच आपसे बात करना जरुरी समझा, फ़िर एक बात यह भी है कि जब वह फ़्री हो और आप व्यस्त हों तो फ़िर अपन फ़ोन काटते हैं और एस.एम.एस. करते हैं कि अभी व्यस्त हूँ, थोड़ी देर बाद कॉल करता हूँ और वापसी में मित्र का एस.एम.एस. आ जाता है ओके। तो अपने मित्रता के संबंधों में भी बहुत सारी चीजें आ गयी हैं। पर फ़िर भी केवल दिल की बात है कि घनिष्ठता कम नहीं हुई है, क्योंकि हम लोगों ने मतलब मित्रों ने आपस में बहुत सारे ऐसे पल बिताये हैं जो कि हमें बहुत करीब ले आये हैं और एक दूसरे की परेशानी समझते हैं। इन छोटी सी बातों का हमारे मधुर संबंधों में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।

    यहाँ मुंबई में रिश्ते भी समय सीमा के भीतर निपटा लिये जाते हैं जिससे दोनों पार्टी खुश, क्योंकि सभी का समय कीमती है।

    हमारे जिगरी मित्र से फ़ोन पर बात हो रही थी अरे वोही जिनका मोबाईल व्यस्त आ रहा था, उन्होंने अपने ऑफ़िस से फ़ोन किया था हमारे मोबाईल पर। तो बस हम भी बेतकल्लुफ़ हो लिये क्योंकि अपने पैसे भी नहीं लग रहे थे और अपने मित्र से दिल की बात भी कर रहे थे। वैसे भी आजकल फ़ोन पर बात करना बहुत ही सस्ता हो गया है, पहले फ़ोन पर बात करने के पहले सोच लेते थे कि केवल ५ मिनिट ही बात करेंगे पर अब मोबाईल की कॉल दर सस्ती हो गईं हैं तो अब उतना सोचना नहीं पड़ता और हाँ अवश्य ही आमदनी भी इसका एक कारण है।

    हमने मित्र को बोला कि आ जाओ शनिवार को हमारे यहीं रुकना और रविवार को निकल लेना। क्योंकि मिले हुए लगभग १ वर्ष से ज्यादा हो चुका है, महानगर में एक तरफ़ का समय किसी के यहाँ जाने का हमारे लिये तो कुछ ज्यादा ही लगता है, कि दूसरे शहर ही जा रहे हों। हमारा मानस जो दूसरे शहर का है वह तो बदल नहीं सकता है ना !!! हमारे मित्र बोले कि शनिवार को तो त्रैमासिक ऑडिट आ रहा है और रिव्यू भी है ४-५ मुश्टंडे हैडऑफ़िस से आ रहे हैं, सारी खबर लेने के लिये। तो शाम को ४-५ तो आराम बज जायेंगे, उसके बाद आ जाते हैं, हमने आगे रहकर मनाकर दिया कि अगर ८ बजे तक आओगे फ़िर क्या खाक करोगे यहाँ आकर, केवल खाना खाकर निकल लोगे, क्यों भला हम तुम्हें इतनी तकलीफ़ दें। क्योंकि रविवार को रुकने का पहले ही मना कर चुके थे, उनको उनकी श्रीमती को उनकी दीदी के घर ले जाना था, हमने सलाह दी थी कि अगले रविवार पर टलवा दिया जाये ये दीदी के यहाँ का कार्यक्रम तो हमारे मित्र बोले दादा !!! पिछले ४-५ रविवार से यही कर रहा हूँ, और अगर इस बार नहीं ले गये तो समझो कि शनिवार को ऑफ़िस में रिव्यू और रविवार को घर में !!!

फ़िर बात हुई कि चलो अब किसी और रविवार का कार्यक्रम बनाया जायेगा।

विशेष – कल डोमिनोज पिज्जा खाया गया था और वहाँ पर सभी को चोकोलावा केक बहुत पसंद आया, अगर चॉकलेट के शौकीन हों तो जरुर चखें।

ये वॉचमेन को सारे बच्चे “मामा” क्यों बोलते हैं ? असुरक्षा की भावना पर एक प्रश्न … सभी के लिये …

    आज बाजार जाते समय हम जैसे ही अपनी बिल्डिंग से बाहर निकलने लगे तभी वॉचमेन के पास कोई बच्चा आया और मामा कहकर कुछ बात कहने लगा। तो हमारी पत्नी जी ने हमारी तरफ़ मुखतिब होते हुए बोला कि ये सारे बच्चे लोग वॉचमेन को मामा क्यों कहते हैं। अनायास ही हमारे मुँह से इसका क्या जबाब निकला होगा …

जरा अंदाजा लगाईये….






जिससे इनकी मम्मी सुरक्षित रहें !!!

बात मजाक की हो गई, (कृप्या महिला मंडल इस पर कोई बबाल न करे और आपसी पति पत्नी की नोंकझोंक मानकर भुला दे)

परंतु अगर मजाक की बात छोड़ दी जाये तो वाकई यह एक ज्वलंत प्रश्न है कि हम हमारे बच्चों को मामा बोलना क्यों सिखाते हैं, क्या यह हमारी असुरक्षा की भावना को कम करता है या कुछ और….. ?

नेहरु प्लेनिटोरियम मुंबई की सैर और तारों की छांव में हमारी नींद

    सपरिवार बहुत दिनों से कहीं घूमने जाना नहीं हुआ था, और हमने सोचा कि इस भरी गर्मी में कहाँ घूमने ले जाया जाये तो तय हुआ कि नेहरु प्लेनिटोरियम, वर्ली जाया जाये। पारिवारिक मित्र के साथ बात कर रविवार का कार्यक्रम निर्धारित कर लिया गया। बच्चों को साथ मिल जाये तो उनका मन ज्यादा अच्छा रहता है और शायद बड़ों का भी।

    सुबह ९ बजे घर से बस पकड़ने के लिये प्रस्थान किया गया, बस पकड़ी ए ७० सुपर ए.सी. बस जो कि वर्ली सीलिंक होती हुई नेहरु प्लेनिटोरियम तक जाती है, और एक्सप्रेस होने के कारण रुकती भी बहुत कम है, यह फ़्लॉयओवर के ऊपर से होती हुई निकल जाती है, और रविवार होने के कारण ज्यादा ट्रॉफ़िक भी नहीं था, बच्चों को भी मजा आ रहा था, थोड़े समय पश्चात ही बस पहुँच गयी वर्ली सी लिंक पर, पहली बार इस अद्भुत रास्ते से हम निकल रहे थे, जो कि समुद्र के ऊपर से होते हुए जा रहा था। रास्ते से गुजरते समय अजीब सा उत्साह था।

    बहुत पुराने जमाने की गाड़ियाँ एकाएक हमें दिखने लगीं तो हमें लगा कि शायद हम कोई सपना देख रहे हैं, पर एक से एक पुराने जमाने की गाड़ियाँ, ऐतिहासिक…। उस दिन विन्टेज कार रैली थी हम नेहरु प्लेनिटोरियम के स्टॉप पर उतरकर फ़िर से विन्टेज कारों को देखकर लुत्फ़ ले रहे थे।

    हम सुबह १०.२० पर नेहरु प्लेनिटोरियम पहुँच गये और वहाँ जाकर देखा कि पहला शो १२ बजे हिन्दी का है और टिकिट ११ बजे से मिलेंगे केवल ५७५ सीटें उपलब्ध हैं, और हमारे मित्र लाईन में लग गये, बड़ों का टिकिट ५० रुपये है और ४ से ११ वर्ष के बच्चों का २५ रुपये। शो शुरु होने का समय था १२.०० बजे दोपहर का, वैसे शो मराठी और अंग्रेजी में भी उपलब्ध है। उनके समय १.३० बजे और ३.०० बजे है और ४.३० वापिस से हिन्दी का शो है। शो में प्रवेश का समय ११.४५ बजे से था, जो हम वहीं पास में संग्रहालय घूम आये जो कि हमारी मानवीय सभ्यता की अच्छी झलक देता है।

    संग्रहालय इतनी बड़ी जगह पर बनाया गया है कि बस !! क्योंकि यह बनाया गया था सन १९७७ में, अगर आज बनाया गया होता तो वर्ली जैसी पाश इलाके में इतनी जगह के लिये माफ़िया एड़ी चोटी का जोर लगा देते, और संग्रहालय की जगह कोई बड़ी सी बहुमंजिला इमारत खड़ी होती।

    समय होते ही वापिस से नेहरु प्लेनिटोरियम चल दिये जो कि पैदल मात्र २ मिनिट के रास्ते पर ही है, पर मुंबई की गर्मी, जो कि बरस रही थी। सबकी हालत खराब थी, इतनी गर्मी और इतने दिनों बाद घूमने के लिये निकले थे।

    नेहरु प्लेनिटोरियम के अंदर प्रवेश करते ही बहुत सुकून मिला, वहाँ पर ब्रह्मांड के बारे में बहुत ही सरल तरीके से सबकुछ समझाया गया है, हमने वहाँ चंद्रमा के ऊपर अपना वजन किया तो मात्र १५ किलो निकला और मंगल पर २४० किलो। फ़िर ब्रह्मांड के ग्रहों के एक गोल मोडल के नीचे सबको खड़ा कर दिया गया और पूरे सौर मंडल के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई, फ़िर १० मिनिट की फ़िल्म कल्पना चावला के ऊपर दिखाई गयी।

    हमें शो के लिये हॉल में जाने के लिये कहा गया और हम चल दिये हॉल में, जहाँ ब्रह्मांड के रहस्य समझाये जाने थे, हम भी अपनी कुर्सी पर लेट गये मतलब कुर्सी कुछ इस प्रकार से डिजाईन की गई है कि आप पूरे लेट सकते हैं और शो सामने दीवार पर नहीं था, शो था छत पर जो कि गोलाकार था, और डिजिटल ३ डी तकनीक से नेहरु प्लेनिटोरियम में हम ब्रह्मांड का आनन्द लेने को तैयार थे। शो शुरु हुआ और फ़िर ब्रह्मांड का सफ़र और हम ब्रह्मांड में डूबने लगे।

    इसी बीच ए.सी. की ठंडक से हमारी थकी हुई देह आराम लेने की कोशिश करने लगी थी, और तारों की छांव में बहुत सालों बाद हम झपकी ले रहे थे। ऐसा लगा कि हम अपनी छत पर सो रहे हैं, तभी एक हल्का सा टल्ला लगा जो कि हमारी धर्मपत्नी जी का था कि खर्राटे की आवाज आ रही है, यथार्थ की दुनिया में आ जाइये। हमारी नींद को थोड़ी देर की नजर जरुर लगी पर फ़िर से हमने छत पर सोने का आनन्द लिया और यह क्रम चलता ही रहा ।

    वहाँ से टेक्सी पकड़कर हम पहुँच गये कैमी कार्नर, फ़िर सबसे पहले ढूँढा गया पेटपूजा का स्थान जो कि गिरगाँव चौपटी पर आराम गेस्ट हाऊस के नीचे याने के ग्राऊँड फ़्लोर पर है, पुराना लुक और खाना भी बहुत ही बजट में, पर जब भूख लगती है तो खाना कैसा भी हो परम आनन्द आता है, आत्मा तृप्त हो जाती है, वही हाल हमारा था। बस फ़िर थोड़ी देर शापिंग काम्प्लेक्स में घूमकर मुंबई लोकल में सफ़र करके वापिस घर की ओर चल दिये।

    फ़ोटो अपने मोबाईल से खींचे थे पर वो लगा नहीं पा रहे हैं क्योंकि तकनीकी समस्या है हमारी पेनड्राईव हमारे एक मित्र के पास है और उसके बिना अपने पीसी पर अपने लेपटॉप से फ़ाईल ट्रांसफ़र नहीं कर पा रहे हैं, फ़ोटो फ़िर कभी दिखा दी जायेगी।

“ऐ मिडम इधर का सेठ किधर है, अपुन के भाई को बात करने का है”

     कभी कभी कुछ पुरानी यादें चाहे अनचाहें अपने आप जहन में आ जाती हैं, और उसमें हास्य का पुट भी होता है तो गंभीरता भी। ऐसी ही एक बात हमें हमारे पढ़ाई के समय की याद आ गई, हम कम्प्यूटर कोर्स कर रहे थे और उस समय कम्प्यूटर कोर्स करना एक फ़ैशन जैसा था कि अगर कॉलेज में पढ़ने वाले ने कोर्स नहीं किया तो उसका जीवन ही बेकार है या बेचारा अनपढ़ ही रह गया। हालांकि जॉब के तो दूर दूर तक अते पते नहीं थे कि इस कोर्स करने से क्या फ़ायदा होने वाला है, परंतु कम्प्यूटर संस्थानों का शायद वह स्वर्णिम युग था, खूब पैसा कमाया सारे संस्थानों ने उस स्वर्णिम काल में।

    हम भी एक नामी संस्थान में डिप्लोमा कोर्स कर रहे थे, और फ़ीस इतनी कि सुनकर अच्छे अच्छे फ़न्ने खाँ को पसीना आ जाये, और जॉब के नाम पर कोई ग्यारण्टी नहीं। हमारे जूनी उज्जैन के कुछ इलाके हैं जो कि अपने आप में बहुत प्रसिद्ध हैं जैसे कि सिंहपुरी, तोपखाना, गुदरी इत्यादि। उस जमाने में तो इन इलाकों के नाम से ही दहशत टपकती थी, हालांकि सिंहपुरी विद्वत्ता के लिये भी प्रसिद्ध है और रहा है।
    
    सिंहपुरी पंडितों की बस्ती है जहाँ अभिवादन की परंपरा भी निराली है, अगर दूसरे से हाल पूछना है तो पूछेंगे देवता कई हालचाल हैं, आशीर्वाद तो हैं नी मालवी भाषा के साथ, वहीं इस इलाके में सिंह लोगों का भी निवास था जो कि कर्म से सिंह थे याने कि धर्म से सिंह और धर्म की रक्षा हेतु हमेशा तत्पर ।

    हमारे संस्थान में एक लड़की पढ़ती थी जो कि किसी सिंह की बहन थी और संस्थान ने उससे कुछ वादा किया होगा कि कम फ़ीस लेंगे या कुछ ओर हमें ज्यादा जानकारी नहीं है, तो संस्थान में उस लड़की का कुछ विवाद चल रहा था। हमारी क्लास का समय सुबह ७ बजे होता था हम हमारी क्लास में अध्ययन कर रहे थे और हमारी क्लास जो कि बिल्कुल मुख्य द्वार के सामने थी, जहाँ से हम मुख्य द्वार की सारी गतिविधियों पर नजर रख सकते थे।

    माधव कॉलेज स्टाईल (ये भी बतायेंगे किसी ओर पोस्ट में) में १०-१२ लड़के धड़धड़ाते हुए संस्थान में घुस आये और सोफ़े पर धँस गये और जो वहाँ बैठे थे उन्हें उठाकर संस्थान से बाहर जाने का इशारा कर दिया गया तो बेचारे चुपचाप बाहर निकल गये। और एक चमचा स्टाईल का बंदा हाथ में हथियार लहराते हुए संस्थान में किससे बात करनी है उसे ढूँढ रहा था कि उसे एक केबिन में एक मैडम दिखाई दीं तो वहीं चिल्लाकर बोला ऐ मिडम इधर का सेठ किधर है, अपुन के भाई को बात करने का है। फ़िर मैडम ने जैसे तैसे उन सबको शांत किया और सर को बुलाकर लाईं और बंद केबिन में कुछ शांतिवार्ता हुई, और वापिस से सिंह लोग माधव कॉलेज स्टाईल में बाहर निकल गये।

पर सिंहपुरी के सिंहों का वाक्य आज भी जहन में गूँजता है तो बरबस ही उसमें हमें हास्य का पुट मिलता है।

उज्जैन यात्रा वृत्तांत, प्लेटफ़ार्म पर हॉट पीस…

    तीन दिन की छुट्टियों में हम चले उज्जैन, और उसके बने कुछ वृत्तांत और संस्मरण।

    घर से बाहर निकले ऑटो पकड़ने के लिये, और सड़क पर खड़े होकर ऑटो को हाथ देने का उपक्रम करने लगे, दो तीन ऑटो वालों ने मीटर होल्ड पर किया था, मतलब साईड में किया हुआ था जिससे पता चलता है कि ऑटो वाला घर जा रहा है और सवारी को लेकर नहीं जायेगा। और कुछ ऑटो वाले जो कि सवारी की तलाश में थे और मीटर डाऊन नहीं था वे रुककर हमेशा पूछेंगे कहाँ जाना है, गंतव्य बताओ तो जाने को तैयार नहीं और चुपचाप अपनी गर्दन से नहीं का इशारा करके चुपके से निकल लेंगे। पर मुंबई में अगर आपके पास सामान है तो ऑटो वालों को पता रहता है कि ये सवारी या तो एयरपोर्ट जायेगी या रेल्वे स्टेशन। सामान साथ में रहने पर ऑटो मिलने में ज्यादा आसानी रहती है,  जो भी ऑटो चालक उधर जाने का इच्छुक रहता है चुपचाप आ जाता है। तो हम चल दिये बोरिवली स्टेशन अपनी ट्रेन पकड़ने के लिये, वेस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे से नेशनल पार्क होते हुए बोरिवली स्टेशन पहुँचे। तो देखा कि बोरिवली का प्लेटफ़ार्म नं ६ बनकर तैयार हो चुका है।

    मुंबई में रहकर अगर आप लोकल ट्रेन में सफ़र नहीं करते हैं, तो बहुत ही भाग्यशाली हैं या नहीं यह तो अपने मनोविज्ञान पर निर्भर करता है, क्योंकि लोकल ट्रेन का सफ़र भी जिंदगी का एक अहम हिस्सा होता है। बहुत दिनों बाद लोकल ट्रेन और उसमें फ़ँसे लदे फ़दे लोगों को देखकर कुछ अजीब सा लग रहा था हमारी आँखों को !!

    और हम भी जैसे ही स्टेशन की सीढ़ियों पर चढ़े हम भी मुंबई की उस खास जीवनशैली का हिस्सा हो गये केवल अंतर यह था कि हमारे पास सामान था, जिससे साफ़ जाहिर हो रहा था कि हम लोकल ट्रेन नहीं पकड़ने वाले हैं, हम कहीं लंबी दूरी की ट्रेन पकड़कर जाने वाले हैं। सीढ़ियों पर चढ़ते समय देखा कि सीढ़ियाँ जहाँ से शुरु हो रही थीं वहीं पर कुछ कारीगर टाईल्स शुद्ध सीमेन्ट से लगा रहे थे, और सीढ़ियों पर जहाँ यात्रियों के पैर नहीं पड रहे हैं वहाँ बारीक रेत इकठ्ठी हो चुकी थी और सब उस रेत को रौंदते हुए अपने गंतव्य की ओर चले जा रहे थे।

    फ़िर हम पहुँचे बोरिवली के प्लेटफ़ार्म नंबर ४ पर जहाँ कि अवन्तिका एक्सप्रेस आती है। हमारा कोच इंजिन से पाँचवे नंबर पर था जो कि सबसे आगे होता है, हम भी कोच ७ के पास रुक लिये और अपने परिवार को वहीं बेंच पर टिक जाने के लिये बोला, और हम खड़े होकर इधर उधर देखने लगे। क्योंकि उज्जैन जाने वाली ट्रेन में कोई न कोई पहचान का मिल ही जाता है, पर वहाँ भीड़ जयपुर की भी थी जो कि अवन्तिका के ५ मिनिट पहले आती है, और विरार, वसई रोड और भईन्दर की लोकल ट्रेन सरसराट मुंबईकरों से लदी फ़दी चली जा रही थीं। जो लोग पहली बार मुंबई आये थे और जो लोग विरार कभी इन लोकल ट्रेन में नहीं गये थे वो दाँतों तले ऊँगलियों को चबा रहे थे।

    हमारे बेटेलाल ने हमसे फ़रमाइश की हमें टॉफ़ी चाहिये, तो हम उसको ले चले एक स्टॉल की ओर, जहाँ बहुत सारी प्रकार की टॉफ़ियाँ थी, जहाँ बेटेलाल ने एक चुईंगम और कुछ और टॉफ़ियों को अपने कब्जे में किया और हमारी तरफ़ मुखतिब होकर बोले “डैडी पैसे दे दो”। फ़िर वापिस से प्लेटफ़ार्म पर अपने कुछ समय की जगह पर आ गये और वापिस से इंतजार की प्रक्रिया शुरु हो गई।

    इतने में जयपुर एक्सप्रेस चली गई और अवन्तिका एक्सप्रेस की लोकेशन लग गयी, यात्री अपनी अपनी लोकेशन की ओर दौड़ने लगे और एकदम पूरे प्लेटफ़ार्म पर अफ़रा तफ़री जैसा माहौल हो गया। हम भी अपनी लोकेशन पर पहुँचकर ट्रेन का आने का इंतजार करने लगे। हमारे कोच में सब नौजवान पीढ़ी के लोग ही थे, चारों ओर जवानियों से घिरे हुए थे, ऐसा लग रहा था जैसे हम कॉलेज में आ गये हैं, दरअसल इंदौर और उज्जैन जा रहे थे ये सारे नौजवान जो कि मुंबई में बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कार्य करते थे। इतने में ही वहीं पर एक हॉट पीस आ गया मतलब कि एक लड़की जो कि मॉडल जैसी लग रही थी, छोटी सी ड्रेस पहनी हुई थी और साथ का लड़का वह भी मॉडल लग रहा था, बल्ले शल्ले अच्छे थे। तो हमारी घरवाली बोली कि जिस भी कंपार्टमेंट में यह जा रही होगी उसके तो सफ़र में चार चाँद लग जायेंगे। सबकी निगाहें वहीं लगी हुई थीं, इतने में ट्रेन आ गई और हम अपने समान के साथ ट्रेन में लद लिये। और जब ट्रेन चलने लगी तो हमारी घरवाली ने बताया कि वो हॉट पीस तो किसी को छोड़ने आयी थी, न कि यात्रा करने। हमने सोचा कि चलो अच्छा है कम से कम हमें किसी ओर कंपार्टमेंट से ईर्ष्या करने का मौका नहीं मिला।

    फ़िर खाना खाने के बाद हम भी सो लिये और सुबह ७.१० बजे ही उज्जैन पहुँच गये।

खुशखबरी !!! संसद में न्यूनतम वेतन वृद्धि के बारे में वेतन वृद्धि विधेयक निजी कर्मचारियों के लिये विशेषकर (About Minimum Salary Increment Bill)

    वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने एक विधेयक पारित किया है जो कि २०१०-२०११ वित्त वर्ष से प्रभावी होगा, जिसमें यह कहा गया है कि सभी निजी कंपनियाँ अपने कर्मचारियों को हर छ: माह में कम से कम ८ % की वेतनवृद्धि देनी होगी।  यह सब हुआ एक याचिकाकर्ता की याचिका से जिसमें यह कहा गया था कि निजी कंपनियों में काम के घंटे बढ़ते ही जा रहे हैं और समय से ज्यादा कार्य करने पर किसी सुविधा और भत्ते का भुगतान नहीं किया जाता है। इस विधेयक में यह भी कहा गया है कि सभी कर्मचारियों के लिये हर साल कम से कम २५ आकस्मिक छुट्टी प्रदान की जायें।
    सभी निजी कंपनियों की सूचि नीचे दी गई है जिनको इस विधेयक के कार्यांवयन के पहले दौर में लाया गया है, अगर आपकी कंपनी भी इस सूचि में है तो कृप्या यह ब्लॉग लिंक अपने मित्रों, सहयोगियों को भेजकर उनको भी इस बारे में जागरुक करें।

डैडी जल्दी घर पर चाहिये तो भगवान से प्रार्थना करो कि भगवान डैडी को जल्दी घर पर भेज दो..

    फ़िर चले अपने घर मुंबई, चैन्नई से वापिस शाम की फ़्लाईट है, सफ़र पर जाने के पहले पेट में जाने कैसा कैसा महसूस होता है, वह मैं अभी साफ़ साफ़ महसूस कर रहा हूँ, हाँ यात्रा रोमांचक होती है पर केवल तब जब आप कभी कभी यात्राएँ कर रहे होते हैं, परंतु अगर यात्राएँ जीवन का अंग बन जायें तो वह रोमांच खत्म ही हो जाता है, पूरा जीवन यायावर हो जाता है।

    बस अंतर केवल हममें और साधुओं में यही है कि वो नगरी नगरी बिना किसी लालच के ज्ञान बांटते हुए घूमते थे और हम घूमते हैं अपनी रोजी रोटी के लिये, बहुत पहले एक एस.एम.एस. आया था पहले जो लोग घर छोड़ कर दूर रहते थे अपने घरों से और कभी कभी घर आते थे, पहले उन्हें साधु कहते थे और अब उन्हें सॉफ़्टवेयर इंजीनियर कहते हैं।

    घर पर बता दिया है पर बेटे को नहीं बताने का बोला है, उसे बोला है कि डैडी जल्दी घर पर चाहिये तो भगवान से प्रार्थना करो कि भगवान डैडी को जल्दी घर पर भेज दो, मैं उनके बिना नहीं रह पाता हूँ। कल तो भगवान से प्रार्थना करते हुए बहुत रो रहा था बोल रहा था “भगवान जी डैडी को जल्दी भेज दो मैं सबका कहना मानूँगा, कोई शैतानी नहीं करुँगा” तो मैंने बेटेलाल की मम्मी से पूछा कि अब क्या कर रहे हैं, पता चला कि कबका आँसू पोंछकर नीचे बगीचे में बच्चों की टोली में खेलने निकल गये हैं, सब नाटकबाजी है। हमें भी मन ही मन बहुत आनंद आया।

    बस इस सफ़र का आनंद अपने बेटे के पास जाकर ही खत्म होगा, हमेशा की तरह मैं जैसे ही घंटी बजाऊँगा, वो दरवाजा खोलेगा और बोलेगा अरे डैडी आ गये, और फ़िर एक पल के लिये शरमा जायेगा और फ़िर अपना समान भी ढंग से नहीं रख पाता हूँ कि मेरे ऊपर सवार हो जाता है, और प्यार करते हुए कहता है, तुतलाते हुए “डैडी, डैडी मैं आपके बिना नहीं रह पाता हूँ, मुझे आपकी बहुत याद आ रही थी, और मैं रोया भी था, आप मेरे लिये क्या लाये हो !!!” फ़िर “अच्छा नहीं लाये हो तो कोई बात नहीं, मुझे चाकलेट खानी है, आईसक्रीम खानी है !!” और इसी आनंद में अपनी सारी थकान उतर जाती है।

वैदिक स्टाईल ऑफ़ मैनेजमेन्ट

आज सायंकालीन सैर के साथ हम सुन रहे थे गोविंद प्रभू का लेक्चर वैदिक स्टाईल ऑफ़ मैनेजमेन्ट। जिसमें उन्होंने क्षत्रिय और ब्राह्मण के गुण बताये हैं।

आज फ़िर सायंकालीन सैर के लिये हम निकल पड़े मरीना बीच की ओर, फ़िर वहाँ समुद्र के किनारे लहरों को देखते हुए घूम रहे थे और जहाँ जनता थोड़ी भी कम होती थी वहीं युगलों की जुगत जमी रहती थी और युगल समुन्दर के किनारे एक दूसरे के आगोश में, एक दूसरे की बाँहों में, और भी न जाने कैसे कैसे बैठे थे जिससे बस वह अपने साथी के ज्यादा से ज्यादा समीप आ सके। खैर यह तो सभी जगह होता है कोई नई बात नहीं है।

फ़िर जब वापिस आने को हुए तो लेक्चर खत्म हो चुका था और एफ़.एम. पर गाने सारे तमिल भाषा में आ रहे थे, जो कि अपनी समझ से बाहर थे तो अपनी एम.पी.३ लिस्ट पर नजर डाली तो गुलाल के गाने नजर आये, बस मन चहक उठा, “मन बोले चकमक ओये चकमक, चकमक चकमक”, “रानाजी मोरे गुस्से में आये ऐसे बलखाये आय हाय जैसे दूर देश के टॉवर में घुस जाये रे ऐरोप्लेन” ।