Tag Archives: संस्मरण
उच्च रक्ताचाप, चाय बिस्किट, चाय की नाट और पेट पर अत्याचार
मुंबई महानगरी में मित्रों के आपसी रिश्तों की गर्मी जो कि मोबाईल और मिलने से भी ज्यादा जरुरी है .. और चोकोलावा केक… यम्मी
ये वॉचमेन को सारे बच्चे “मामा” क्यों बोलते हैं ? असुरक्षा की भावना पर एक प्रश्न … सभी के लिये …
नेहरु प्लेनिटोरियम मुंबई की सैर और तारों की छांव में हमारी नींद
“ऐ मिडम इधर का सेठ किधर है, अपुन के भाई को बात करने का है”
उज्जैन यात्रा वृत्तांत, प्लेटफ़ार्म पर हॉट पीस…
तीन दिन की छुट्टियों में हम चले उज्जैन, और उसके बने कुछ वृत्तांत और संस्मरण।
घर से बाहर निकले ऑटो पकड़ने के लिये, और सड़क पर खड़े होकर ऑटो को हाथ देने का उपक्रम करने लगे, दो तीन ऑटो वालों ने मीटर होल्ड पर किया था, मतलब साईड में किया हुआ था जिससे पता चलता है कि ऑटो वाला घर जा रहा है और सवारी को लेकर नहीं जायेगा। और कुछ ऑटो वाले जो कि सवारी की तलाश में थे और मीटर डाऊन नहीं था वे रुककर हमेशा पूछेंगे कहाँ जाना है, गंतव्य बताओ तो जाने को तैयार नहीं और चुपचाप अपनी गर्दन से नहीं का इशारा करके चुपके से निकल लेंगे। पर मुंबई में अगर आपके पास सामान है तो ऑटो वालों को पता रहता है कि ये सवारी या तो एयरपोर्ट जायेगी या रेल्वे स्टेशन। सामान साथ में रहने पर ऑटो मिलने में ज्यादा आसानी रहती है, जो भी ऑटो चालक उधर जाने का इच्छुक रहता है चुपचाप आ जाता है। तो हम चल दिये बोरिवली स्टेशन अपनी ट्रेन पकड़ने के लिये, वेस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे से नेशनल पार्क होते हुए बोरिवली स्टेशन पहुँचे। तो देखा कि बोरिवली का प्लेटफ़ार्म नं ६ बनकर तैयार हो चुका है।
मुंबई में रहकर अगर आप लोकल ट्रेन में सफ़र नहीं करते हैं, तो बहुत ही भाग्यशाली हैं या नहीं यह तो अपने मनोविज्ञान पर निर्भर करता है, क्योंकि लोकल ट्रेन का सफ़र भी जिंदगी का एक अहम हिस्सा होता है। बहुत दिनों बाद लोकल ट्रेन और उसमें फ़ँसे लदे फ़दे लोगों को देखकर कुछ अजीब सा लग रहा था हमारी आँखों को !!
और हम भी जैसे ही स्टेशन की सीढ़ियों पर चढ़े हम भी मुंबई की उस खास जीवनशैली का हिस्सा हो गये केवल अंतर यह था कि हमारे पास सामान था, जिससे साफ़ जाहिर हो रहा था कि हम लोकल ट्रेन नहीं पकड़ने वाले हैं, हम कहीं लंबी दूरी की ट्रेन पकड़कर जाने वाले हैं। सीढ़ियों पर चढ़ते समय देखा कि सीढ़ियाँ जहाँ से शुरु हो रही थीं वहीं पर कुछ कारीगर टाईल्स शुद्ध सीमेन्ट से लगा रहे थे, और सीढ़ियों पर जहाँ यात्रियों के पैर नहीं पड रहे हैं वहाँ बारीक रेत इकठ्ठी हो चुकी थी और सब उस रेत को रौंदते हुए अपने गंतव्य की ओर चले जा रहे थे।
फ़िर हम पहुँचे बोरिवली के प्लेटफ़ार्म नंबर ४ पर जहाँ कि अवन्तिका एक्सप्रेस आती है। हमारा कोच इंजिन से पाँचवे नंबर पर था जो कि सबसे आगे होता है, हम भी कोच ७ के पास रुक लिये और अपने परिवार को वहीं बेंच पर टिक जाने के लिये बोला, और हम खड़े होकर इधर उधर देखने लगे। क्योंकि उज्जैन जाने वाली ट्रेन में कोई न कोई पहचान का मिल ही जाता है, पर वहाँ भीड़ जयपुर की भी थी जो कि अवन्तिका के ५ मिनिट पहले आती है, और विरार, वसई रोड और भईन्दर की लोकल ट्रेन सरसराट मुंबईकरों से लदी फ़दी चली जा रही थीं। जो लोग पहली बार मुंबई आये थे और जो लोग विरार कभी इन लोकल ट्रेन में नहीं गये थे वो दाँतों तले ऊँगलियों को चबा रहे थे।
हमारे बेटेलाल ने हमसे फ़रमाइश की हमें टॉफ़ी चाहिये, तो हम उसको ले चले एक स्टॉल की ओर, जहाँ बहुत सारी प्रकार की टॉफ़ियाँ थी, जहाँ बेटेलाल ने एक चुईंगम और कुछ और टॉफ़ियों को अपने कब्जे में किया और हमारी तरफ़ मुखतिब होकर बोले “डैडी पैसे दे दो”। फ़िर वापिस से प्लेटफ़ार्म पर अपने कुछ समय की जगह पर आ गये और वापिस से इंतजार की प्रक्रिया शुरु हो गई।
इतने में जयपुर एक्सप्रेस चली गई और अवन्तिका एक्सप्रेस की लोकेशन लग गयी, यात्री अपनी अपनी लोकेशन की ओर दौड़ने लगे और एकदम पूरे प्लेटफ़ार्म पर अफ़रा तफ़री जैसा माहौल हो गया। हम भी अपनी लोकेशन पर पहुँचकर ट्रेन का आने का इंतजार करने लगे। हमारे कोच में सब नौजवान पीढ़ी के लोग ही थे, चारों ओर जवानियों से घिरे हुए थे, ऐसा लग रहा था जैसे हम कॉलेज में आ गये हैं, दरअसल इंदौर और उज्जैन जा रहे थे ये सारे नौजवान जो कि मुंबई में बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कार्य करते थे। इतने में ही वहीं पर एक हॉट पीस आ गया मतलब कि एक लड़की जो कि मॉडल जैसी लग रही थी, छोटी सी ड्रेस पहनी हुई थी और साथ का लड़का वह भी मॉडल लग रहा था, बल्ले शल्ले अच्छे थे। तो हमारी घरवाली बोली कि जिस भी कंपार्टमेंट में यह जा रही होगी उसके तो सफ़र में चार चाँद लग जायेंगे। सबकी निगाहें वहीं लगी हुई थीं, इतने में ट्रेन आ गई और हम अपने समान के साथ ट्रेन में लद लिये। और जब ट्रेन चलने लगी तो हमारी घरवाली ने बताया कि वो हॉट पीस तो किसी को छोड़ने आयी थी, न कि यात्रा करने। हमने सोचा कि चलो अच्छा है कम से कम हमें किसी ओर कंपार्टमेंट से ईर्ष्या करने का मौका नहीं मिला।
फ़िर खाना खाने के बाद हम भी सो लिये और सुबह ७.१० बजे ही उज्जैन पहुँच गये।
खुशखबरी !!! संसद में न्यूनतम वेतन वृद्धि के बारे में वेतन वृद्धि विधेयक निजी कर्मचारियों के लिये विशेषकर (About Minimum Salary Increment Bill)
डैडी जल्दी घर पर चाहिये तो भगवान से प्रार्थना करो कि भगवान डैडी को जल्दी घर पर भेज दो..
फ़िर चले अपने घर मुंबई, चैन्नई से वापिस शाम की फ़्लाईट है, सफ़र पर जाने के पहले पेट में जाने कैसा कैसा महसूस होता है, वह मैं अभी साफ़ साफ़ महसूस कर रहा हूँ, हाँ यात्रा रोमांचक होती है पर केवल तब जब आप कभी कभी यात्राएँ कर रहे होते हैं, परंतु अगर यात्राएँ जीवन का अंग बन जायें तो वह रोमांच खत्म ही हो जाता है, पूरा जीवन यायावर हो जाता है।
बस अंतर केवल हममें और साधुओं में यही है कि वो नगरी नगरी बिना किसी लालच के ज्ञान बांटते हुए घूमते थे और हम घूमते हैं अपनी रोजी रोटी के लिये, बहुत पहले एक एस.एम.एस. आया था पहले जो लोग घर छोड़ कर दूर रहते थे अपने घरों से और कभी कभी घर आते थे, पहले उन्हें साधु कहते थे और अब उन्हें सॉफ़्टवेयर इंजीनियर कहते हैं।
घर पर बता दिया है पर बेटे को नहीं बताने का बोला है, उसे बोला है कि डैडी जल्दी घर पर चाहिये तो भगवान से प्रार्थना करो कि भगवान डैडी को जल्दी घर पर भेज दो, मैं उनके बिना नहीं रह पाता हूँ। कल तो भगवान से प्रार्थना करते हुए बहुत रो रहा था बोल रहा था “भगवान जी डैडी को जल्दी भेज दो मैं सबका कहना मानूँगा, कोई शैतानी नहीं करुँगा” तो मैंने बेटेलाल की मम्मी से पूछा कि अब क्या कर रहे हैं, पता चला कि कबका आँसू पोंछकर नीचे बगीचे में बच्चों की टोली में खेलने निकल गये हैं, सब नाटकबाजी है। हमें भी मन ही मन बहुत आनंद आया।
बस इस सफ़र का आनंद अपने बेटे के पास जाकर ही खत्म होगा, हमेशा की तरह मैं जैसे ही घंटी बजाऊँगा, वो दरवाजा खोलेगा और बोलेगा अरे डैडी आ गये, और फ़िर एक पल के लिये शरमा जायेगा और फ़िर अपना समान भी ढंग से नहीं रख पाता हूँ कि मेरे ऊपर सवार हो जाता है, और प्यार करते हुए कहता है, तुतलाते हुए “डैडी, डैडी मैं आपके बिना नहीं रह पाता हूँ, मुझे आपकी बहुत याद आ रही थी, और मैं रोया भी था, आप मेरे लिये क्या लाये हो !!!” फ़िर “अच्छा नहीं लाये हो तो कोई बात नहीं, मुझे चाकलेट खानी है, आईसक्रीम खानी है !!” और इसी आनंद में अपनी सारी थकान उतर जाती है।
वैदिक स्टाईल ऑफ़ मैनेजमेन्ट
आज सायंकालीन सैर के साथ हम सुन रहे थे गोविंद प्रभू का लेक्चर वैदिक स्टाईल ऑफ़ मैनेजमेन्ट। जिसमें उन्होंने क्षत्रिय और ब्राह्मण के गुण बताये हैं।
आज फ़िर सायंकालीन सैर के लिये हम निकल पड़े मरीना बीच की ओर, फ़िर वहाँ समुद्र के किनारे लहरों को देखते हुए घूम रहे थे और जहाँ जनता थोड़ी भी कम होती थी वहीं युगलों की जुगत जमी रहती थी और युगल समुन्दर के किनारे एक दूसरे के आगोश में, एक दूसरे की बाँहों में, और भी न जाने कैसे कैसे बैठे थे जिससे बस वह अपने साथी के ज्यादा से ज्यादा समीप आ सके। खैर यह तो सभी जगह होता है कोई नई बात नहीं है।
फ़िर जब वापिस आने को हुए तो लेक्चर खत्म हो चुका था और एफ़.एम. पर गाने सारे तमिल भाषा में आ रहे थे, जो कि अपनी समझ से बाहर थे तो अपनी एम.पी.३ लिस्ट पर नजर डाली तो गुलाल के गाने नजर आये, बस मन चहक उठा, “मन बोले चकमक ओये चकमक, चकमक चकमक”, “रानाजी मोरे गुस्से में आये ऐसे बलखाये आय हाय जैसे दूर देश के टॉवर में घुस जाये रे ऐरोप्लेन” ।