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जब बेटा अपने माता पिता को अपने साथ गाँव से शहर ले जाने की जिद करता है, तो पिता के शब्द अपने बेटे के लिये – डॉ. राम कुमार त्रिपाठी कृत “शिखंडी का युद्ध” कहानी “वानप्रस्थ”

पिछले दिनों जब हम उज्जैन प्रवास पर थे तब हमने डॉ. राम कुमार त्रिपाठी कृत “शिखंडी का युद्ध” पढ़ी थी जिसकी एक कहानी “वानप्रस्थ” से ये कुछ शब्दजाल बहुत ही अच्छे लगे। और मन को छू गये।
जब बेटा अपने माता पिता को अपने साथ गाँव से शहर ले जाने की जिद करता है, तो पिता के शब्द अपने बेटे के लिये –
थोड़ी देर बाद माँ के आंसू कम हुए तो बोली, ’बेटे, तुम्हें कैसे समझाऊँ अपने भीतर की बात। तुम्हारे पिताजी ही तुम्हें अच्छी तरह समझा सकते हैं। उनकी बातें तो पूरी तरह से मैं नहीं समझती, लेकिन इतनी जरुर समझती हूँ कि तुमसे वे बहुत ज्यादा प्यार करते हैं, मुझ से कहीं अधिक क्योंकि वे हमेशा मुझे समझाते रहते हैं कि
“अगर हम लोगों का लगाया हुआ वृक्ष आज इतना बड़ा हो गया है कि अपना फ़ल खिलाकर अनेकों को तृप्त कर सकता है, अपनी छाया में अनेकों को विश्राम दे सकता है, तो क्या हम लोगों को उस पेड़ से चिपके रहना चाहिये ? कदापि नहीं ? उचित तो यही होगा कि हर क्षण हर घड़ी उसकी रक्षा के लिए तत्पर रहना चाहिये ताकि उसकी डाली पर किसी दुष्ट की कुल्हाड़ी न चले और उसकी छाया घट न जाए। हम लोग तो अब चौथेपन में आ चुके हैं। अभी का जीवन वानप्रस्थ की तरह व्यतीत करना चाहिए था, अत: जंगल न सही घर ही में रहना है, किंतु एकाकी। अपने लगाये पेड़ से दूर। उसकी छाया से दूर ताकि जीवन के अंतिम क्षणों में उसकी हल्की छाया भी कल्पतरु की छाया लगे, हल्का स्पर्श भी अमृत-सा लगे और उसकी तना का रंचमात्र आलिंगन भी अनंत ब्रह्मांड का आलिंगन बन जाये।”

उज्जैन की प्रसिद्ध चीजों के बारे में, हमारे मित्र “बल्लू” का एस.एम.एस

हमारे प्रिय मित्र ने एक एस.एम.एस. भेजा था जिसमें उज्जैन की वो लगभग सारी चीजें हैं जिससे हरेक उज्जैनवासी का लगाव हो न हो पर हमारे मित्र मंडल का लगाव बहुत है आप भी पढ़िये उज्जैन की प्रसिद्ध चीजों के बारे में, और यकीन मानिये अगर आप उज्जैन में रहते हैं और नीचे लिखी एक भी चीज को नहीं जानते हैं तो निकल पड़ें, और ढूँढें, और सूचि को पूरा करें –

हमारे मित्र बल्लू का एस.एम.एस. बल्लू हम मित्र को प्यार से बोलते हैं ।

वो महाकालेश्वर का मंदिर
वो टेकड़ी की चढ़ाई
वो भोलागुरु के गुलाबजामुन
वो टॉप एन टाऊन की आईसक्रीम
वो क्षीरसागर स्टेडियम के मैच
वो विक्रमवाटिका की हरियाली
वो जैन की कचौरी
वो पेटिस लक्ष्मी बेकरी वाला
वो नरेन्द्र टाकीज की मूवीज
वो श्री की फ़ेक्टरी
वो शहनाई की शादियाँ
वो गंगा बेकरी के पेस्ट्री
वो बस स्टैंड का पोहा
वो मद्रासी का डोसा
वो आनंद की चाट
वो ओम विलास का समोसा
वो इस्कॉन की रौनक
वो सर्राफ़े की गलियाँ
वो ऐरोड्रम का सन्नाटा
वो राजकुमार की दाल
वो मामा की दुकान का पान
वो बल्लू की दोस्ती
यही सब तो है हमारे उज्जैन की शान

पिछले दिनों के कुछ फ़ोटो, उज्जैन प्रवास के दौरान पढ़ी गई किताबें, नेहरु प्लेटिनोरियम और ट्रेन की यात्रा

   कुछ किताबें जो हमने अपने उज्जैन प्रवास के दौरान घर पर पढ़ीं – 

 

ताराघर मुंबई के अंदर का एक फ़ोटो –

ताराघर के बाहर के फ़ोटो और उज्जैन जाते समय ट्रेन से खींचा गया एक फ़ोटो और वर्ली सी लिंक का बस में से खींचा गया फ़ोटो –

         

“ऐ मिडम इधर का सेठ किधर है, अपुन के भाई को बात करने का है”

     कभी कभी कुछ पुरानी यादें चाहे अनचाहें अपने आप जहन में आ जाती हैं, और उसमें हास्य का पुट भी होता है तो गंभीरता भी। ऐसी ही एक बात हमें हमारे पढ़ाई के समय की याद आ गई, हम कम्प्यूटर कोर्स कर रहे थे और उस समय कम्प्यूटर कोर्स करना एक फ़ैशन जैसा था कि अगर कॉलेज में पढ़ने वाले ने कोर्स नहीं किया तो उसका जीवन ही बेकार है या बेचारा अनपढ़ ही रह गया। हालांकि जॉब के तो दूर दूर तक अते पते नहीं थे कि इस कोर्स करने से क्या फ़ायदा होने वाला है, परंतु कम्प्यूटर संस्थानों का शायद वह स्वर्णिम युग था, खूब पैसा कमाया सारे संस्थानों ने उस स्वर्णिम काल में।

    हम भी एक नामी संस्थान में डिप्लोमा कोर्स कर रहे थे, और फ़ीस इतनी कि सुनकर अच्छे अच्छे फ़न्ने खाँ को पसीना आ जाये, और जॉब के नाम पर कोई ग्यारण्टी नहीं। हमारे जूनी उज्जैन के कुछ इलाके हैं जो कि अपने आप में बहुत प्रसिद्ध हैं जैसे कि सिंहपुरी, तोपखाना, गुदरी इत्यादि। उस जमाने में तो इन इलाकों के नाम से ही दहशत टपकती थी, हालांकि सिंहपुरी विद्वत्ता के लिये भी प्रसिद्ध है और रहा है।
    
    सिंहपुरी पंडितों की बस्ती है जहाँ अभिवादन की परंपरा भी निराली है, अगर दूसरे से हाल पूछना है तो पूछेंगे देवता कई हालचाल हैं, आशीर्वाद तो हैं नी मालवी भाषा के साथ, वहीं इस इलाके में सिंह लोगों का भी निवास था जो कि कर्म से सिंह थे याने कि धर्म से सिंह और धर्म की रक्षा हेतु हमेशा तत्पर ।

    हमारे संस्थान में एक लड़की पढ़ती थी जो कि किसी सिंह की बहन थी और संस्थान ने उससे कुछ वादा किया होगा कि कम फ़ीस लेंगे या कुछ ओर हमें ज्यादा जानकारी नहीं है, तो संस्थान में उस लड़की का कुछ विवाद चल रहा था। हमारी क्लास का समय सुबह ७ बजे होता था हम हमारी क्लास में अध्ययन कर रहे थे और हमारी क्लास जो कि बिल्कुल मुख्य द्वार के सामने थी, जहाँ से हम मुख्य द्वार की सारी गतिविधियों पर नजर रख सकते थे।

    माधव कॉलेज स्टाईल (ये भी बतायेंगे किसी ओर पोस्ट में) में १०-१२ लड़के धड़धड़ाते हुए संस्थान में घुस आये और सोफ़े पर धँस गये और जो वहाँ बैठे थे उन्हें उठाकर संस्थान से बाहर जाने का इशारा कर दिया गया तो बेचारे चुपचाप बाहर निकल गये। और एक चमचा स्टाईल का बंदा हाथ में हथियार लहराते हुए संस्थान में किससे बात करनी है उसे ढूँढ रहा था कि उसे एक केबिन में एक मैडम दिखाई दीं तो वहीं चिल्लाकर बोला ऐ मिडम इधर का सेठ किधर है, अपुन के भाई को बात करने का है। फ़िर मैडम ने जैसे तैसे उन सबको शांत किया और सर को बुलाकर लाईं और बंद केबिन में कुछ शांतिवार्ता हुई, और वापिस से सिंह लोग माधव कॉलेज स्टाईल में बाहर निकल गये।

पर सिंहपुरी के सिंहों का वाक्य आज भी जहन में गूँजता है तो बरबस ही उसमें हमें हास्य का पुट मिलता है।

जन्मदिन पर दिनचर्या उज्जैन में [दाल बाफ़ले, मिठाई, बाबा महाकाल के दर्शन, रामघाट पर झम्मकलड्डू] भाग २

    जबेली का नाश्ता पूरा होने के बाद हमसे पूछा गया कि अब खाने में क्या पसंद करेंगे हम तो बस इंतजार ही कर रहे थे कि हमसे पूछा जाये और हम झट से कहें “दाल बाफ़ले”। बस हमने झट से कह दिया “दाल बाफ़ले”।

    फ़िर बाफ़ले का आटा बाजार से लाया गया और दाल और बैंगन के भुर्ते की तैयारी की जाने लगी साथ में चावल ये हमारे मालवा का विशेष भोजन है, जिसके लिये हम हमेशा भूखे ही रहते हैं, बाफ़ले का घी जो कि बाफ़ले की रग रग में घुसा हुआ था, हमारे हाई बी.पी. और बड़े हुए कोलोस्ट्रॉल को मुँह चिढ़ा रहा था।

    फ़िर हाथ से मीड़कर बाफ़ले में दाल मिलाकर मजे में अपनी देसी स्टाईल से खाने का आनंद लेने लगे, आज पेट के साथ साथ आत्मा भी तृप्त हो रही थी। आत्मा और मन आनंदित हो रही थी, दिल प्रफ़ुल्लित हो रहा था बाफ़ले के हर गस्से के साथ। अब ज्यादा बात नहीं करेंगे नहीं तो सभी ब्लॉगर्स हमसे अभी यहीं दाल बाफ़ले बनवा लेंगे। 🙂

    कार्यक्रम बनाया गया कि पहले कुछ जरुरी खरीददारी की जाये फ़िर मिठाई ली जाये और फ़िर महाकाल और रामघाट चला जाये। मिठाई में हमने बंगाली मिठाई और काजूकतली ली दोनों ही हमें बेहद पसंद हैं, भले ही डॉक्टर ने मना किया हो परंतु कभी कभी तो उनकी मनाही को ताक पर रखा जा सकता है और मिठाई आनंद लेकर खाई जा सकती है। 😉

    फ़िर समान घर पर रखकर चल दिये हम बाबा महाकाल के दर्शन करने के लिये, अपनी बाइक पर, पुराने उज्जैन की गलियों से निकलते हुए हमें सालों पुरानी यादें ताजा होने लगीं। जब महाकाल घाटी पहुँचे तो पता चला कि एकाकी मार्ग घोषित कर दिया गया है, तो हमने अपने पुराने रास्ते जो कि चौबीस खंबा माता मंदिर के पास से होकर महाकाल जाता है, उससे महाकाल पहुँचे और बाबा के दर्शन बड़े मजे में हुए। हम बाबा महाकाल के दर्शन करने के लिये रात को शयन आरती के पहले ही जाना पसंद करते हैं, क्योंकि उस समय एक तो भीड़ भी नहीं रहती और फ़िर आराम से दर्शन हो जाते हैं, शाम की ठंडक भी रहती है। बाबा महाकाल के दर्शन करने के बाद वहीं महाकाल प्रांगण में चल दिये हम बाबा बाल विजय मस्त हनुमान के दर्शन करने के लिये। सालों पहले हम बाबा महाकाल और बाल विजय मस्त हनुमान की आरती में रोज शामिल होते थे, सब बाबा का प्रताप है और आशीर्वाद है।

    बाबा के दर्शन करने के बाद रामघाट चल दिये, रामघाट से भी बहुत ही गहरा लगाव है मेरा, रामघाट ऐतिहासिक और पौराणिक है। अभी तो खूब चहल पहल थी पर आज से सालों पहले यही रामघाट सुनसान रहता था और घाट भी कच्चा ही था हम साईकिल से लगभग रोज ही रामघाट जाते थे। बड़ा अच्छा लगा कि रामघाट पर चहल पहल रहने लगी है। वहाँ झम्मकलड्डू वाला खड़ा था, जो कि हमारी और हमारे बेटे की पहली पसंद है, हमने लिया काला खट्टा और बेटेलाल ने लिया पंचरंगा, जिसे शुद्ध हिन्दी में बर्फ़ का गोला भी कहा जाता है। आजकल तो रामघाट पर बोटिंग भी हो रही है। चलो अच्छा है कि हमारा उज्जैन प्रगति पर है, सिंहस्थ आने को केवल सात वर्ष बाकी है।

    घर वापिस लौटते समय महफ़ूज भाई का फ़ोन आया परंतु हम ज्यादा बात नहीं कर पाये क्योंकि हम बाजार में थे और फ़िर घर पहुँचकर बात करना ही भूल गये और थकान में चूर होकर शरीर निढ़ाल हो गया था।

    फ़िर वापिस से आज याने कि चार अप्रैल को मुंबई प्रस्थान कर रहे हैं, और फ़िर मुंबईया लाईफ़ में एन्ट्री करने जा रहे हैं। ये सुकून भरे क्षण हमेशा याद रहते हैं, अपने मम्मी पापा के साथ और उज्जैन में बिताये हुए….

जन्मदिन पर दिनचर्या उज्जैन में [सुबह की “जबेली”] भाग १

    उज्जैन आकर बहुत ही सुकून महसूस होता है, जो राहत यहाँ मिलती है वह कहीं और नहीं मिलती। बुजुर्गों ने सही ही कहा है कि “अपना घर अपना घर ही होता है, और परदेस परदेस !!”

    उज्जैन आते आते हमारी एक ऊँगली की चट पकने लगी थी, और उज्जैन आकर तो अपने पूरे शबाब पर थी, हम अपने फ़ैमिली डॉक्टर के पास गये कि चीरा लगाकर पट्टी कर दें पर उन्होंने एक देसी नुस्खा बता दिया। बर्फ़ को पीसकर कप में भरलें और फ़िर उसमें दिन में ४-५ बार अपनी ऊँगली को १० मिनिट तक रखें, अब तक हम यह नुस्खा ३ बार दोहरा चुके हैं, तो दर्द कम नहीं हुआ परंतु सूजन जरुर थोड़ी कम हो गई है, जब दस मिनिट बाद ऊँगली बाहर निकालते हैं तो ऐसा लगता है कि ऊँगली कें अंदर कोई तेजी से दौड़ रहा है, जो कि शायद पीप रहता है। ऐसा लगता है कि मेरी उँगली कहीं दौड़ जायेगी।

    कल हमारा जन्मदिन था, पता नहीं क्यों पर रुटीन में ही दिन निकल गया, उज्जैन की हवा को महसूस करने और घर पर अपने माता पिता के साथ समय कैसे हवा हो गया पता ही नहीं चला।

    ३ अप्रैल की रात १२.०१ मिनिट पर पाबला जी का फ़ोन आ गया, और सबसे पहले उन्होंने हमें जन्मदिन की शुभकामनाएँ दी, हालांकि हमारी नींद में खलल पड़ चुका था परंतु हम पाबला जी का स्नेह और आशीर्वाद पाकर खुद को अभिभूत महसूस कर रहे थे। एकदम ब्लॉग जगत ने हमारी दुनिया ही बदल दी है या कहें कि हमारी एक आभासी दुनिया भी है जहाँ के लोग संवेदनशील हैं और एक दूसरे के सुखदुख में शामिल होने को तत्पर रहते हैं।

    फ़िर १२.२५ पर हमारी प्रिय बहना का फ़ोन आया जो कि मिस काल हो चुका था, तो हम वापिस से नींद के आगोश में जाने के पहले अपने प्रिय और दुष्ट मोबाईल फ़ोन को भी नींद के आगोश में सुला चुके थे, कि अब कोई भी प्रिय हमारी नींद में खलल न डाल पाये, और हम अपनी नींद पूरी कर सकें। आखिर पूरी लंबी नींद शरीर की बहुत ही सख्त जरुरत है।

    सुबह छ: बजे अपनी सुप्रभात हुई और फ़िर वहीं रुटीन, फ़्रेश हुए फ़िर फ़टाफ़ट सुबह की सैर के लिये निकल पड़े और अपनी ही कॉलोनी के चक्कर काटने लगे, बहुत दिनों बाद कोई ऐसी जगह देख रहे थे जहाँ कि मल्टीस्टोरी नहीं थीं, केवल खुला आसमान दिख रहा था। जो सुख महसूस हो रहा था, वह शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।

    फ़िर वापिस आकर घर पर हमसे पूछा गया कि क्या खायेंगे ब्रेकफ़ास्ट में, हम तो हमेशा तत्पर रहते हैं अपने मनपसंदीदा पोहा जलेबी के नाश्ते के लिये। वैसे हमारी फ़रमाईश हमेशा पूरी होती है भले ही अनमने मन से, पर होती है। जलेबी लेने के लिये हम अपने बेटेलाल के साथ चल दिये बाजार अपनी बाइक पर, पुरानी उज्जैन में पर थोड़ी आगे सर्राफ़े पर जाकर पता चला कि आज सैयदना साहब का ९९ वाँ जन्मदिन है तो उसकी खुशी में बोहरा समाज का जुलूस निकल रहा है, फ़िर हमने सोचा कि चलो तेलीवाड़ा की तरफ़ से चला जाये परंतु वहाँ पर भी जुलूस से रास्ता बंद था, तो हमारे बेटेलाल को चिंता हो गई कि अब हमारी “जबेली” का क्या होगा !!! हमने कहा बेटा आज भोलागुरु की जलेबी नहीं खाने को मिलेगी आज हमें फ़्रीगंज जाकर श्रीगंगा की जलेबी खाना पड़ेगी। हमने अपनी बाइक मोड़ी और चल दिये फ़्रीगंज ….

    और अपने दोस्त की दुकान से अपने बेटेलाल की “जबेली” लेकर घर चल दिये। अब अगर यही मुंबई होता तो वहाँ इतना घूमना नहीं पड़ता था, केवल आपके पास दुकान का फ़ोन नंबर होना चाहिये और फ़ोन कर दो, कोई भी चीज चाहिये घर पर १५ मिनिट में हाजिर। पर उज्जैन में कल्पना करना भी मुश्किल है, कि फ़ोन पर जलेबी घर आयेगी 🙁

कुछ एडवान्टेज अगर मुंबई के हैं तो कुछ उज्जैन के भी हैं।

उज्जैन यात्रा वृत्तांत, प्लेटफ़ार्म पर हॉट पीस…

    तीन दिन की छुट्टियों में हम चले उज्जैन, और उसके बने कुछ वृत्तांत और संस्मरण।

    घर से बाहर निकले ऑटो पकड़ने के लिये, और सड़क पर खड़े होकर ऑटो को हाथ देने का उपक्रम करने लगे, दो तीन ऑटो वालों ने मीटर होल्ड पर किया था, मतलब साईड में किया हुआ था जिससे पता चलता है कि ऑटो वाला घर जा रहा है और सवारी को लेकर नहीं जायेगा। और कुछ ऑटो वाले जो कि सवारी की तलाश में थे और मीटर डाऊन नहीं था वे रुककर हमेशा पूछेंगे कहाँ जाना है, गंतव्य बताओ तो जाने को तैयार नहीं और चुपचाप अपनी गर्दन से नहीं का इशारा करके चुपके से निकल लेंगे। पर मुंबई में अगर आपके पास सामान है तो ऑटो वालों को पता रहता है कि ये सवारी या तो एयरपोर्ट जायेगी या रेल्वे स्टेशन। सामान साथ में रहने पर ऑटो मिलने में ज्यादा आसानी रहती है,  जो भी ऑटो चालक उधर जाने का इच्छुक रहता है चुपचाप आ जाता है। तो हम चल दिये बोरिवली स्टेशन अपनी ट्रेन पकड़ने के लिये, वेस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे से नेशनल पार्क होते हुए बोरिवली स्टेशन पहुँचे। तो देखा कि बोरिवली का प्लेटफ़ार्म नं ६ बनकर तैयार हो चुका है।

    मुंबई में रहकर अगर आप लोकल ट्रेन में सफ़र नहीं करते हैं, तो बहुत ही भाग्यशाली हैं या नहीं यह तो अपने मनोविज्ञान पर निर्भर करता है, क्योंकि लोकल ट्रेन का सफ़र भी जिंदगी का एक अहम हिस्सा होता है। बहुत दिनों बाद लोकल ट्रेन और उसमें फ़ँसे लदे फ़दे लोगों को देखकर कुछ अजीब सा लग रहा था हमारी आँखों को !!

    और हम भी जैसे ही स्टेशन की सीढ़ियों पर चढ़े हम भी मुंबई की उस खास जीवनशैली का हिस्सा हो गये केवल अंतर यह था कि हमारे पास सामान था, जिससे साफ़ जाहिर हो रहा था कि हम लोकल ट्रेन नहीं पकड़ने वाले हैं, हम कहीं लंबी दूरी की ट्रेन पकड़कर जाने वाले हैं। सीढ़ियों पर चढ़ते समय देखा कि सीढ़ियाँ जहाँ से शुरु हो रही थीं वहीं पर कुछ कारीगर टाईल्स शुद्ध सीमेन्ट से लगा रहे थे, और सीढ़ियों पर जहाँ यात्रियों के पैर नहीं पड रहे हैं वहाँ बारीक रेत इकठ्ठी हो चुकी थी और सब उस रेत को रौंदते हुए अपने गंतव्य की ओर चले जा रहे थे।

    फ़िर हम पहुँचे बोरिवली के प्लेटफ़ार्म नंबर ४ पर जहाँ कि अवन्तिका एक्सप्रेस आती है। हमारा कोच इंजिन से पाँचवे नंबर पर था जो कि सबसे आगे होता है, हम भी कोच ७ के पास रुक लिये और अपने परिवार को वहीं बेंच पर टिक जाने के लिये बोला, और हम खड़े होकर इधर उधर देखने लगे। क्योंकि उज्जैन जाने वाली ट्रेन में कोई न कोई पहचान का मिल ही जाता है, पर वहाँ भीड़ जयपुर की भी थी जो कि अवन्तिका के ५ मिनिट पहले आती है, और विरार, वसई रोड और भईन्दर की लोकल ट्रेन सरसराट मुंबईकरों से लदी फ़दी चली जा रही थीं। जो लोग पहली बार मुंबई आये थे और जो लोग विरार कभी इन लोकल ट्रेन में नहीं गये थे वो दाँतों तले ऊँगलियों को चबा रहे थे।

    हमारे बेटेलाल ने हमसे फ़रमाइश की हमें टॉफ़ी चाहिये, तो हम उसको ले चले एक स्टॉल की ओर, जहाँ बहुत सारी प्रकार की टॉफ़ियाँ थी, जहाँ बेटेलाल ने एक चुईंगम और कुछ और टॉफ़ियों को अपने कब्जे में किया और हमारी तरफ़ मुखतिब होकर बोले “डैडी पैसे दे दो”। फ़िर वापिस से प्लेटफ़ार्म पर अपने कुछ समय की जगह पर आ गये और वापिस से इंतजार की प्रक्रिया शुरु हो गई।

    इतने में जयपुर एक्सप्रेस चली गई और अवन्तिका एक्सप्रेस की लोकेशन लग गयी, यात्री अपनी अपनी लोकेशन की ओर दौड़ने लगे और एकदम पूरे प्लेटफ़ार्म पर अफ़रा तफ़री जैसा माहौल हो गया। हम भी अपनी लोकेशन पर पहुँचकर ट्रेन का आने का इंतजार करने लगे। हमारे कोच में सब नौजवान पीढ़ी के लोग ही थे, चारों ओर जवानियों से घिरे हुए थे, ऐसा लग रहा था जैसे हम कॉलेज में आ गये हैं, दरअसल इंदौर और उज्जैन जा रहे थे ये सारे नौजवान जो कि मुंबई में बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कार्य करते थे। इतने में ही वहीं पर एक हॉट पीस आ गया मतलब कि एक लड़की जो कि मॉडल जैसी लग रही थी, छोटी सी ड्रेस पहनी हुई थी और साथ का लड़का वह भी मॉडल लग रहा था, बल्ले शल्ले अच्छे थे। तो हमारी घरवाली बोली कि जिस भी कंपार्टमेंट में यह जा रही होगी उसके तो सफ़र में चार चाँद लग जायेंगे। सबकी निगाहें वहीं लगी हुई थीं, इतने में ट्रेन आ गई और हम अपने समान के साथ ट्रेन में लद लिये। और जब ट्रेन चलने लगी तो हमारी घरवाली ने बताया कि वो हॉट पीस तो किसी को छोड़ने आयी थी, न कि यात्रा करने। हमने सोचा कि चलो अच्छा है कम से कम हमें किसी ओर कंपार्टमेंट से ईर्ष्या करने का मौका नहीं मिला।

    फ़िर खाना खाने के बाद हम भी सो लिये और सुबह ७.१० बजे ही उज्जैन पहुँच गये।

मेरी उज्जैन यात्रा में चाय-पान के दौरान एक चाय गुमटी का फ़ोटो.. अपनी मित्र मंडली के साथ चा-पान.. और गुमटी की विशेषता

मैं जब भी उज्जैन जाता हूँ तो अपने मित्रों के साथ दोपहर की चाय पीना वो भी गुमटी पर खड़े होकर नहीं भूलता हूँ, सबको फ़ोन करके बुला लेते हैं और चाय की गुमटी पर दोपहर के निश्चित समय पर सारे दोस्त इकट्ठे हो जाते हैं चा-पान के लिये।

इस दौरान मैंने गुमटी की एक विशेषता देखी थी जो मैं अपने ब्लॉग पर लगाना चाहता था, इस बार फ़ोटू खींच ही लाया, देखिये

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सोनू टी स्टॉल क्या स्टाईल में लिखा है।

और ये रहे सोनू जी स्टॉल चलाने वाले –

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इस फ़ोटो में एक और मजेदार बात देखिये कि दूध के तपेले को कैसे ढ़का गया है, अखबार के द्वारा। जब हमने बोला कि भई दूध में उबाल आ गया है अब इसको ढ़ंक दो तो उसने झट से अखबार हमारे हाथ से लिया और दूध के तपेले पर ढ़ंक दिया।

आज हमारे बेटे के लिये नया संगणक (PC) आ गया, आज तक केवल नमकीन, अचार ही उज्जैन से मंगाते थे पर आज संगणक भी वहीं से मँगवा लिया।

वैसे तो हम रह रहे हैं मुंबई में परंतु फ़िर भी कोई चीज लेनी होती है तो पहली कोशिश यही होती है कि उज्जैन से मँगवा लें, और अगर हम न जा पायें तो भी कोई सामान लाने की कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि हमारे उज्जैन के मित्र आते जाते रहते हैं, तो आराम से अपना सामान आ जाता है, वैसे तो मुंबई से सामान लेने में कोई परेशानी नहीं है परंतु पहली बात बस यही मन में आती है कि यहाँ हर चीज बहुत महँगी है, जबकि अपने उज्जैन में सस्ती।

बस इसीलिये अपने बेटे के लिये पहले सोच रहे थे कि अपना लेपटॉप उसे देकर अपने लिये नया लेपटॉप ले लेंगे पर फ़िर परिवार वाले और मित्रगण बोले कि यह तो बड़ी अच्छी बात है पर अभी बेटा छोटा है इसलिये लेपटॉप देना ठीक नहीं, वैसे ही वह बहुत बड़ा इंजीनियर है। क्योंकि उसके लिये कोई भी खिलौना लेकर आओ तो सबसे पहले पलटकर कितने स्क्रू लगे हैं, और वो किधर से खुल सकता है यही देखता है। तो लेपटॉप का भी तिया पाँचा कर डालेगा इससे अच्छा है कि अपना लेपटॉप अपने पास रखो और उसे नया संगणक दिलवा दो।

फ़िर हमने संगणक की पड़ताल की, कि सस्ता कौन सा पड़ेगा तो हमारे बेटे को तो केवल पढ़ाई और गेम्स के लिये संगणक चाहिये था, इसलिये हमने अपने परम मित्र अंकल चित्तरंजन से मशविरा किया, ये हमारे मित्र हैं परंतु हम इन्हें अंकल ही बोलते हैं। वे बोले कि कॉन्फ़िगरेशन मैं बता देता हूँ आप वहीं से ले लो य फ़िर यहाँ से हम भी भेज सकते हैं, यहाँ पर भाव पता किये तो जो भाव हमें उज्जैन से अंकल ने दिये थे उससे कम से कम २५% ज्यादा भाव यहाँ मिल रहा था, तो आखिरकार हमने सोचा कि अब तो उज्जैन से ही मँगवाते हैं। तो बस हमने उन्हें बोल दिया और आज हमारे बेटे के लिये नया संगणक आ गया।

कल शाम को उज्जैन से हमारे मित्र नितिन अपने परिवार के साथ मुंबई आ रहे थे तो हमने उनके साथ बुलवा लिया और यहाँ पर बोरिवली जाकर अवन्तिका एक्सप्रेस से ले लिया। घर आकर सबसे पहले हमने संगणक को खोला और दर्शन किये कि हाँ कैसा दिखता है, जल्दी ही फ़ोटू भी डालेंगे।

वैसे हम उज्जैन से आमतौर पर नमकीन, अचार इत्यादि मंगवाते ही रहते हैं। क्योंकि हमें तो बस उज्जैन की नमकीन ही अच्छी लगती है, और कभी इंदौर से कोई मित्र आ रहा होता है तो प्याज के सेंव मँगा लेते हैं। आखिरकार अपना स्वाद तो वहीं का है, तो फ़िर कुछ भी हो अपने को तो बस उज्जैन की ही चीज अच्छी लगती है।

एक मुलाकात ताऊ और सुरेश चिपलूनकर से

अभी हम दीवाली की छुट्टियों पर अपने घर उज्जैन गये थे, जिसमें हमारा इंदौर जाने का एक दिन के लिये पहले से प्लान था । इंदौर में हमारे बड़े चाचाजी सपरिवार रहते हैं, तो बस घर की साफ़ सफ़ाई के बाद वह दिन भी आ गया। एक दिन पहले शाम को टेक्सी के लिये फ़ोन कर दिया क्योंकि इंदौर मात्र ५५ कि.मी. है। और चाचीजी से फ़रमाईश भी कर दी कि स्पेशल हमारे लिये दाल बाफ़ले बनाये जायें, ताऊ से पहले ही बात कर ली थी कि हम इंदौर आने वाले हैं तो उन्होंने एकदम कहा कि मिलने जरुर आईयेगा, बहुत ही आत्मीय निमंत्रण था।

कुछ फ़ोटो इंदौर पहुंचने के पहले के –

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उज्जैन से इंदौर का फ़ोरलेन का कार्य प्रगति पर है।

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सांवेर में नरम और मीठे दाने के भुट्टे और बीच में ऊँटों का कारवां।

हम इंदौर पहुंच गये सुबह ही घर पर परिवार के साथ समय कैसे जाता है पता ही नहीं चला फ़िर हमने ताऊ से बात की तो वे बोले कि कभी भी आ जाइये कोई समस्या नहीं है, हमने ये सोचा था कि वे अपने कार्य में व्यस्त होंगे तो हमें टाइम दे पायेंगे या नहीं।

हम पहुंच गये ताऊ के यहाँ उन्होंने बहुत ही सरल तरीके से हमें अपना घर का पता बता दिया था तो हम बिना पूछताछ के ही सीधे उनके घर पहुंच गये। साथ में थीं हमारी धर्मपत्नीजी भी। ताऊ बोले कि ताई अभी दीवाली की खरीदी करने बाजार गई हैं नहीं तो आपको उनसे भी मिलवाते।

ताऊ ने घर पर ही अपना ओफ़िस बना रखा है, बिल्कुल जैसा सोचा था ताऊ वैसा ही निकला। फ़िर आपस में पहले परिचय हुआ (वो तो पहले से ही था) पर ठीक तरीके से, अपने अपने इतिहास को बताया कि पहले क्या करते थे अब क्या करते हैं।

ब्लोगजगत के बारे में बहुत सी चर्चा हुईं, हाँ उनकी बातों से ये जरुर लगा कि वे ब्लोग के लिये बहुत ही गंभीर रहते हैं और अपनी वरिष्ठता होने के साथ वे बहुत गंभीर भी हैं, अधिकतर ब्लोगर्स के सम्पर्क में रहते हैं और वे अपना सेलिब्रिटी स्टॆटस समझते हैं।

उन दिनों हमने ७ दिन का पोस्ट न लिखने का विरोध करा था, उस पर भी काफ़ी बात हुई वे भी बहुत दुखी थे, बहुत सारे ब्लोगर्स के बारे में बात हुई पर खुशी की बात यह है कि ताऊ केवल हिन्दी ब्लोग की तरक्की चाहते हैं और इसके लिये उनके कुछ सपने भी हैं, जो आने वाले दिनों में साकर करेंगे, सफ़लता के लिये हम कामना करते हैं। ताऊ से अल्प समय के इस मिलन में हमने ताऊ से बहुत सारे गुर सीखे।

इंदौर के ब्लोगर्स के बारे में बात हुई तो ताऊ बोले कि केवल दिलीप कवठेकर जी ही हैं और तो किसी को जानता नहीं। फ़िर दो दिन पहले ही कीर्तिश भट्ट जी से बात हुई “बामुलाहिजा” वाले, वे बोले कि अगर हमें पहले से पता होता तो वे भी मिल लेते क्योंकि वे भी इंदौर में ही रहते हैं।

बस फ़ोटो खींचने का बिल्कुल याद ही नहीं रहा। कुछ दिन पहले अविनाश वाचस्पति जी से बात हुई थी तब उन्होंने याद दिलाया था कि किसी भी ब्लोगर से मिलें एक फ़ोटो जरुर खींच लें भले ही अपने मोबाईल से हो।

ये गलती हमने सुरेश चिपलूनकरजी से मिलने गये तो नहीं दोहराई।

हम सुरेशजी से मिलने पहुंचे तो हमने गॉगल लगा रखा था तो वे हमें पहचान ही नहीं पाये पर गॉगल उतारने पर एकदम पहिचान लिये। गले मिलकर दीवाली की हार्दिक शुभाकामनाएँ दी फ़िर बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ।

Suresh Chiplunkar and Vivek Rastogi

सुरेश चिपलूनकर जी और मैं विवेक रस्तोगी उनकी कर्मस्थली पर

बात शुरु हुई तो पता चला हमारे बहुत से कॉमन दोस्त और पारिवारिक मित्र हैं । फ़िर बात लेखन के ऊपर हुई तो यही कि प्रिंट मीडिया को तो छापने के लिये कुछ चाहिये और वे चोरी से भी परहेज नहीं करते, और अगर लेखक को कुछ दे भी दिया तो ये समझते हैं कि वे कंगाल हो जायेंगे। हमने बताया कि हम भी पहले ऐसे ही लिखते थे परंतु हालात अच्छॆ न देखकर लिखना ही बंद कर दिया।

फ़िर बात शुरु हुई  हमारे ७ दिन के पोस्ट न लिखने के ऊपर तो उनके विचार थे कि ये लोग कभी सुधर ही नहीं सकते इन सबसे अपना मन मत दुखाईये पर हम भी क्या करें हैं तो हम भी हाड़ मास के पुतले ही ना, कोई तो बात दिल को लगेगी ही ना।

सुरेश जी से भी बहुत सारे मुद्दों पर चर्चा हुई, तो उन्होंने कहा कि ब्लोग को एक विचारधारा पर रखकर ही आगे बड़ा जा सकता है, उनकी ये बात सौ फ़ीसदी सत्य है।

ब्लोग की व्यवहारिक कठिनाईयों के बारे में भी बात हुई वे बोले कि कुछ ब्लोगर्स मित्र हैं जो कि तकनीकी मदद करते हैं, क्योंकि हम तकनीकी रुप से उतने सक्षम नहीं हैं।

एग्रीगेटर के बारे में भी बात हुई कि कोई भी फ़्री की चीज पचा नहीं पा रहा है और हमले किये जा रहे हैं।

हमने उन्हें बताया कि हमें उनकी लेखन की कट्टरवादी शैली बहुत पसंद है जो कि राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व की अलख हर दिल में जलाती है।

बहुत सारी बातें की फ़िर हमने उनसे विदा ली, बताईये कैसी लगी मुलाकात ताऊ और सुरेश चिपलूनकर से।