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About Vivek Rastogi

मैं २००६ से हिन्दी ब्लॉगिंग कर रहा हूँ, और वित्त प्रबंधन मेरा प्रिय विषय है। मेरा एक यूट्यूब चैनल भी है जिसे आप https://youtube.com/financialbakwas देख सकते हैं।

जब हमने दोस्त के साथ आम का डिनर किया

यह वाक़या हमें इसलिये याद आ गया जब हमने दोस्त के साथ आम का डिनर किया। पिछले वर्ष हम 1 सप्ताह के लिये मुंबई गये थे, यही समय था, खूब आम आ रहे थे। हम अपनी रॉ वेगन डाइट पर थे, घर से बाहर इस प्रकार की डाइट पर रहना थोड़ा मुश्किल होता है। परंतु हमने अच्छे से पालन किया।

सुबह ऑफिस जाते समय होटल के रेस्टोरेंट से जहाँ अपना ब्रेकफास्ट कॉम्प्लीमेंट्री था, पर हम ब्रेकफास्ट नहीं करते थे, तो हम अपनी 1 लीटर मिल्टन की बोतल में तरबूजे का ज्यूस ले जाते थे, और दोपहर में भूख लगती थी तो वहीं बीकेसी के बैंक की कैंटीन में मोसम्बी ज्यूस पी लेते थे।

शाम को होटल आते हुए, ककड़ी, गाजर, शिमला मिर्च, प्याज ले आते थे, 1 या 2 दिन हमने सब्जी का सलाद खाया, चाकू, बारीक सलाद काटने की मशीन, थाली सब साथ लेकर गये थे। फिर ठेलों ओर आम दिखने लगे, बढ़िया दशहरी, लँगड़ा।

बस फिर लँगड़े आम का ही शाम का भोज होता था, शाम को आम 2 दिन के हिसाब से लाते और होटल के कमरे में फ्रिज में डाल देते तो अगले दिन बढ़िया ठंडे आम मिलते थे।

हमारे मित्र होटल पर मिलने आने वाले थे, हमने उनसे पूछा कि डिनर साथ करेंगे, वो बोले हाँ करेंगे, वे आये मिलने, तो हमने कहा चलो आओ डिनर कर लो रेस्टोरेंट में, उन्होंने हमसे पूछा और तुम, हमने कहा पका तो खा नहीं रहे हम, हम तो डिनर में आम खाते हैं, मित्र बोले फिर आज हम भी डिनर में आम ही खायेंगे। हम दोनों ने छककर आम खाये।

आम के सीजन में डाइट का मजा है, सुबह 4-5 आम खाओ, फिर पूरी दोपहर तरबूजे का रस पियो और फिर शाम को वापिस से 5-6 आम खा लो। वजन मेंटेन रहेगा।

अंग्रेज opportunity को ओप्पोर्तुनीति कहते हैं

ये अंग्रेज opportunity को ओप्पोर्तुनीति कहते हैं और हम त की जगह च कहकर ओप्पोरचुनुटी कहते हैं। यह फेसबुक की बातचीत हुई, बढ़िया लगी तो ब्लॉग पोस्ट बनाकर सहेज ली।

Pawan Kumar बहुत शब्द हैं ऐसे, व्हाट को वाट बोलते हैं

हमने कहा – वात कहते हैं

नुतन नारायण भारतीय जलवायु के कारण……….. ठन्डे इलाकों में रहने वाले मुँह कम खोलकर शब्द उच्चारण करते है, इस कारण से कुछ ध्वनियों का लोप है उनकी भाषा मेंl

Vikas Porwal एक बार एक रशियन भाई से मुलाक़ात हुयी, aperture को अपरतूरे बोल रहा था

Mahfooz Ali इंडिया का फ़्यूट्युरे अब डार्क है…

Neeraj Rohilla भारत मे अधिकतर अपोर्चुनिटी कहते हैं, बाहर लगभग ऑपरचूनिटी; जैसे भारत मे अधिकतर इकोनोमिक कहते हैं और बाहर एक्नॉमिक ।
केवल भारत में ही इन सब बातों पर ध्यान देते हैं, अंग्रेजी बोलने वाले देश अंग्रेजी खराब होने पर ध्यान नहीं, अगला क्या कहना चाह रहा है इस पर ध्यान देते हैं, केवल भारत मे ही हमने देखा है कि लोग खराब अंग्रेजी या प्रोनांशियेशन पर लोगों को जाहिल डिक्लेयर कर देते हैं।

हमने कहा – यही हमने भी देखा, ग्रामर पर ध्यान दिलाकर नीचा दिखाने की कोशिश हमारे ही लोग करते हैं, पर अन्य देशों के लोगों का मैन फोकस होता है कि काम की बात आप तक पहुँचनी चाहिये।

Bs Pabla मतलब
ये हमारे ग्रंथों में बताई गई कोई नीति है? जो अंग्रेज चुराके ले गए थे 🤔

Kajal Kumar हमारा काम ‘इंडियन इंगलिश’ से ही काम चल जाता है क्योंकि वे हमसे यही expect भी कर रहे होते हैं

Vijender Masijeevi भाषा विज्ञान में इसे कंट्रास्टिंग एनालिसिस (व्यतिरेकी विश्लेषण) कहा जाता है। अपने जो भाषा पहले सीखी है उसकी ध्वनियां बाद में सीखी भाषा को प्रभावित करती ही हैं। हमारे यहां पूरा ट वर्ग और त वर्ग है इन ध्वनियों का उनके पास इस वर्ग की ध्वनियां कम हैं लिहाज हम इस वर्ग की ध्वनियों में बहुत फिजूलखर्ची करते हैं। रवींद्रनाथ ठाकोर का टैगोर होना तो सब जानते ही हैं, वो इसी वजह से है।

 

पर्सनल लोन मात्र 3% पर

कल एक मैडम का कॉल आया, हमसे बोला कि HDB फाइनेंसियल से बोल रहे हैं, और स्पेशल ऑफर चल रहा है, पर्सनल लोन मात्र 3% पर दे रहे हैं, हमारा दिमाग चकरघिन्नी कि कोई 3% पर पर्सनल लोन कैसे दे सके है। फिर हमने पूछा ये मंथली ब्याज है न तो 36% हो गया वो बोलीं नहीं सर 3% वार्षिक।

फिर हमने पूछा अच्छा अगर हम 1 लाख लोन लेंगे तो हमको ₹3000 ब्याज देना होगा न, वो बोलीं नहीं सर वर्ष का इतना देना होगा, इसी बीच हम HDB की वेबसाइट खोलकर पूरा गणित समझने की कोशिश कर रहे थे। पर कहीं भी 3% वार्षिक वाला स्पेशल ऑफर नहीं था, हमने बताया मैडम को, तो वे बोलीं यह ऑफर केवल हमारे पास उपलब्ध है 😂😂

फिर वो पूछीं कि आपको लोन लेना है, हमने कहा हम तो आज तक लोन ही नहीं लिये, हम लोन नहीं लेते, लोन ले लें तो नींद उड़ जाती है। बस यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि 3% पर आप कैसे लोन बाँट रहे हो? मैडम तुनक गईं हुँह लोन लेना नहीं है पर जानकारी पूरी चाहिये। हमने कहा मैडम बात यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि HDB इतने कम ब्याज पर लोन कैसे दे रहा है? बस फिर फोन काट दिया।

शेयर बाजार केसिनो

कई लोगों को शेयर बाजार केसिनो लगता है, कि रातों रात वहाँ पर पासे फेंककर या नम्बर गेम में किस्मत आजमाकर करोड़ों कमाना चाहते हैं। पर यह बाजार उन्हीं जैसे लोगों का इंतजार करता है, थोड़ा सा जिताकर लालच देता है कि तुम केवल जीत ही रहे हो, और फिर वे लोग इस दलदल से बाहर निकल ही नहीं पाते, धन तो जाता ही है, अगर मानसिक कमजोर होते हैं तो जान भी दे देते हैं आत्महत्या करके।

हम स्टॉक मार्केट में करोड़ों कमाने नहीं आये, हमें बैंक की फिक्स्ड डिपॉजिट पर मिलने वाला ब्याज कम लगता था, और हमें चाहिये था दोगुना ब्याज, बस इस चक्कर में यहाँ आये, कई बार लालच में फँसे पर अपने लक्ष्य पर कायम रहे।

ध्यान रखिये वॉरेन बफेट का वार्षिक रिटर्न 23% है तो कैसे ये नए खिलाड़ी सोचते हैं कि वे 200 या 500% का रिटर्न बाजार से कमा लेंगे। क्योंकि यहाँ भी सपने बेचने वाले लोग हैं, जो बताते हैं कि अगर इतना पैसा लगाओगे तो साल का इतना पैसा तो चुटकी बजाते ही कमा लोगे, और जब पैसे की बात होती है तो आदमी लालच में अंधा हो जाता है। जब कोई समझाता है तो उसे लगता है कि यही है वो जो उसे करोड़पति बनने से रोक रहा है। ऐसे लोगों के चक्कर में न पड़ें जो कहते हैं कि महीने के इतने रूपये लेंगे और श्यूर साट कॉल देंगे, अगर ऐसा ही है तो उनको कॉल बेचने की क्या ज़रूरत वे बाज़ार से सीधे ही कमा सकते हैं।

लालच करिये पर सीमा में रहकर, देखिये एक साधारण सा गणित है, अगर आप कोई शेयर खरीदते हैं और अगर कुछ ही दिनों में आपको मान लीजिये 4-5% का प्रॉफिट होता है, तो बेचकर निकल लीजिये, हाँ पैसा कमाना है तो सीखना भी पड़ेगा, अगर ऐसा आपने वर्ष में 2-3 या 4 बार भी कर लिया तो आपने बैंक से दोगुना या तीन गुना ब्याज अर्जित कर लिया। छोटे मुनाफे पर लालची बनिये और मजा करिये।

मुंबई से उज्जैन एक कूपे में 6 सीटों पर 14 लोगों की यात्रा

जब मुंबई में रहते थे, तो हम कुछ मित्र किराये का एक फ्लेट लेकर रहते थे, और अधिकतर उज्जैन या इंदौर के थे, और लगभग हर सप्ताह हम बोरिवली से उज्जैन की ट्रेन शाम 7.40 पर पकड़ते थे, ट्रेन का नाम है अवंतिका एक्सप्रेस, ट्रेन शनिवार सुबह 7 बजे उज्जैन पहुँच जाती थी और रविवार शाम को फिर से शाम 5.40 पर यह ट्रेन बोरिवली के लिये चलती थी, तो बोरिवली सोमवार सुबह 5 बजे पहुँच जाते थे। थोड़ी देर सोकर फिर तैयार होकर ऑफिस निकल जाते थे। यह बात है लगभग 2007 की, उस समय अवंतिका एक्सप्रेस में रिज़र्वेशन आसानी से तो नहीं मिलता था, पर ऑनलाइन रिज़र्वेशन के कारण आसानी थी। और जैसे ही 3 महीने बाद का रिज़र्वेशन खुलता था, हम लोग आने जाने का रिज़र्वेशन करवा लेते थे।
 
त्योहार के दिनों में हम लोग ज़्यादा लोग होते थे, तो मैं हमेशा ही एक टिकट पर मिलने वाली 6 सीटें रिज़र्व कर लेता था, क्योंकि हमारे एक मित्र हैं वे बहुत दयालु हैं, हमारे पास जब सीटें लिमिटेड होती थीं तो हम चुपचाप अपनी सीट पर बैठ जाते थे, और ये महाशय पूरी ट्रेन में प्लेटफ़ॉर्म पर घूमकर जिनके पास वेटिंग टिकट होता था, उनको अपनी सीट पर आमंत्रित कर आते थे, हमें खैर ग़ुस्सा तो बहुत आता था, पर उनकी दरियादिली देखकर अपनी मित्रता पर गर्व भी होता था। ऐन समय पर ऐसे बहुत से मित्र मिल जाते थे जिनके पास कन्फर्म टिकट नहीं होता था, पर हमारे पास ज़्यादा सीटें होने से हम 1 कूपे में हर सीट के हिसाब से 2 और बीच में बची जगह पर, जहाँ पैर रखते हैं, वहीं 2 लोग सो जाते थे, इस हिसाब से 14 लोग एक कूपे में आ जाते थे।
 
कई बार उन मित्र से बहुत ख़फ़ा भी रहा, वो चुपचाप रहते हमें मनाते रहते, खैर आज याद करता हूँ तो बहुत अच्छा लगता है।
 
ऐसे ही कई किस्से जो ट्रेन के हैं, याद आते रहते हैं, लिखता रहूँगा।

चीन से ही विश्वयुद्ध की शुरुआत है

यही विश्वयुद्ध की शुरुआत है, इस पर हमने फ़ेसबुक पर एक स्टेटस डाला था जिसमें बताया गया था कि जर्मनी ने चीन को 130 बिलियन पौंड का बिल कोरोना वायरस के लिये भेजा है, जिससे बीजिंग में सरसराहट शुरू हो गई है। ख़बर की लिंक यह रही –

इस पर फ़ेसबुक मित्रों के कमेंट जिनमें से अधिकतर पुरातनकालीन हिन्दी ब्लॉगर हैं –

Kajal Kumar I think this is the estimation done by some newspaper, and not that the Government of Germany has raised the invoice.
Vivek Rastogi Kajal Kumar हाँ है तो ऐसा ही कुछ, पर धुँआ तो तभी उठता है जब आग लगी हो।

Anshu Mali Rastogi हां, जिस तरह के हालात बन रहे हैं, उसे देखकर तो यही लग रहा है कि युद्ध की संभावना बन रही है। अमेरिका भी चीन के पीछे हाथ धोकर पड़ा है। चीन ने अपना नुकसान जो किया सो किया पर पूरी दुनिया का बड़ी मात्रा में नुकसान किया है।

Vivek Rastogi Anshu Mali Rastogi अपन कब बिल भेजेंगे, पता नहीं, भेजेंगे कि भी नहीं, यह भी पता नहीं

Anshu Mali Rastogi समय ही बताएगा कि आगे हम क्या करेंगे। करेंगे भी कि नहीं या भक्ति में ही तल्लीन रहेंगे।

Kajal Kumar Anshu Mali Rastogi अमेरिका, केवल छोटे-मोटे देशों पर ही हमला करता है बड़े देशों पर हमला करने की उसकी औकात नहीं है. वरना वह USSR के ख़िलाफ़ केवल cold War में ही न बना रहता. चीन-सागर पर कब्जा कर चुका है, अमेरिका कुछ ना कर सका. एक कृत्रिम टापू भी बना लिया अमेरिका वहां भी कुछ नहीं कर सका. केवल व्यापारिक प्रतिबंध की बात कर सकता है, लेकिन उस पर भी इसे डर है क्योंकि चीन के पास अमेरिका के इतने ट्रेजरी बांड है कि वह, किसी भी दिन चाहे तो अमरीका की अर्थव्यवस्था को गिरा सकता है

Vivek Rastogi Kajal Kumar चीन ने बहुत सशक्त रणनीति बनाई है, आसपास के गरीब देशों को लोन दे देकर, बढ़िया इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलप करवा दिया, चीन को पता था कि यर गरीब देश पैसा नहीं चुका पायेंगे, बिल्कुल पुराने लाला की तर्ज पर अब को सबको अपने हाथ की कठपुतली बनायेगा।

Anshu Mali Rastogi वैसे, काजल भाई मुझे ये सारा मामला अर्थव्यवस्था पर आधिपत्य या एकाधिकार का ही अधिक लगता है। आप देख रहे होंगे, चीन इस मामले में खुद को बड़ी आसानी से बचा ले जाना चाह रहा है। खुद बेचारा बन अमेरिका ही नहीं पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ खिलवाड़ कर रहा है। बेशक, कोरोना में उसकी ही भूमिका है पर बिल्ली के गले में घण्टी बांधे कौन।
रही बात भारत की तो यहां कोई उम्मीद करना बेईमानी ही होगा।
क्या बोलते हो।

Anshu Mali Rastogi आप सही कह रहे हो विवेक भाई।

Vivek Rastogi Anshu Mali Rastogi अब अमेरिका अकेला नहीं है, यह बात चीन को भी अच्छे से समझ में आ रही है, इसलिये अब चीन क्या करता है, वह देखना जरूरी है।

Anshu Mali Rastogi माना कि अमेरिका अकेला नहीं है पर मुझे लगता है अन्य देश अभी युद्ध को टालना ही बेहतर समझेंगे। क्योंकि अभी उनके लिए अपने नागरिकों की जान बचाना प्राथमिकता में होगा। बाद में देखा जाएगा कि क्या करना है। पर चीन को बहुत अधिक आर्थिक नुकसान झेलना होगा, ऐसी संभावना कम ही लगती है। चीन बड़ा निर्दयी मुल्क है।

Vivek Rastogi Anshu Mali Rastogi बात आपकी सही है, अभी प्राथमिकता अपने नागरिकों को बचाने की है, पर इसका बहुत बड़ा नुक्सान चीन को किसी न किसी रूप में भुगतना ही होगा, अभी ऐसा भी लगता है कि विश्व की चौधराहट अमेरिका के हाथ से निकल सकती है और उस चौधराहट को या तो चीन ही हथियायेगा या फिर यूरोप के कुछ देश मिलकर विश्व चलायेंगे, एशिया के किसी मुल्क में चौधराहट करने का दमखम है नहीं।

Anshu Mali Rastogi सही। वैसे, ये मौका अभी भारत के हाथ में भी है कि वो चीन और अमेरिका को मात दे दे। पर यहां समस्या वही है कि बातें ऊंची-ऊंची और जमीनी हकीकत भिन्न। अमेरिका की चौधराहट तो ध्वस्त होनी ही थी- बहाना कोरोना बन गया। रही बात यूरोप या एशिया के देशों की तो अभी वक्त लगेगा लंबा। अमेरिका के बाद चीन ही है। हम विरोध चाहे चीन का कितना ही कर लें किंतु उसके प्रति निर्भरता से मुंह न मोड़ पाएंगे। महामारी के निपटते ही हम अपने-अपने खोलों में वापस लौट आएंगे।

Vivek Rastogi Anshu Mali Rastogi हमारे यहाँ जितने भी वीर हैं वे फेसबुक और ट्विटर वीर हैं, कामधंधे में इन्नोवेशन करने की कह दो तो नानी मर जाती है, सब केवल शब्दों के महारथी हैं, कितने लोगों ने अपनी खुद की प्राइवेट लेब खोलकर कोविड वायरस की दवाई बनाने की शुरूआत की, अनपढ़ों गँवारों के बस की बात नहीं, बस ये लोग केवल गरिया सकते हैं। काम धाम इनको कुछ करना नहीं है, इनके बूते पर भारत क्या खाक चौधराहट करेगा, रात दिन मेहनत करना होगी, वो भी फेसबुक और ट्विटर पर नहीं, जमीनी हकीकत पर, अगर भारत की आधी जनता भी जी जान से जुट जाये और केंद्रीय नेतृत्व असरकारक हो, तो हम चौधराहट के लिये अग्रसर हो सकते हैं। पैसा कमाना वो भी बाहर के देशों से बच्चों का हँसी खेल नहीं है।

Anshu Mali Rastogi आपसे सहमत हूं।
हमारे यहां लोगों के साथ खुशफहमी यह है कि वे 24X7 किसी न किसी दल, नेता और संगठन की भक्ति में लीन रहते हैं। ऐसे में उनसे किसी ऊंचे या गंभीर काम की अपेक्षा करना बेमानी ही है।

Vijender Masijeevi चीन को दुनिया का तब्लीगी जमात बनाने की कोशिश है- इस्लामोफोबिया की तर्ज पर एक सिनो फोबिया भी चल रहा है। ऐसे किसी युद्ध, भले ही वह केवल आभासी, आर्थिक और वाक युद्ध भर हो, के दूरगामी बुरे प्रभाव होंगे।

Neeraj Rohilla Vijender Masijeevi चीन इतना भी मासूम नहीं है, इससे छोटी घटनाओ पर संग्राम हो चुके हैं। वैसे पूरी दुनिया सिवा चीन पर खिसिया जाने के अलावा फिलहाल तो कुछ और नहीं कर पायेगी लेकिन इसका लॉन्ग टर्म नुकसान चीन को जरूर होगा। हां, मैन्युफैक्चरिंग अभी भी चीन में ही रहेगी

Ashutosh Pandit Vijender Masijeevi चीन की और जमात की कोई तुलना नहीं है दोनों के एजेंडा बिलकुल भिन्न है

Ashwin Joshi Agar ye world War 3 nahi he to bhi.।।।।।। This is the base ground या फिर कहे तो भूमिका जरूर है।।।।

अगर आपके भी कुछ कमेंट हों तो बताइयेगा हम यहीं जोड़ देंगे।

ऑफिस से छुट्टी लेने अजीब कारण, पर छुट्टी तो मिल ही जाती है

ऑफिस से छुट्टी तो सबको चाहिये होती है, पर कई बार बिना किसी कारण के भी छुट्टियाँ चाहिये होती हैं, जैसे कि कभी काम करने का मूड ही नहीं है, या फिर उस दिन आप उदास हैं, आपका घर में झगड़ा हो गया है और अब घरवालों को खुश करने के लिये अब उन्हें दिनभर बाहर घुमाने ले जाना है। ऑफिस से छुट्टी लेने अजीब कारण पर छुट्टी तो मिल ही जाती है, अगर अपने परिवार में गृहणी बीमार हो जाये तो भी हमें खुद ही काम करना होता है, तब भी बच्चों को भी सँभालना पड़ेगा, घर की साफ सफाई भी करना होगी तथा खाना भी बनाना होगा। ऐसी कई परिस्थितियों में Continue reading ऑफिस से छुट्टी लेने अजीब कारण, पर छुट्टी तो मिल ही जाती है

Zoom, स्काईप, वेबेक्स और टीम्स पर एक बातचीत

2011 में माइक्रोसॉफ्ट ने स्काईप को 8.5 बिलियन डॉलर में खरीदा था, उसी वर्ष zoom की शुरुआत हुई थी। सोचिये अगर 2011 में महामारी हुई होती तो, उस समय सभी लोग स्काईप का ही उपयोग कर रहे होते, पर अब सभी लोग zoom का उपयोग कर रहे हैं, इसका मुख्य कारण माइक्रोसॉफ्ट का स्काईप को ढंग से मैनेज न किया जाना रहा।

स्काईप व्यक्तिगत उपयोग के लिये उपयोग में नहीं लाया जाता, बल्कि कॉरपोरेट मेसेजिंग एप्प बनकर रह गया है। zoom ने इसी कमी का फायदा उठाया और अब वे कॉरपोरेट के लिये लाँच करने जा रहे हैं।

अभी zoom का समय है और हर किसी को zoom का उपयोग करते देखा जा सकता है, भले ही वह योगा क्लास हो या स्कूल क्लास या फिर दोस्तों के साथ बीयर की चीयर्स, zoom का इंटरफेस आम उपयोगकर्ता के लिये बहुत सरल है, जबकि लगभग हर महीने स्काईप में बदलाव होते रहते हैं।

स्काईप के पास इस बार का यह फायदा उठाने का बहुत बढ़िया मौका था, पर उन्होंने ये मौका खो दिया। zoom के ऊपर अब गूगल की नजर है, हो सकता है कि जल्दी ही यह गूगल का उत्पाद हो जाये।

माइक्रोसॉफ्ट का टीम्स Teams भी उपलब्ध है, परन्तु यह बहुत भारीभरकम एप्प है। कुल मिलाकर zoom ने बाजी मार ली है।

इस पर फ़ेसबुक पर बहुत से कमेंट भी आये जो कि पठनीय हैं –

Prakash Yadav ज़ूम आम लोगों के लिए है। जिन्हें सिर्फ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग चाहिए। टीम कॉर्पोरेट के लिए आल-इन-वन अप्प है।

Abhishek Tripathi मुझे zoom के बारे में कुछ दिनों पहले तक भी पता नहीं था, अभी आजकल सबको देख रहा हूँ Zoom का उपयोग करते हुए तो इसके बारे में जानकारी इकठ्ठा करी! इसके पहले lync use karte the फिर Skype कुछ दिन और फिर Teams. वैसे teams थोड़ा भारी है पर app सही है!

Vimal Rastogi Team and Skype captured corporate

Neeraj Rohilla Microsoft Teams will prevail for corporates. It has some good features. Better than WebEx or Zoom

Vivek Rastogi Neeraj Rohilla Yes Teams is superb.

दिनेशराय द्विवेदी गूगल का ड्यूओ बढ़िया काम कर रहा है।

Prashant Priyadarshi टीम्स का जिक्र करना जल्दबाजी होगी, उसे समय दिया जाना चाहिए। लेकिन ज़ूम को लेकर मेरा अनुभव यह है कि विश्व की कई कंपनियाँ इसका इस्तेमाल पहले ही कर रही थी। पिछले दो साल में दुनिया भर की कम से कम 200 क्लाइंटस के साथ हुई मीटिंग को इसका मानक बना रहा हूँ। स्काइप और वेबेक्स महंगा तो था ही साथ ही यूजर फ्रेंडली भी नहीं था ज़ूम के मुकाबले।

Vivek Rastogi Prashant Priyadarshi मैं तो रोज ही टीम्स, वेबेक्स, स्काईप व जूम का उपयोग करता हूँ, पर जो क्वालिटी जूम में है वह अभी कहीं और नहीं मिलती, शायद अन्य एप्प्स की ट्यूनिंग पर लोगों का इतना ध्यान नहीं रह गया है, और जूम को हल्का फुल्का ही रखा गया है।
Shrish Benjwal Sharma स्काइप सभी वीडियो कॉलिंग या कॉन्फ्रेंसिंग सॉफ्टवेयरों का भीष्म पितामह है। जहाँ तक मुझे याद है यह भारत में डायलअप इंटरनेट कनैक्शन के जमाने में भी था। बाद में ब्रॉडबैंड भी आ गया था पर आज की अपेक्षा स्पीड काफी कम थी।

उस समय मेरे विचार से केवल स्काइप में ही वीडियो चैट का विकल्प था। याहू मैसेंजर में केवल ऑडियो चैट का विकल्प था। नेट की ज्यादा स्पीड न होने से स्काइप में हम लोग ऑडियो चैट ही करके आनन्द लेते थे। दूसरा कारण यह भी था कि डैस्कटॉप पर वैबकेम न होता था। लैपटॉप लेने के बाद और नेट की स्पीड कुछ सुधरने के बाद पहली बार वीडियो चैट की थी तो बड़ा अद्भुत लगा था।

वैसे उस जमाने में चैट वगैरह में मेरे असल जिन्दगी के कोई परिचित, मित्र, रिश्तेदार वगैरह न मिलते थे। तब लोगों के पास नेट क्या कम्प्यूटर भी न होता था। याहू मैसेंजर, स्काइप वगैरह पर ब्लॉगर दोस्तों के साथ ही बतियाते थे। अब तो दुनिया बदल गयी है, स्मार्टफोन ने घर-घर ये सब तकनीक पहुँचा दी।

बाकी दुनिया बदलती रहती है जी। कभी याहू मैसेंजर बादशाह था, उसके बाद गूगल टॉक का जमाना आया, आज व्हॉट्सएप का है, कल किसका होगा पता नहीं।

ऐसे ही आज वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में जूम की धूम है। कल का पता नहीं।

Vivek Rastogi Shrish Benjwal Sharma आपने तो वाकई पुराने दिनों की याद दिला दी।
Nitish Ojha जिस जिस को माइर्कोसाफ्ट ने छुवा वो नष्ट ही कर के छोड़ा … बेकार कर देते हैं स्ट्रेटजी भी बहुत दीघकालिक नहीं है ….. मेरे पास स्काइप के इतने वर्जन है ॥ और सब मे कुछ न कुछ चेंज जो अनावश्यक था … इसका बहुत पुराना यूजर हूँ मैं ॥ शायद 2005 से चला रहा … लेकिन अब भी बहुत कमियाँ है …. पसंद तो ज़ूम भी नहीं आया लेकिन क्या कहा जाये ….स्काइप का एक फीचर था शेयर स्क्रीन ॥ उसे अनावश्यक रूप से अचानक किसी वर्जन मे देते हैं ॥ किसी मे बंद कर देते हैं … लेकिन मैंने अभी भी स्काइप छोड़ा नहीं है
Vivek Rastogi Nitish Ojha बेकार कर देने का हाल लगभग सभी बड़ी कंपनियों का रहा है, कुछ ही कम्पनियों ने उत्पाद की सार्थकता बनाये रखी।स्काईप का शेयर स्क्रीन फीचर अब भी है, हम तो रोज ही उपयोग करते हैं।
Mahfooz Ali जो चीज़ पैदा होती है तो मरती भी है
Vivek Rastogi Mahfooz Ali पर सबकी अपनी लाइफ होती है, कोई लंबे समय तक जिंदा रहता है, कोई बहुत कम समय के लिये।

बैंकनिफ़्टी में लालच

रोज़ सुबह ९ बजे से बाज़ार का पूरा विश्लेषण करके बैठ जाता हूँ, कि आज तो बैंक निफ़्टी में कोई ट्रेड करूँगा, अपना एक्सपर्टीज केवल बैंक निफ़्टी और निफ़्टी ऑप्शन्स पर है, और बैंकनिफ़्टी में जल्दी लालच करके थोड़ा बहुत कमाकर निकल लेना अपनी आदत है।

अपने व्हाट्सऐप स्टेटस पर करीबी मित्रों के लिये अपनी स्टडी भी शेयर करता हूँ, पर कई बार होता यह है कि ख़ुद ही ट्रेड नहीं कर पाता, कई बार मूड नहीं होता, कई बार नींद में होता हूँ, क्योंकि रात को देर से मीटिंग ख़त्म होती है, तो फिर नींद में ट्रेडिंग नहीं करता, लोग कहते हैं कि 9.15 से 9.30 के बीच मार्केट सैटल होने दो फिर बैंकनिफ्टी में ट्रेड उसके बाद करो, और बैंकनिफ्टी में मेरा पसंदीदा ट्रेड करने का समय ही यह 15 मिनिट है। सबकी अपनी अपनी स्टडी होती है, खैर आजकल स्टडी ठीकठाक सी ही है, बैंकनिफ्टी में 90% तक के ट्रेड में अच्छी खासी कमाई हो  जाता है, स्टॉप लॉस भी कभी कभार ठुक ही जाता है।

अब चार्ट पढ़ने के लिये तो मैं अपने ब्रोकिंग एप्प कुछ एक स्पेशल पेड़ सर्विस वाले एप्प का ही इस्तेमाल करता हूँ, लोग 5 मिनिट का चार्ट बनाते हैं, मैं 1 मिनिट का चार्ट बनाता हूँ और अब कोशिश होती है कि अपना लाग टर्म 5 मिनिट का ही हो, कई बार तो मैं ट्रेड ख़रीद कर एकदम बेच भी देता हूँ, बाद में समय देखता हूँ तो पता चलता है कि मात्र 15-20 सेकंड में भी कई बार टार्गेट आ जाता है और ट्रेड हो जाती है।

लोग कहते हैं कि तुम ख़ुद के कॉल पर ही काम नहीं करते, मैं कहता हूँ कि मुझे बाज़ार थोड़ा बहुत समझ में ज़रूर आने लगा है, परंतु इसका मतलब यह तो नहीं कि अपनी कमाई का पैसा ऐसे ही जाने दूँ, पर हाँ मैं जब भी ट्रेड करता हूँ हैज करके करता हूँ, आजकल की वोलेटिलिटी में हैजिंग बहुत काम की है, दोनों तरफ़ कमाई होती है।

तभी तो दोस्तों को कहता हूँ कि भले मुझे सीखने में 20 वर्ष लगे, पर आप लोग ज़्यादा होशियार हो, आप लोग जल्दी सीख सकते हो, और अच्छी खासी कमाई भी कर सकते हैं। वह भी बहुत कम पैसे में याने कि 5 – 6000 से ही काम शुरू कर सकते हैं, पर हाँ पहले सीखने में बहुत मेहनत करना पड़ेगी, टीवी मत देखना, सब बेबकूफ बनायेंगे। पेपर ट्रेडिंग करना शुरू करो, बाज़ार में आ रही ख़बरों को पढ़ना शुरू करो, समझो कि कैसे और कहाँ इस ख़बर का असर होगा, मुझे यह चीज Kamal Sharma जी ने समझाई, उनका बहुत बहुत आभार है, वे मेरे गुरू हैं शेयर बाजार के मामलों में। शेयर बाजार को पढ़ना मुझे बोर नहीं लगता है, अब तो बिजनेस की न्यूज देखकर और मजा आता है, बैलेन्स शीट पढ़ना प्रिय शगल है, सेक्टर रिपोर्ट पढ़ना बहुत अच्छा लगता है, ट्विटर पर भी जानकारी भरी पड़ी है, एक से एक विशेषज्ञ लोग भरे पड़े हैं, बस अपने आप को फोकस करने की जरूरत है।

उच्चशिक्षा के नाम पर फ़ीस क्यों वसूली जाती है? क्या वे उम्र के साथ अमीर होते जाते हैं?

95% फ़ीसदी बच्चों को सरकार मुफ़्त शिक्षा देती है, मि़डडे मील के नाम पर खाना भी खिलाती है, इसके बाद भी इनमें से 10% भी कॉलेजों तक नहीं पहुँच पा रहे हैं, तो इस पर सोचा जाना बेहद ज़रूरी है, जिस देश में बच्चे मुफ़्त में भी प्राइमरी शिक्षा नहीं ले पाते, वहाँ उनसे उच्चशिक्षा के नाम पर फ़ीस क्यों वसूली जाती है? क्या वे उम्र के साथ अमीर होते जाते हैं?

मिडिल तक शिक्षा इतनी महँगी नहीं है कि अभिभावक उस का खर्च न उठा पायें, अधिकांश प्राइमरी, मिडिल स्कूलों की फ़ीस उन की पहुँच के भीतर है, लेकिन कॉलेज स्तर पर वे भारी भरकम खर्च नहीं उठा पाते हैं, तो ज़रूरी यह है कि उच्चशिक्षा सस्ती की जाये।

उच्चशिक्षा महँगा करने का उद्देश्य तो केवल यही लग रहा है कि सरकार क़तई नहीं चाहती और न ही इस मूड में हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग उच्चशिक्षित हों, क्योंकि सरकार नौकरियाँ भी पैदा नहीं कर पा रही है, तो ‘न रहेगा बांस न बजेगी बाँसुरी’।

एक महत्वपूर्ण बात यह है कि युवा पढ़ लिखकर समझदार हो जाता है, याने कि राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तौर तरीक़ों पर वे खुद की सोच क़ायम कर पाते हैं, अपनी ख़ुद की राय या अपने विचार बना पाते हैं। चिंता की बात सरकार के लिये यह है कि युवाओं को उस बिंदु तक पहुँचने ही न दिया जाये कि जहाँ वे आकर सी विचारधारा के अनुयायी या ग़लत बातों का विरोध कर पायें।

ये जो बाहर के देश में रहने वाले लोग हैं जैसे कि जर्मनी, शिक्षा के क्षैत्र में विश्व में महत्वूपर्ण रखता है और दुनिया की बेहतरीन 250 यूनिवर्सिटीज में से 16 जर्मनी की हैं, जहाँ उच्चशिक्षा के लिेये न के बराबर फ़ीस ली जाती हैं, वहीं कई संस्थान तो ऐसे हैं जो बिल्कुल मुफ़्त में उच्चशिक्षा प्रदान करते हैं। वैसे ही नॉर्वे, फ़िनलैंड, स्वीडन, फ़्रांस, नार्डिक देश, आइसलैंड, यूरोपीय देश, चेक रिपब्लिक, इटली, अर्जेंटीना में तो पूर्णतः: मुफ़्त है।

अगर उच्चशिक्षा से इतनी ही समस्या है तो फिर प्राइमरी व मिडिल की मुफ़्त शिक्षा और मिडडे मील का नाटक भी बंद कर देना चाहिये।